Monday, March 15, 2021

राही मासूम रज़ा शायरी

रात ने ऐसा पेँच लगाया टूटी हाथ से डोर
आंगन वाले नीम में जा कर अटका होगा चांद

हाए इस परछाइयों के शहर में
दिल सी इक ज़िंदा हक़ीक़त खो गई

ऐ सबा तू तो उधर ही से गुज़रती होगी
उस गली में मिरे पैरों के निशां कैसे हैं

हां उन्हीं लोगों से दुनिया में शिकायत है हमें
वही लोग जो अक्सर हमें याद आए हैं

यादों से बचना मुश्किल है उन को कैसे समझाएं
हिज्र के इस सहरा तक हम को आते हैं समझाने लोग

ऐ आवारा यादो फिर ये फ़ुर्सत के लम्हात कहां
हम ने तो सहरा में बसर की तुम ने गुज़ारी रात कहां

कहानियों की गुज़रगाह पर भी नींद नहीं
ये रात कैसी है ये दर्द जागता क्यूं है

रास्ते अपनी नज़र बदला किए
हम तुम्हारा रास्ता देखा किए

हर तरफ़ सुब्ह ने इक जाल बिछा रक्खा है
ओस की बूंद कहां जाती है दरिया की तरफ़

दिल की खेती सूख रही है कैसी ये बरसात हुई
ख़्वाबों के बादल आते हैं लेकिन आग बरसती है

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