Thursday, September 10, 2020

परज़माने में जमाने में ज़माने बीत जाते हैं - राहुल अवस्थी की गजलें

सभी की ज़िन्दगी में प्रीत की ये रीत होती है
ज़रा-सी हार होती है, ज़रा-सी जीत होती है
किसी का गीत होता है किसी की ज़िन्दगानी पर
किसी की ज़िन्दगानी ही किसी का गीत होती है.

जहां अपनी सदाओं का ज़ख़ीरा छोड़ आये हैं
निगाहों में मुहब्बत का ममीरा छोड़ आये हैं
तुला पर सब्र की, आत्मा अधीरा छोड़ आये हैं
ज़मीं की कोख में अनमोल हीरा छोड़ आए हैं
नज़र की हुक़्मरानी का नगर होगा, पता क्या था
वही अपनी दीवानी का शहर होगा, पता क्या था. 

सफ़र का, रास्तों का रौब मंज़िल पर नहीं पड़ता
असर मक़तूल की चीखों का क़ातिल पर नहीं पड़ता
नदी के दर्द का कुछ भाव साहिल पर नहीं पड़ता
किसी भी चीज़ का कोई असर दिल पर नहीं पड़ता
निज़ामे-इश्क़ का ऐसा असर होगा, पता क्या था
बड़ा आसान-सा मुश्किल सफ़र होगा, पता क्या था

हमारी साधना-आराधना सम्वर्द्धना तक थी
हमारी सिद्धि शाश्वत सर्जना से वर्जना तक थी
हमारी ख्याति स्वीकृति से सहज आलोचना तक थी
वही सब हो पड़ा, जिसकी न हमको कल्पना तक थी
गदर की नाभि में ही मो’तबर होगा, पता क्या था
किसी की रूह में ही जानवर होगा, पता क्या था. 

भूमि-सुधारों के आंगन में मौत बिछाये जाती हो
खेतों में, खलिहानों में अंगार उगाये जाती हो
मजदूरों की अन्तड़ियां-हड्डियां चबाये जाती हो
महँगाई की डायन बोटी-बोटी खाये जाती हो

कष्टों से छुटकारे का नुस्ख़ा नायाब न मिलता हो
सत्ता की आंखों में कोई सच्चा ख़्वाब न मिलता हो
क्या खोया, क्या पाया, इसका ठीक हिसाब न मिलता हो
उठते हुए सवालों का जब सही जवाब न मिलता हो

तक कोई अदना-सा आकर हर जवाब लिख देता है
पत्थरदिल दिल्ली के मुंह पर इंकलाब लिख देता है. 

आँखों मे डोरे तिर आये, ऐसी साज-सँवार ग़ज़ब है
चटखारों में लार गिरा दी, ऐसी छौंक-बघार ग़ज़ब है

खेत-खेत में ऊसर बोया, मेढ़-मेढ़ पर नागफनी को
खलिहानों में भूख उगा दी, ऐसा भूमिसुधार ग़ज़ब है

कल पंद्रह अगस्त के जलसे में प्रायः दस लोग नहीं थे
आज शाम के फ़ैशन शो में इतनी भीड़ अपार, ग़ज़ब है

ले जाओे हम कुछ न कहेंगे, माटी में रक्खा ही क्या है
बलिदानी भू दान करा दी, अपनी भी सरकार ग़ज़ब है

दस-दस क़ैदी चीख रहे थे - हमने मारा, हमने मारा
क़त्ल बिना ही इतने क़ातिल, अपना थानेदार ग़ज़ब है. 

न तुम बदले, न हम बदले, वही तुम हो, वही हम हैं
मगर तुम अपनी और हम अपनी उम्मीदों पे क़ायम हैं

तुम्हारी अपनी कुछ ख़ुशियां, हमारी अपनी कुछ ख़ुशियां
तुम्हारे अपने कुछ ग़म हैं, हमारे अपने कुछ ग़म हैं

तुम्हें फागुन लुभाता है, हमें सावन बुलाता है
तुम्हारे अपने मौसम हैं, हमारे अपने मौसम हैं. 

