मुस्तक़िल बोलता ही रहता हूँ
कितना ख़ामोश हूँ मैं अंदर से
जौन एलिया
हम लबों से कह न पाए उन से हाल-ए-दिल कभी
और वो समझे नहीं ये ख़ामुशी क्या चीज़ है
निदा फ़ाज़ली
बोलते क्यूँ नहीं मिरे हक़ में
आबले पड़ गए ज़बान में क्या
जौन एलिया
इल्म की इब्तिदा है हंगामा
इल्म की इंतिहा है ख़ामोशी
फ़िरदौस गयावी
आप ने तस्वीर भेजी मैं ने देखी ग़ौर से
हर अदा अच्छी ख़मोशी की अदा अच्छी नहीं
जलील मानिकपूरी
ख़मोशी से मुसीबत और भी संगीन होती है
तड़प ऐ दिल तड़पने से ज़रा तस्कीन होती है
शाद अज़ीमाबादी
ख़मोशी से अदा हो रस्म-ए-दूरी
कोई हंगामा बरपा क्यूँ करें हम
जौन एलिया
चुप-चाप अपनी आग में जलते रहो 'फ़राज़'
दुनिया तो अर्ज़-ए-हाल से बे-आबरू करे
अहमद फ़राज़
उसे बेचैन कर जाऊँगा मैं भी
ख़मोशी से गुज़र जाऊँगा मैं भी
अमीर क़ज़लबाश
मेरी ख़ामोशियों में लर्ज़ां है
मेरे नालों की गुम-शुदा आवाज़
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
मोहब्बत सोज़ भी है साज़ भी है
ख़मोशी भी है ये आवाज़ भी है
अर्श मलसियानी
चुप चुप क्यूँ रहते हो 'नासिर'
ये क्या रोग लगा रक्खा है
नासिर काज़मी
दूर ख़ामोश बैठा रहता हूँ
इस तरह हाल दिल का कहता हूँ
आबरू शाह मुबारक
चुप रहो तो पूछता है ख़ैर है
लो ख़मोशी भी शिकायत हो गई
अख़्तर अंसारी अकबराबादी
तुम्हारे ख़त में नज़र आई इतनी ख़ामोशी
कि मुझ को रखने पड़े अपने कान काग़ज़ पर
यासिर ख़ान इनाम
हर तरफ़ थी ख़ामोशी और ऐसी ख़ामोशी
रात अपने साए से हम भी डर के रोए थे
भारत भूषण पन्त
ज़ोर क़िस्मत पे चल नहीं सकता
ख़ामुशी इख़्तियार करता हूँ
अज़ीज़ हैदराबादी
जो चुप रहा तो वो समझेगा बद-गुमान मुझे
बुरा भला ही सही कुछ तो बोल आऊँ मैं
इफ़्तिख़ार इमाम सिद्दीक़ी
ख़मोशी मेरी मअनी-ख़ेज़ थी ऐ आरज़ू कितनी
कि जिस ने जैसा चाहा वैसा अफ़्साना बना डाला
आरज़ू लखनवी
मिरी ख़ामोशियों पर दुनिया मुझ को तअन देती है
ये क्या जाने कि चुप रह कर भी की जाती हैं तक़रीरें
सीमाब अकबराबादी
'बाक़ी' जो चुप रहोगे तो उट्ठेंगी उँगलियाँ
है बोलना भी रस्म-ए-जहाँ बोलते रहो
बाक़ी सिद्दीक़ी
हर एक बात ज़बाँ से कही नहीं जाती
जो चुपके बैठे हैं कुछ उन की बात भी समझो
महशर इनायती
असर भी ले रहा हूँ तेरी चुप का
तुझे क़ाइल भी करता जा रहा हूँ
फ़िराक़ गोरखपुरी
रंग दरकार थे हम को तिरी ख़ामोशी के
एक आवाज़ की तस्वीर बनानी थी हमें
नाज़िर वहीद
निकाले गए इस के मअ'नी हज़ार
अजब चीज़ थी इक मिरी ख़ामुशी
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
ख़ामोशी में चाहे जितना बेगाना-पन हो
लेकिन इक आहट जानी-पहचानी होती है
भारत भूषण पन्त
ख़ामुशी तेरी मिरी जान लिए लेती है
अपनी तस्वीर से बाहर तुझे आना होगा
मोहम्मद अली साहिल
छेड़ कर जैसे गुज़र जाती है दोशीज़ा हवा
देर से ख़ामोश है गहरा समुंदर और मैं
ज़ेब ग़ौरी
हम ने अव्वल तो कभी उस को पुकारा ही नहीं
और पुकारा तो पुकारा भी सदाओं के बग़ैर
अहमद अता
ख़मोश रहने की आदत भी मार देती है
तुम्हें ये ज़हर तो अंदर से चाट जाएगा
आबिद ख़ुर्शीद
चटख़ के टूट गई है तो बन गई आवाज़
जो मेरे सीने में इक रोज़ ख़ामुशी हुई थी
सालिम सलीम
सबब ख़ामोशियों का मैं नहीं था
मिरे घर में सभी कम बोलते थे
भारत भूषण पन्त
जिसे सय्याद ने कुछ गुल ने कुछ बुलबुल ने कुछ समझा
