Wednesday, March 2, 2022

मुस्तक़िल महरूमियों पर भी तो दिल माना नहीं

मुस्तक़िल महरूमियों पर भी तो दिल माना नहीं 
लाख समझाया कि इस महफ़िल में अब जाना नहीं 

ख़ुद-फ़रेबी ही सही क्या कीजिए दिल का इलाज 
तू नज़र फेरे तो हम समझें कि पहचाना नहीं 

एक दुनिया मुंतज़िर है और तेरी बज़्म में 
इस तरह बैठे हैं हम जैसे कहीं जाना नहीं 

जी में जो आती है कर गुज़रो कहीं ऐसा न हो 
कल पशेमाँ हों कि क्यूँ दिल का कहा माना नहीं 

ज़िंदगी पर इस से बढ़ कर तंज़ क्या होगा 'फ़राज़' 
उस का ये कहना कि तू शायर है दीवाना नहीं 

Ahmad  Faraz

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