इतना मजबूर न कर बात बनाने लग जाएँ
हम तिरे सर की क़सम झूट ही खाने लग जाएँ
इतने सन्नाटे पिए मेरी समा'अत ने कि अब
सिर्फ़ आवाज़ पे चाहूँ तो निशाने लग जाएँ
चलिए कुछ और नहीं आह-शुमारी ही सही
हम किसी काम तो इस दिल के बहाने लग जाएँ
हम वो गुम-गश्त-ए-मोहब्बत हैं कि तुम तो क्या हो
ख़ुद को हम ढूँडने निकलें तो ज़माने लग जाएँ
ख़्वाब कुछ ऐसे दिखाए हैं फ़क़ीरी ने मुझे
जिन की ता'बीर में शाहों के ख़ज़ाने लग जाएँ
मैं अगर अपनी जवानी के सुना दूँ क़िस्से
ये जो लौंडे हैं मिरे पाँव दबाने लग जाएँ
-महशर आफ़रीदी
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