चंद रोज़ की उम्र कुछ ऐसे बेलगाम गुज़री,
किसी मोड़ पर जश्न, तो कहीँ ग़म की शाम गुज़री.
ज़िंदगी जीने की फ़ुरसत ही कब मिली हमें,
जियें किस तरह, यही सीखने में उम्र तमाम गुज़री।
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आशु तो कुछ भी नहीं आसूँ के सिवा, जाने क्यों लोग इसे पलकों पे बैठा लेते हैं।
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