चमन में कितनी मानी-ख़ेज़ थी इक ख़ामुशी मिरी
जिगर मुरादाबादी
मैं चुप रहा कि वज़ाहत से बात बढ़ जाती
हज़ार शेवा-ए-हुस्न-ए-बयाँ के होते हुए
इफ़्तिख़ार आरिफ़
मैं तेरे कहे से चुप हूँ लेकिन
चुप भी तो बयान-ए-मुद्दआ है
अहमद नदीम क़ासमी
मैं हूँ रात का एक बजा है
ख़ाली रस्ता बोल रहा है
नासिर काज़मी
कुछ कहने का वक़्त नहीं ये कुछ न कहो ख़ामोश रहो
ऐ लोगो ख़ामोश रहो हाँ ऐ लोगो ख़ामोश रहो
इब्न-ए-इंशा
हम न मानेंगे ख़मोशी है तमन्ना का मिज़ाज
हाँ भरी बज़्म में वो बोल न पाई होगी
कालीदास गुप्ता रज़ा
जो सुनता हूँ सुनता हूँ मैं अपनी ख़मोशी से
जो कहती है कहती है मुझ से मिरी ख़ामोशी
बेदम शाह वारसी
बहुत गहरी है उस की ख़ामुशी भी
मैं अपने क़द को छोटा पा रही हूँ
फ़ातिमा हसन
खुली ज़बान तो ज़र्फ़ उन का हो गया ज़ाहिर
हज़ार भेद छुपा रक्खे थे ख़मोशी में
अनवर सदीद
ख़मोशी में हर बात बन जाए है
जो बोले है दीवाना कहलाए है
कलीम आजिज़
बोल पड़ता तो मिरी बात मिरी ही रहती
ख़ामुशी ने हैं दिए सब को फ़साने क्या क्या
अजमल सिद्दीक़ी
ख़ामुशी छेड़ रही है कोई नौहा अपना
टूटता जाता है आवाज़ से रिश्ता अपना
साक़ी फ़ारुक़ी
मुझे तो होश न था उन की बज़्म में लेकिन
ख़मोशियों ने मेरी उन से कुछ कलाम किया
बहज़ाद लखनवी
ख़ामोशी के नाख़ुन से छिल जाया करते हैं
कोई फिर इन ज़ख़्मों पर आवाज़ें मलता है
अमीर इमाम
ये हासिल है मिरी ख़ामोशियों का
कि पत्थर आज़माने लग गए हैं
मदन मोहन दानिश
वो बोलता था मगर लब नहीं हिलाता था
इशारा करता था जुम्बिश न थी इशारे में
इक़बाल साजिद
एक दिन मेरी ख़ामुशी ने मुझे
लफ़्ज़ की ओट से इशारा किया
अंजुम सलीमी
अजीब शोर मचाने लगे हैं सन्नाटे
ये किस तरह की ख़मोशी हर इक सदा में है
आसिम वास्ती
सुनती रही मैं सब के दुख ख़ामोशी से
किस का दुख था मेरे जैसा भूल गई
फ़ातिमा हसन
शोर जितना है काएनात में शोर
मेरे अंदर की ख़ामुशी से हुआ
काशिफ़ हुसैन ग़ाएर
इक अश्क क़हक़हों से गुज़रता चला गया
इक चीख़ ख़ामुशी में उतरती चली गई
अमीर इमाम
सौत क्या शय है ख़ामुशी क्या है
ग़म किसे कहते हैं ख़ुशी क्या है
फ़रहत शहज़ाद
घड़ी जो बीत गई उस का भी शुमार किया
निसाब-ए-जाँ में तिरी ख़ामुशी भी शामिल की
जावेद नासिर
मेरी अर्ज़-ए-शौक़ बे-मअ'नी है उन के वास्ते
उन की ख़ामोशी भी इक पैग़ाम है मेरे लिए
मुईन अहसन जज़्बी
क्या बताऊँ मैं कि तुम ने किस को सौंपी है हया
इस लिए सोचा मिरी ख़ामोशियाँ ही ठीक हैं
ए.आर.साहिल "अलीग"
शोर सा एक हर इक सम्त बपा लगता है
वो ख़मोशी है कि लम्हा भी सदा लगता है
अदीम हाशमी
जब ख़ामुशी ही बज़्म का दस्तूर हो गई
मैं आदमी से नक़्श-ब-दीवार बन गया
ज़हीर काश्मीरी
रात मेरी आँखों में कुछ अजीब चेहरे थे
और कुछ सदाएँ थीं ख़ामुशी के पैकर में
ख़ुशबीर सिंह शाद
तमाम शहर पे इक ख़ामुशी मुसल्लत है
अब ऐसा कर कि किसी दिन मिरी ज़बाँ से निकल
अभिषेक शुक्ला
ख़मोशी दिल को है फ़ुर्क़त में दिन रात
घड़ी रहती है ये आठों पहर बंद
लाला माधव राम जौहर
'वहशत' उस बुत ने तग़ाफ़ुल जब किया अपना शिआर
काम ख़ामोशी से मैं ने भी लिया फ़रियाद का
वहशत रज़ा अली कलकत्वी
टूटते बर्तन का शोर और गूँगी बहरी ख़ामुशी
हम ने रख ली है बचा कर एक गहरी ख़ामुशी
सालिम सलीम
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