Friday, October 2, 2020

जिंदगी मुट्ठी में बंद रेत सी रिसती जाती है

जिंदगी मुट्ठी में बंद रेत सी रिसती जाती है,
जिंदगी पत्तों में पड़ी ओस सी झड़ती जाती है.
जिंदगी सुख दु:ख के धागों में उलझाती है,
नीम सी कड़वाती, कभी काॅफी सी महकाती है .

बचपन के वो रंगीन सपने, ना जाने कहाँ सो गये,
बचपन के साथी संगी,ना जाने कहाँ खो गये.
जिंदगी फिर उसी बचपन को चाहती है,
जिंदगी मुट्ठी में बंद रेत सी रिसती जाती है.

यूं ही बीत गया जीवन, बेकार के ताने-बानों में,
यूं ही रीत गया जीवन, सपनों के घरौंदे बनाने में.
जिंदगी सर्दियों की धूप सी फिसलती जाती है.
जिंदगी मुट्ठी में बंद रेत सी रिसती जाती है.

जिंदगी के कितने पन्ने, कोरे - कोरे से रह गये,
जीवन के चमकीलें रंग, कुछ धूसर से हो गये.
जिंदगी फिर से उन्ही इंद्र धनुषी रंगों को चाहती है.
जिंदगी मुट्ठी में बंद रेत सी रिसती जाती है.

फूलों सी महकाती यादें, मन ही मन में सो गयी,
कितनी ही अनकही बाते, मन के धारों में खो गयी.
जिंदगी तितलियों सी हाथों से उड़ी जाती है,
जिंदगी मुट्ठी में बंद रेत सी रिसती जाती है.

लहरों सी कब आयी जिंदगी, ना जाने कब लौट गयी,
सुख-दुख के धागों में उलझी, ना जाने कब टूट गयी.
जिंदगी की सांझ कितनी अकेली हुई जाती है.
जिंदगी मुट्ठी में बंद रेत सी रिसती जाती है.

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