Wednesday, July 31, 2024

बच्चों को छोटे हाथों को चाँद सितारे छूने दो

बच्चों को  छोटे  हाथों  को  चाँद  सितारे  छूने  दो,

चार किताबों  पढ़  कर  ये  भी  हम  जैसे  हो  जायेंगे.


उड़ने  दो  परिंदो  को  अभी  शोख  हवा  में ,

फिर  लौट  के  बचपन  के  ज़माने  नहीं आते। 


मेरे रोने का जिस में किस्सा है,

उम्र का बेहतरीन हिस्सा है। 


मेरा बचपन भी साथ ले आया,

गांव से जब भी आ गया कोई। 


फ़रिश्ते आकर उनके जिस्म पर खुशबू लगाते हैं,

वो बच्चे रेल के डिब्बों में जो झाड़ू लगाते है। 


दुआएं याद करा दी गई थी बचपन में,

सो ज़ख्म खाते रहे और दुआ दिए गए हम। 


किताबों से निकल कर तितलियाँ ग़ज़लें सुनाती है,

टिफिन रखती ही मेरी माँ तो बस्ता मुस्कुराता है। 


हर शहर से है प्यारा वो शहर मुझ को,

जहाँ से देखा था पहली बार आसमान मैंने। 


हम तो बचपन में भी अकेले थे,

सिर्फ दिल की गली में खेले थे। 


जिंदगी एक फन है

जिंदगी एक फन है लम्हों को,  

अपने अंदाज़ से गवांने का। 


तेरे आने की जब खबर महके,

तेरी खुशबू से सारा घर महके। 


जाने कितने लोग शामिल थे मेरी तख़लीक़ में,

मैं तो बस अल्फ़ाज़ में था शायरी में कौन था। 


अपने होने का कुछ एहसास न होने से हुआ,

खुद से मिलना मेरा एक शख्स के खोने से हुआ। 






मुसाफ़िर हैं हम भी मुसाफ़िर हो तुम भी

 कहाँ आँसुओं की ये सौग़ात होगी

नए लोग होंगे नई बात होगी

मैं हर हाल में मुस्कुराता रहूँगा
तुम्हारी मोहब्बत अगर साथ होगी

चराग़ों को आँखों में महफ़ूज़ रखना
बड़ी दूर तक रात ही रात होगी

परेशाँ हो तुम भी परेशाँ हूँ मैं भी
चलो मय-कदे में वहीं बात होगी

चराग़ों की लौ से सितारों की ज़ौ तक
तुम्हें मैं मिलूँगा जहाँ रात होगी 

जहाँ वादियों में नए फूल आए
हमारी तुम्हारी मुलाक़ात होगी 

सदाओं को अल्फ़ाज़ मिलने न पाएँ 
न बादल घिरेंगे न बरसात होगी 

मुसाफ़िर हैं हम भी मुसाफ़िर हो तुम भी
किसी मोड़ पर फिर मुलाक़ात होगी 
Bashir Badra

