Tuesday, June 30, 2020

असुलझे सवालों सी हो गयी है ज़िन्दगी।

मकड़ी के जालों सी हो गयी है ज़िन्दगी ,

असुलझे सवालों सी हो गयी है ज़िन्दगी।

संतुष्टि से सिवा सब कुछ मिल रहा है यहाँ,

फिर भी उलझनों के जंजालों सी हो गयी है ज़िन्दगी।

क्या करें, क्या न करें? इसी में उलझ के रह गये;

ये खुश रहे, वो बुरा ना माने; इसी में फंस के रह गये।

समाज के नियमों ने इस कदर जकड़ा है हमें,

कि आधार बिना ईमारत सी हो गयी है ज़िन्दगी।

हर एक को खुश रखना मुमकिन नहीं यहाँ,

पर अब अंतर्मन की ध्वनि इंसान सुनता है कहाँ।

इसी उम्मीद में वर्तमान को जलाकर कर रहे हैं रोशनी,

कि आज थोड़ा सह ले कल जी लेंगे ज़िन्दगी।।

पर क्या वो कल आएगा???

कल भी तो फिर वर्तमान बन जायेगा! 

नज़र भर देख लूँ तुम्हें तो

नज़र भर देख लूँ तुम्हें तो उस नज़र से प्यार हो जाता है, 
वो एक नज़र तुम्हारी जिस कि नज़र मेरा प्यार हो जाता है! 
नज़र को नज़र में नज़रबन्द कर लो, 
कमबख्त इसे हर नज़र में प्यार हो जाता है|

बारिश शायरी

शायद कोई ख्वाहिश रोटी रहती है, 
मेरे अन्दर बारिश होती रहती है! 
-Faraj 

याद आई वो पहली बारिश
जब तुझे एक नज़र देखा था
- नासिर काज़मी

उस ने बारिश में भी खिड़की खोल के देखा नहीं
भीगने वालों को कल क्या क्या परेशानी हुई
- जमाल एहसानी

उस को आना था कि वो मुझ को बुलाता था कहीं
रात भर बारिश थी उस का रात भर पैग़ाम था
- ज़फ़र इक़बाल

टूट पड़ती थीं घटाएँ जिन की आँखें देख कर
वो भरी बरसात में तरसे हैं पानी के लिए
- सज्जाद बाक़र रिज़वी

साथ बारिश में लिए फिरते हो उस को 'अंजुम'
तुम ने इस शहर में क्या आग लगानी है कोई
- अंजुम सलीमी

मैं वो सहरा जिसे पानी की हवस ले डूबी 
तू वो बादल जो कभी टूट के बरसा ही नहीं 
- सुल्तान अख़्तर

अब भी बरसात की रातों में बदन टूटता है 
जाग उठती हैं अजब ख़्वाहिशें अंगड़ाई की 
- परवीन शाकिर

टूट पड़ती थीं घटाएँ जिन की आँखें देख कर 
वो भरी बरसात में तरसे हैं पानी के लिए 
- सज्जाद बाक़र रिज़वी

बरसात के आते ही तौबा न रही बाक़ी 
बादल जो नज़र आए बदली मेरी नीयत भी 
- हसरत मोहानी

दूर तक छाए थे बादल और कहीं साया न था 
इस तरह बरसात का मौसम कभी आया न था 
- क़तील शिफ़ाई

बरसात का बादल तो दीवाना है क्या जाने 
किस राह से बचना है किस छत को भिगोना है 
- निदा फ़ाज़ली

याद आई वो पहली बारिश 
जब तुझे एक नज़र देखा था 
- नासिर काज़मी

Monday, June 29, 2020

अमृता प्रीतम की प्रेम कविता: ऐ मेरे दोस्त ! मेरे अजनबी !

ऐ मेरे दोस्त ! मेरे अजनबी !
एक बार अचानक – तू आया
वक़्त बिल्कुल हैरान
मेरे कमरे में खड़ा रह गया।
साँझ का सूरज अस्त होने को था,
पर न हो सका
और डूबने की क़िस्मत वो भूल-सा गया...
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फिर आदि के नियम ने एक दुहाई दी,
और वक़्त ने उन खड़े क्षणों को देखा
और खिड़की के रास्ते बाहर को भागा...

वह बीते और ठहरे क्षणों की घटना 
अब तुझे भी बड़ा आश्चर्य होता है
और मुझे भी बड़ा आश्चर्य होता है
और शायद वक़्त को भी
फिर वह ग़लती गवारा नहीं

अब सूरज रोज वक़्त पर डूब जाता है
और अँधेरा रोज़ मेरी छाती में उतर आता है...
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पर बीते और ठहरे क्षणों का एक सच है-
अब तू और मैं मानना चाहें या नहीं
यह और बात है।
पर उस दिन वक़्त
जब खिड़की के रास्ते बाहर को भागा
और उस दिन जो खून
उसके घुटनों से रिसा
वह खून मेरी खिड़की के नीचे
अभी तक जमा हुआ है...

