आंगन वाले नीम में जा कर अटका होगा चांद
हाए इस परछाइयों के शहर में
दिल सी इक ज़िंदा हक़ीक़त खो गई
ऐ सबा तू तो उधर ही से गुज़रती होगी
उस गली में मिरे पैरों के निशां कैसे हैं
हां उन्हीं लोगों से दुनिया में शिकायत है हमें
वही लोग जो अक्सर हमें याद आए हैं
यादों से बचना मुश्किल है उन को कैसे समझाएं
हिज्र के इस सहरा तक हम को आते हैं समझाने लोग
ऐ आवारा यादो फिर ये फ़ुर्सत के लम्हात कहां
हम ने तो सहरा में बसर की तुम ने गुज़ारी रात कहां
कहानियों की गुज़रगाह पर भी नींद नहीं
ये रात कैसी है ये दर्द जागता क्यूं है
रास्ते अपनी नज़र बदला किए
हम तुम्हारा रास्ता देखा किए
हर तरफ़ सुब्ह ने इक जाल बिछा रक्खा है
ओस की बूंद कहां जाती है दरिया की तरफ़
दिल की खेती सूख रही है कैसी ये बरसात हुई
ख़्वाबों के बादल आते हैं लेकिन आग बरसती है
No comments:
Post a Comment