Tuesday, July 23, 2024

वो चुप-चाप आँसू बहाने की रातें


वो चुप-चाप आँसू बहाने की रातें
वो इक शख़्स के याद आने की रातें

शब-ए-मह की वो ठंडी आँचें वो शबनम
तिरे हुस्न के रस्मसाने की रातें

जवानी की दोशीज़गी का तबस्सुम
गुल-ए-ज़ार के वो खिलाने की रातें

फुवारें सी नग़्मों की पड़ती हों जैसे
कुछ उस लब के सुनने-सुनाने की रातें

मुझे याद है तेरी हर सुब्ह-ए-रुख़्सत
मुझे याद हैं तेरे आने की रातें

पुर-असरार सी मेरी अर्ज़-ए-तमन्ना
वो कुछ ज़ेर-ए-लब मुस्कुराने की रातें

सर-ए-शाम से रतजगा के वो सामाँ
वो पिछले पहर नींद आने की रातें

सर-ए-शाम से ता-सहर क़ुर्ब-ए-जानाँ
न जाने वो थीं किस ज़माने की रातें

सर-ए-मय-कदा तिश्नगी की वो क़स्में
वो साक़ी से बातें बनाने की रातें

हम-आग़ोशियाँ शाहिद-ए-मेहरबाँ की
ज़माने के ग़म भूल जाने की रातें

'फ़िराक़' अपनी क़िस्मत में शायद नहीं थे
ठिकाने के दिन या ठिकाने की रातें


फ़िराक़ गोरखपुरी

Wednesday, July 10, 2024

अब हमारा साथ जीवनभर निभाना है तुम्हें

अब हमारा साथ जीवनभर निभाना है तुम्हें


प्रीत  का  साया  बनोगी,  हाँ  यही वादा करो
प्रेम  की  काया  बनोगी,  हाँ  यही  वादा करो
जब हमारा तन दुखों की धूप में ले सिसकियाँ
सिर्फ़  तुम  छाया  बनोगी, हाँ यही वादा करो

प्रेम का, सद्भावना का, पुल बनाना है तुम्हें ।

प्यार की  अठखेलियों से,  मुँह कभी मत मोड़ना
जो क़सम खाई मिलन की, वो कभी मत तोड़ना
घोर   तम   की  यामिनी  यदि  राह  में घेरे कभी
छोड़  दे  दुनिया  हमारा  साथ, तुम मत छोड़ना

भाल पर सम्मान का कुंकुम लगाना है तुम्हें ।

हम तुम्हें  उम्मीद  से  बढ़कर  निभाते  जायंगे
हर समस्या को प्रणय की सेज पर सुलझायंगे
नींद  जब  देगी  निमंत्रण  नैन  में आकर तुम्हें
हम  तुम्हारे  कुंतलों  को  प्यार  से  सहलायंगे

वर्णमाला को भरम की, नित भुलाना है तुम्हें ।

मैं ठहरा नहीं हूँ

 यारो ठोकरें खा कर भी, मैं ठहरा नहीं हूँ

रस्ते भले ही अजीब हैं, मैं भटका नहीं हूँ

ये आंधियां ये ज़लज़ले आते रहेंगे रोज़ ही,
पर उड़ा न पाएंगे मुझे, मैं तिनका नहीं हूँ

मुझे हर तरफ से घेर लेती हैं पुरानी यादें,
लोगों को ज़रा कह दो, कि मैं तन्हा नहीं हूँ

मेरे दिल में डोलते हैं जाने कितने फ़साने,
ज़रा यार भी समझ लें, कि मैं बदला नहीं हूँ

जाता हूँ जिधर भी सुनाई पड़ता है शोरगुल,
इन शरीफों से ज़रा कह दो, मैं बहरा नहीं हूँ

सच है कि मेरे दिल पे बोझ ज्यादा है 
पर दुनिया ये समझ ले, कि मैं बहका नहीं हूँ

अधूरी नींद ख़्वाब अधूरा..

 अधूरी नींद का, ख़्वाब अधूरा..

मुहब्बत में हर, ज़वाब अधूरा..।

आसमां में है, कोई जंग छिड़ी..
फिर निकला, महताब अधूरा..।

चमन में हुई है, ये साजिश कैसी..
जो भी खिला, वो गुलाब अधूरा..।

जैसा सोचा, वैसा कुछ ना बदला..
इसका मतलब, था इंक़लाब अधूरा..।

वो जो सुन लेते, दिल का अफसाना..
आंखों में न रहता, ये सैलाब अधूरा..।

वो जा ना सके थे, उस मोड़ से आगे..
इस मोड़ पर था, कोई हिसाब अधूरा..

