Tuesday, June 17, 2025

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ

ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ


डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा

कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ


ज़ब्त कम-बख़्त ने याँ आ के गला घोंटा है

कि उसे हाल सुनाऊँ तो सुना भी न सकूँ


नक़्श-ए-पा देख तो लूँ लाख करूँगा सज्दे

सर मिरा अर्श नहीं है जो झुका भी न सकूँ


बेवफ़ा लिखते हैं वो अपने क़लम से मुझ को

ये वो क़िस्मत का लिखा है जो मिटा भी न सकूँ


इस तरह सोए हैं सर रख के मिरे ज़ानू पर

अपनी सोई हुई क़िस्मत को जगा भी न सकूँ

-अमीर मीनाई


No comments: