सुबह-ओ-शाम,अश्क-ए-बहर में उतरता हूँ मैं।
मुसलसल रोज दर्द की हद से,यूं गुजरता हूँ मैं।।
काश वो भी समझ सकते,मजबूरियों को मेरी।
क्यूं अपने ही किये हर वादे से , मुकरता हूँ मैं।।
आशु तो कुछ भी नहीं आसूँ के सिवा, जाने क्यों लोग इसे पलकों पे बैठा लेते हैं।
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