अबके बहारें गुज़री थी, सर झुकाए हुए..
चेहरा बुझा हुआ, और था शबाब अधूरा..।

आज की शब तो किसी तौर गुज़र जाएगी

 

आज की शब तो किसी तौर गुज़र जाएगी


आज की शब तो किसी तौर गुज़र जाएगी
रात गहरी है मगर चाँद चमकता है अभी
मेरे माथे पे तिरा प्यार दमकता है अभी
मेरी साँसों में तिरा लम्स महकता है अभी
मेरे सीने में तिरा नाम धड़कता है अभी
ज़ीस्त करने को मिरे पास बहुत कुछ है अभी

तेरी आवाज़ का जादू है अभी मेरे लिए
तेरे मल्बूस की ख़ुश्बू है अभी मेरे लिए
तेरी बाँहें तिरा पहलू है अभी मेरे लिए
सब से बढ़ कर मिरी जाँ तू है अभी मेरे लिए
ज़ीस्त करने को मिरे पास बहुत कुछ है अभी
आज की शब तो किसी तौर गुज़र जाएगी!

आज के ब'अद मगर रंग-ए-वफ़ा क्या होगा
इश्क़ हैराँ है सर-ए-शहर-ए-सबा क्या होगा
मेरे क़ातिल तिरा अंदाज़-ए-जफ़ा क्या होगा!
आज की शब तो बहुत कुछ है मगर कल के लिए
एक अंदेशा-ए-बेनाम है और कुछ भी नहीं
देखना ये है कि कल तुझ से मुलाक़ात के ब'अद

रंग-ए-उम्मीद खिलेगा कि बिखर जाएगा
वक़्त पर्वाज़ करेगा कि ठहर जाएगा
जीत हो जाएगी या खेल बिगड़ जाएगा
ख़्वाब का शहर रहेगा कि उजड़ जाएगा

Parveen Shakir 


दिल में नाकाम हसरतें ले कर, हम तिरा इंतिज़ार करते हैं

 

दिल में नाकाम हसरतें ले कर, हम तिरा इंतिज़ार करते हैं


चाँद मद्धम है आसमाँ चुप है
नींद की गोद में जहाँ चुप है

दूर वादी में दूधिया बादल
झुक के पर्बत को प्यार करते हैं
दिल में नाकाम हसरतें ले कर
हम तिरा इंतिज़ार करते हैं

इन बहारों के साए में आ जा
फिर मोहब्बत जवाँ रहे न रहे
ज़िंदगी तेरे ना-मुरादों पर
कल तलक मेहरबाँ रहे न रहे!

रोज़ की तरह आज भी तारे
सुब्ह की गर्द में न खो जाएँ
आ तिरे ग़म में जागती आँखें
कम से कम एक रात सो जाएँ

चाँद मद्धम है आसमाँ चुप है
नींद की गोद में जहाँ चुप है 


साहिर लुधियानवी

आज ज़रा फ़ुर्सत पाई थी आज उसे फिर याद किया

 

आज ज़रा फ़ुर्सत पाई थी आज उसे फिर याद किया


आज ज़रा फ़ुर्सत पाई थी आज उसे फिर याद किया
बंद गली के आख़िरी घर को खोल के फिर आबाद किया

खोल के खिड़की चाँद हँसा फिर चाँद ने दोनों हाथों से
रंग उड़ाए फूल खिलाए चिड़ियों को आज़ाद किया

बड़े बड़े ग़म खड़े हुए थे रस्ता रोके राहों में
छोटी छोटी ख़ुशियों से ही हम ने दिल को शाद किया

बात बहुत मा'मूली सी थी उलझ गई तकरारों में
एक ज़रा सी ज़िद ने आख़िर दोनों को बरबाद किया

दानाओं की बात न मानी काम आई नादानी ही
सुना हवा को पढ़ा नदी को मौसम को उस्ताद किया 

Nida Fazli

कि अपने फ़न से पत्थर को भी आईना बनाता हूँ

 

कि अपने फ़न से पत्थर को भी आईना बनाता हूँ


मैं हर बे-जान हर्फ़-ओ-लफ़्ज़ को गोया बनाता हूँ
कि अपने फ़न से पत्थर को भी आईना बनाता हूँ

मैं इंसाँ हूँ मिरा रिश्ता 'ब्राहीम' और 'आज़र' से
कभी मंदिर कलीसा और कभी काबा बनाता हूँ