हरिवंशराय बच्चन की कविताएँ

हरिवंशराय बच्चन:
तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों का निमंत्रण 


   1-
रात का अंतिम प्रहर है,
झिलमिलाते हैं सितारे ,
वक्ष पर युग बाहु बाँधे
मैं खड़ा सागर किनारे,
         वेग से बहता प्रभंजन
         केश पट मेरे उड़ाता,
    शून्य में भरता उदधि -
    उर की रहस्यमयी पुकारें;
इन पुकारों की प्रतिध्वनि 
हो रही मेरे हृदय में,
है प्रतिच्छायित जहाँ पर 
सिंधु का हिल्लोल कंपन 
तीर पर कैसे रुकूँ मैं,
आज लहरों में निमंत्रण !
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2-

विश्व की संपूर्ण पीड़ा
सम्मिलित हो रो रही है,
शुष्क पृथ्वी आंसुओं से 
पाँव अपने धो रही है,
          इस धरा पर जो बसी दुनिया 
          यही अनुरूप उनके-
    इस व्यथा से हो न विचलित 
    नींद सुख की सो रही है;
क्यों धरनि अब तक न गलकर
लीन जलनिधि में हो गई हो ?
देखते क्यों नेत्र कवि के
भूमि पर जड़-तुल्य जीवन ?
तीर पर कैसे रुकूँ मैं,
आज लहरों में निमंत्रण !
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 3-

  जर जगत में वास कर भी 
  जर नहीं व्यवहार कवि का,
  भावनाओं से विनिर्मित
  और ही संसार कवि का,
         बूँद से उच्छवास को भी 
         अनसुनी करता नहीं वह
किस तरह होती उपेक्षा -
पात्र पारावार कवि का ,
  विश्व- पीड़ा से , सुपरिचित
  हो तरल बनने, पिघलने ,
  त्याग कर आया यहाँ कवि
  स्वप्न-लोकों के प्रलोभन 
  तीर पर कैसे रुकूं मैं,
  आज लहरों में निमंत्रण ! 
 4-

  जिस तरह मरु के ह्रदय में
  है कहीं लहरा रहा सर ,
  जिस तरह पावस- पवन में
  है पपीहे का छुपा स्वर ,
         जिस तरह से अंश्रु- आहों से
         भरी कवि की निशा में 
नींद की परियां बनातीं
कल्पना का लोक सुखकर,
  सिंधु के इस तीव्र हा हा-
  कर ने , विश्वास मेरा ,
  है छिपा रक्खा कहीं पर
  एक रस-परिपूर्ण गायन
  तीर पर कैसे रुकूं मैं 
  आज लहरों में निमंत्रण !
  5-

  नेत्र सहसा आज मेरे
  तम पटल के पार जाकर 
  देखते हैं रत्न- सीपी से
  बना प्रासाद सुंदर ,
         है जिसमें उषा ले 
         दीप कुंचित रश्मियों का ;
ज्योति में जिसकी सुनहली 
सिंधु कन्याएँ मनोहर
  गूढ़ अर्थों से भरी मुद्रा
  बनाकर गान करतीं
  और करतीं अति अलौकिक
  ताल पर उन्मत्त नर्तन 
  तीर पर कैसे रुकूं मैं
  आज लहरों में निमंत्रण !
 
 6-

  मौन हो गन्धर्व बैठे 
  कर स्रवन इस गान का स्वर,
  वाद्य - यंत्रों पर चलाते 
  हैं नहीं अब हाथ किन्नर,
         अप्सराओं के उठे जो 
         पग उठे ही रह गए हैं,
कर्ण उत्सुक, नेत्र अपलक 
साथ देवों के पुरंदर
  एक अदभुत और अविचल
  चित्र- सा है जान पड़ता,
  देव- बालाएँ विमानों से 
  रहीं कर पुष्प- वर्षण
  तीर पर कैसे रुकूं मैं,
  आज लहरों में निमंत्रण !
7-

  दीर्घ उर में भी जलधि के 
  है नहीं खुशियां समाती,
  बोल सकता कुछ न उठती
  फूल बारंबार छाती,
         हर्ष रत्नागार अपना 
         कुछ दिखा सकता जगत को 
भावनाओं से भरी यदि
यह फफककर फूट जाती;
  सिंधु जिस पर गर्व करता 
  और जिसकी अर्चना को 
  स्वर्ग झुकता, क्यों न उसके 
  प्रति करे कवि अर्ध्य अर्पण 
  तीर पर कैसे रुकूं मैं,
  आज लहरों में निमंत्रण !
 8-

   आज अपने स्वप्न को मैं 
   सच बनाना चाहता हूँ ,
   दूर कि इस कल्पना के 
   पास जाना चाहता हूँ
         चाहता हूँ तैर जाना 
         सामने अंबुधि पड़ा जो ,
कुछ विभा उस पार की
इस पार लाना चाहता हूँ;
   स्वर्ग के भी स्वप्न भू पर 
   देख उनसे दूर ही था,
   किंतु पाऊँगा नहीं कर 
   आज अपने पर नियंत्रण .
   तीर पर कैसे रुकूं मैं ,
   आज लहरों में निमंत्रण !
 9-

