फुरकत-ए-यार में इंसान हूँ या की सहाब,
हर बरस आ के रुला जाती है बरसात मुझे ।
गुनगुनाती हुई आती है फलक से बूंदे,
कोई बदली तेरे पाजेब से टकराई है।
भींगी मिटटी की महक प्यास बढ़ा देती है,
दर्द बरसात की बूंदों में बसा करता है।
दफ्तर से मिल नहीं रही छुट्टी वर्ना मैं,
बारिश की एक बूँद न बेकार जाने दूँ।
ओस से प्यास कहाँ बुझती है,
मूसलाधार बरस मेरी जान।
साथ बारिश में लिए फिरते हो उस को,
तुम ने इस शहर में क्या आग लगानी है कोई।
बरसात के आते ही तौबा न रही बाकी ,
बदल जो नज़र आये बदली मेरी नियत भी।
दूर तक छाये थे बादल और कहीं साया न था,
इस तरह बरसात का मौसम कभी आया न था।
टूट पड़ती थी घटायें जिन की आँखें देखकर,
वो भरी बरसात में तरसे हैं पानी के लिए।
धूप ने गुजारिश की,
एक बूँद बारिश की।
अब भी बरसात की रातों में बदन टूटता है,
जाग उठती है अजब ख्वाहिशें अंगड़ाई की ।
मैं वो सहरा जिसे पानी की हवस ले डूबी,
तू वो बदल जो कभी टूट के बरसा ही नहीं।
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