बेचता यूँ ही नहीं है आदमी ईमान को,
भूख ले जाती है ऐसे मोड़ पर इंसान को ।
सब्र की इक हद भी होती है तवज्जो दीजिए,
गर्म रक्खें कब तलक नारों से दस्तरख़्वान को ।
शबनमी होंठों की गर्मी दे न पाएगी सुकून,
पेट के भूगोल में उलझे हुए इंसान को ।
पार कर पाएगी ये कहना मुकम्मल भूल है,
इस अहद की सभ्यता नफ़रत के रेगिस्तान को ।
सब्र की इक हद भी होती है तवज्जो दीजिए,
गर्म रक्खें कब तलक नारों से दस्तरख़्वान को ।
शबनमी होंठों की गर्मी दे न पाएगी सुकून,
पेट के भूगोल में उलझे हुए इंसान को ।
पार कर पाएगी ये कहना मुकम्मल भूल है,
इस अहद की सभ्यता नफ़रत के रेगिस्तान को ।
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मुक्तिकामी चेतना, अभ्यर्थना इतिहास की ।
ये समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की ।
आप कहते हैं जिसे इस देश का स्वर्णिम अतीत,
वो कहानी है महज़ प्रतिशोध की, संत्रास की ।
यक्ष-प्रश्नों में उलझकर रह गई बूढ़ी सदी,
ये प्रतीक्षा की घड़ी है क्या हमारी प्यास की ।
इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आख़िर क्या दिया,
सेक्स की रंगीनियाँ या गोलियाँ सल्फ़ास की ।
याद रखिए यूँ नहीं ढलते हैं कविता में विचार,
होता है परिपाक धीमी आँच पर एहसास की ।
अदम गोंडवी
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