मिरी फ़ितरत किसी का भी तआवुन ले नहीं सकती
इमारत अपने ग़म-ख़ाने की मैं तन्हा बनाता हूँ

न जाने क्यूँ अधूरी ही मुझे तस्वीर जचती है
मैं काग़ज़ हाथ में लेकर फ़क़त चेहरा बनाता हूँ

मिरी ख़्वाहिश का कोई घर ख़ुदा मालूम कब होगा
अभी तो ज़ेहन के पर्दे पे बस नक़्शा बनाता हूँ

मैं अपने साथ रखता हूँ सदा अख़्लाक़ का पारस
इसी पत्थर से मिट्टी छू के मैं सोना बनाता हूँ 

अनवर जलालपुरी

 

मुझ से पहले तुझे जिस शख़्स ने चाहा उस ने

मुझ से पहले तुझे जिस शख़्स ने चाहा उस ने
शायद अब भी तिरा ग़म दिल से लगा रक्खा हो
एक बे-नाम सी उम्मीद पे अब भी शायद
अपने ख़्वाबों के जज़ीरों को सजा रक्खा हो

मैं ने माना कि वो बेगाना-ए-पैमान-ए-वफ़ा
खो चुका है जो किसी और की रानाई में
शायद अब लौट के आए न तिरी महफ़िल में
और कोई दुख न रुलाये तुझे तन्हाई में

मैं ने माना कि शब ओ रोज़ के हंगामों में
वक़्त हर ग़म को भुला देता है रफ़्ता रफ़्ता
चाहे उम्मीद की शमएँ हों कि यादों के चराग़
मुस्तक़िल बोद बुझा देता है रफ़्ता रफ़्ता

फिर भी माज़ी का ख़याल आता है गाहे-गाहे
मुद्दतें दर्द की लौ कम तो नहीं कर सकतीं
ज़ख़्म भर जाएँ मगर दाग़ तो रह जाता है
दूरियों से कभी यादें तो नहीं मर सकतीं

ये भी मुमकिन है कि इक दिन वो पशीमाँ हो कर
तेरे पास आए ज़माने से किनारा कर ले
तू कि मासूम भी है ज़ूद-फ़रामोश भी है
उस की पैमाँ-शिकनी को भी गवारा कर ले

और मैं जिस ने तुझे अपना मसीहा समझा
एक ज़ख़्म और भी पहले की तरह सह जाऊँ
जिस पे पहले भी कई अहद-ए-वफ़ा टूटे हैं
इसी दो-राहे पे चुप-चाप खड़ा रह जाऊँ

अहमद फ़राज़

वो इक शख़्स के याद आने की रातें

 

वो चुप-चाप आँसू बहाने की रातें, वो इक शख़्स के याद आने की रातें



वो चुप-चाप आँसू बहाने की रातें
वो इक शख़्स के याद आने की रातें

शब-ए-मह की वो ठंडी आँचें वो शबनम
तिरे हुस्न के रस्मसाने की रातें

जवानी की दोशीज़गी का तबस्सुम
गुल-ए-ज़ार के वो खिलाने की रातें

फुवारें सी नग़्मों की पड़ती हों जैसे
कुछ उस लब के सुनने-सुनाने की रातें

मुझे याद है तेरी हर सुब्ह-ए-रुख़्सत
मुझे याद हैं तेरे आने की रातें

पुर-असरार सी मेरी अर्ज़-ए-तमन्ना
वो कुछ ज़ेर-ए-लब मुस्कुराने की रातें

सर-ए-शाम से रतजगा के वो सामाँ
वो पिछले पहर नींद आने की रातें

सर-ए-शाम से ता-सहर क़ुर्ब-ए-जानाँ
न जाने वो थीं किस ज़माने की रातें

सर-ए-मय-कदा तिश्नगी की वो क़स्में
वो साक़ी से बातें बनाने की रातें

हम-आग़ोशियाँ शाहिद-ए-मेहरबाँ की
ज़माने के ग़म भूल जाने की रातें

'फ़िराक़' अपनी क़िस्मत में शायद नहीं थे
ठिकाने के दिन या ठिकाने की रातें

फ़िराक़ गोरखपुरी

 

