Tuesday, March 31, 2020

गरीबी, मुफलिसी शायरी

ग़ुर्बत की तेज़ आग पे अक्सर पकाई भूक 
ख़ुश-हालियों के शहर में क्या कुछ नहीं किया 
- इक़बाल साजिद

खड़ा हूँ आज भी रोटी के चार हर्फ़ लिए 
सवाल ये है किताबों ने क्या दिया मुझ को 
- नज़ीर बाक़री

अब ज़मीनों को बिछाए कि फ़लक को ओढ़े
मुफलिसी तो भरी बरसात में बे-घर हुई है
- सलीम सिद्दीक़ी

आने वाले जाने वाले हर ज़माने के लिए
आदमी मज़दूर है राहें बनाने के लिए
-हफ़ीज़ जालंधरी

दरिया दरिया घूमे मांझी पेट की आग बुझाने
पेट की आग में जलने वाला किस किस को पहचाने
- जमीलुद्दीन आली

बीच सड़क इक लाश पड़ी थी और ये लिक्खा था
भूक में ज़हरीली रोटी भी मीठी लगती है
- बेकल उत्साही
हटो काँधे से आँसू पोंछ डालो वो देखो रेल-गाड़ी आ रही है 
मैं तुम को छोड़ कर हरगिज़ न जाता ग़रीबी मुझ को ले कर जा रही है 
- अज्ञात

जुरअत-ए-शौक़ तो क्या कुछ नहीं कहती लेकिन 
पाँव फैलाने नहीं देती है चादर मुझ को 
- बिस्मिल अज़ीमाबादी
मुफ़लिसों की ज़िंदगी का ज़िक्र क्या 
मुफ़्लिसी की मौत भी अच्छी नहीं 
- रियाज़ ख़ैराबादी

अपनी ग़ुर्बत की कहानी हम सुनाएँ किस तरह 
रात फिर बच्चा हमारा रोते रोते सो गया 
- इबरत मछलीशहरी

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