किसी की ज़िन्दगी के नाज़ पलकों पर उठाने की
अरे ! दरकार क्या है रात-दिन आंसू बहाने की

दबे जाओ, कुचे जाओ, मरे जाओ, जिये जाओ
ज़रूरत क्या पड़ी है इस तरह वादा निभाने की

किसी से जीतने की सोच के कुछ ऐसा लगता है
कहीं आदत न पड़ जाये किसी से मात खाने की

कभी मुझसे मिलो भी तो संभल कर ऐ जहां वालों
बुरी आदत है मेरी आज भी दिल में समाने की

मेरे मालिक ! मुझे सीखों से अपनी रोक लेगा क्या
कहां आदत है अपनी आदतों से बाज आने की. 

फ़साने बीत जाते हैं, तराने बीत जाते हैं
सताने के, मनाने के बहाने बीत जाते हैं
उखड़ने में क़दम लगता नहीं है वक़्त कुछ भी, पर
ज़माने में जमाने में ज़माने बीत जाते हैं! 

जो रस्ता है, वो रस्ता है, वो मंज़िल हो नहीं सकता
जो दरिया है, वो दरिया है, वो साहिल हो नहीं सकता

जो पाना है, वो पाना है, जो खोना है, वो खोना है
जो हासिल हो नहीं सकता, वो हासिल हो नहीं सकता

वो दुनियादार है, दुनिया के क़ाबिल होगा तो होगा
हमारी दीनदारी के मुक़ाबिल हो नहीं सकता
ख़ुशी में ग़म सँजोना है, दिलों में दर्द बोना है
कभी रो कर के हँसना है, कभी हँस करके रोना है

मोहब्बत की अजब तक़दीर है, समझो ज़रा समझो
जो मिल जाये तो मिट्टी है, जो खो जाये तो सोना है

नहीं होगा, नहीं होगा, नहीं होगा, न होना जो
वही होगा, वही होगा, वही होगा, जो होना है

यूं न देखा करो रूह कोई बावली-बावली हो न जाए
ज़िन्दगी गांव वाली शहर में जंगली-जंगली हो न जाए

छांह की धूप के आचमन से, चांदनी-भर नज़र की छुअन से
सूत-सी ऊन की एक लच्छी मलमली-मलमली हो न जाए

दर-ब-दर की न अनुभूति डर की, सोच क्या कुमुदिनी को भ्रमर की
इस तरह रंगतो-बू कमल की पाटली-पाटली हो न जाए

रास, मावस लिये ज्वार आये, बाद-मधुमास पतझार आये
चम्पई गेंदों की बनावट गुड़हली-गुड़हली हो न जाये

राह सूरजमुखी की बनाये, रातरानी महोत्सव मनाये
महमहाती महक केवड़े की सन्दली-सन्दली हो न जाये

तोलना, बोलना-खिलखिलाना, नैन से हाथ रग-रग मिलाना
मेल के खेल की बाज़ियों में धांधली-धांधली हो न जाये

एक पनघट कहीं सज न उट्ठे, आग का राग ही बज न उट्ठे
बांसुरी-बांसुरी चाहतों की तोतली-तोतली हो न जाये

हाथ में बर्फ अंगार ले-ले, धार ठहरी न रफ्तार ले-ले
धड़कनों की कली खिल न जाये - बेकली-बेकली हो न जाये

सिर्फ़ चिंगारियों की झड़ी हो, ओस की बूंद बस झड़ पड़ी हो
ताल के शांत जल में खलल-खल खलबली-खलबली हो न जाये


अदब की बांसुरी के स्वर न ऐसे भूल पाओगे
हुनर की फ़िक्रमंदी में कहीं तो दिल लगाओगे
अभी तो साथ ही हम अभी तो सुन रहे हो बस
कभी जब हम न होंगे तो हमे तुम गुनगुनाओगे! 

-राहुल अवस्थी

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