मेघ आए बड़े बन-ठन के


मेघ आए बड़े बन-ठन के सँवर के। 
आगे-आगे नाचती-गाती बयार चली, 
दरवाज़े-खिड़कियाँ खुलने लगीं गली-गली, 
पाहुन ज्यों आए हों गाँव में शहर के। 
मेघ आए बड़े बन-ठन के सँवर के। 

पेड़ झुक झाँकने लगे गरदन उचकाए, 
आँधी चली, धूल भागी घाघरा उठाए, 
बाँकी चितवन उठा, नदी ठिठकी, घूँघट सरके। 
मेघ आए बड़े बन-ठन के सँवर के। 

बूढ़े पीपल ने आगे बढ़कर जुहार की, 
‘बरस बाद सुधि लीन्हीं’— 
बोली अकुलाई लता ओट हो किवार की, 
हरसाया ताल लाया पानी परात भर के। 
मेघ आए बड़े बन-ठन के सँवर के। 

क्षितिज अटारी गहराई दामिनि दमकी, 
‘क्षमा करा गाँठ खुल गई अब भरम की’, 
बाँध टूटा झर-झर मिलन के अश्रु ढरके। 
मेघ आए बड़े बन-ठन के सँवर के। 

सर्वेश्वरदयाल सक्सेना 

कब ये पेड़ हरे होंगे फिर से

कब ये पेड़ हरे होंगे फिर से

कब ये कलियाॅं फूटेंगी
और ये फूल हसेंगे
कब ये झरने अपनी प्यास भरेंगे
कब ये नदियाॅं शोर मचाएंगी
कब ये आज़ाद किए जाएंगे सब पंछी
कब जंगल साॅंसे लेंगे

कब सब जायेंगे अपने घर
कब हाथों से ज़ंजीरें खोली जाएंगी
कब हम ऐसों को पूछेगा कोई
और ये फ़क़ीरों को भी
किस्से में लाया जाएगा
कब इन कांटों की भी क़ीमत होगी,
और मिट्टी सोने के भाव में आएगी
कब लोगों की ग़लती टाली जाएगी

कब ये हवाएं पायल पहने झूमेगी
कब अम्बर से परियां उतरेंगी
कब पत्थरों से भी ख़ुशबू आएगी
कब हंसों के जोड़ें नदियों पे बैठेंगे
बरखा गीत बनाएगी
और मोर उठा के पर,
कत्थक करते देखे जाएंगे
नीलकमल पानी से इश्क़ लड़ाएंगे
मछलियां ख़ुशी के गोते मारेंगी

कब कोयल की कूक सुनाई देगी
कब भंवरे फिर,
गुन- गुन करते लौटेंगे बागों में
और कब ये प्यारी तितलियां कलर फेकेंगी
फिर सब कुछ डूबा होगा रंगों में

कब ये दुनिया रोशन होगी
कब ये जुगनू अपने रंग में आएंगे
कब ये सब मुमकिन है
कब सबके ही सपने पूरे होंगे
कब अपने मन के मुताबिक़ होगा सब कुछ
कब ये बहारें लौटेंगी
कब वो तारीख़ आएगी
बस मुझको ही नहीं
सबको इंतज़ार है 

चाँद सुकूँ तो देता है, ज़द से बाहर है तो क्या

 

चाँद सुकूँ तो देता है, ज़द से बाहर है तो क्या


तन्हा मंज़र हैं तो क्या 
सात समुंदर हैं तो क्या 

ज़रा सिकुड़ के सो लेंगे 
छोटी चादर है तो क्या 

चाँद सुकूँ तो देता है 
ज़द से बाहर है तो क्या 

हम भी शीशे के न हुए 
हर सू पत्थर हैं तो क्या 

हम सा दिल ले कर आओ 
जिस्म बराबर है तो क्या 

बिजली सब पर गिरती है 
मेरा ही घर है तो क्या 

डगर डगर भटकाती है 
दिल के अंदर है तो क्या 

ध्रुव गुप्त