   लौट आया यदि वहाँ से 
   तो यहाँ नवयुग लगेगा ,
   नव प्रभाती गान सुनकर 
   भाग्य जगती का जागेगा ,
          शुष्क जड़ता शीघ्र बदलेगी 
          सरस चैतन्यता में ,
यदि न पाया लौट , मुझको 
लाभ जीवन का मिलेगा;
   पर पहुँच ही यदि न पाया 
   व्यर्थ क्या प्रस्थान होगा?
कर सकूंगा विश्व में फिर 
भी नए पथ का प्रदर्शन
तीर पर कैसे रुकूं मैं ,
आज लहरों में निमंत्रण ! 
 10-

    स्थल गया है भर पथों से 
    नाम कितनों के गिनाऊँ,
    स्थान बाकी है कहाँ पथ
    एक अपना भी बनाऊं?
          विशव तो चलता रहा है 
          थाम राह बनी-बनाई,
किंतु इस पर किस तरह मैं 
कवि चरण अपने बढ़ाऊँ?
    राह जल पर भी बनी है 
    रूढ़ि पर, न हुई कभी वह,
    एक तिनका भी बना सकता 
    यहाँ पर मार्ग नूतन !
    तीर पर कैसे रुकूं मैं,
    आज लहरों में निमंत्रण !
11-

  देखता हूँ आँख के आगे 
    नया यह क्या तमाशा --
    कर निकलकर दीर्घ जल से 
    हिल रहा करता माना- सा 
            है हथेली मध्य चित्रित 
            नीर भग्नप्राय बेड़ा !
मैं इसे पहचानता हूँ ,
है नहीं क्या यह निराशा ?
    हो पड़ी उद्दाम इतनी 
    उर-उमंगें , अब न उनको 
    रोक सकता हाय निराशा का,
    न आशा का प्रवंचन.
    तीर पर कैसे रुकूं मैं ,
    आज लहरों में निमंत्रण !
12- 

    पोत अगणित इन तरंगों ने 
    डुबाए मानता मैं 
    पार भी पहुंचे बहुत से -
    बात यह भी जनता मैं ,
          किंतु होता सत्य यदि यह 
          भी, सभी जलयान डूबे,
पार जाने की प्रतिज्ञा 
आज बरबस ठानता मैं,
    डूबता मैं किंतु उतराता
    सदा व्यक्तित्व मेरा,
    हों युवक डूबे भले ही 
    है कभी डूबा न यौवन !
    तीर पर कैसे रुकूं मैं,
    आज लहरों में निमंत्रण !
13- 

    आ रहीं प्राची क्षितिज से 
    खींचने वाली सदाएं 
    मानवों के भाग्य निर्णायक 
    सितारों ! दो दुआएं ,
           नाव, नाविक फेर ले जा ,
           है नहीं कुछ काम इसका ,
आज लहरों से उलझने को 
फड़कती हैं भुजाएं, 
     प्राप्त हो उस पार भी इस 
     पार-सा चाहे अँधेरा ,
     प्राप्त हो युग की उषा 
     चाहे लुटाती नव किरण-धन
     तीर पर कैसे रुकूं मैं ,
     आज लहरों में निमंत्रण

मेरा दिन बीत जाता है।

सुबह की आँख लगना
मुझे बेहद पसंद है
काम-काज की दुनिया को
ये जिद कहाँ पसंद है
बिस्तर पर चादर की ओट में गुम
किसको रास नहीं
खुली आँखों से देखने को सपने
किसकी आस नहीं
नाश्ते में मनपसंद चीजों की फरमाइश न हो
तो क्या ही ठाठ रहे
ज़िंदगी की भागा दौड़ी में तो
सारे याद वो पाठ रहे
चाय की प्याली कब खाली हो
कौन ध्यान देता है
मेरे घर के बगीचे में अखबार
किसी कोने में रहता है
धीरे-धीरे सुबह से दुपहरिया आती है
धीमे से वो मेरे कमरे को नींद दे जाती है
फिर...
किसी यार की
किसी दिलदार की
याद लिए शाम पधारी है
पर,
मेरी ज़िंदगी उनके सामने कहाँ ही हारी है
अपनी बातों में तो बस ख़ुशियाँ ही होती है
गमों को बांटने की हिम्मत किसमें ही होती है
अब रातों का जागना शायद मेरा वक़्त है
ये वक़्त तो रुकता कहाँ, भागता हर वक़्त है
पर क्या ही सोचूं
अगले दिन की ही सोच लिए
मेरा दिन बीत जाता है।

नतीजा शायरी

नतीजा देखिए कुछ दिन में क्या से क्या निकल आया 
कहीं पे बीज बोया था कहीं पौधा निकल आया


मिरे जुनूँ का नतीजा ज़रूर निकलेगा
इसी सियाह समुंदर से नूर निकलेगा
- अमीर क़ज़लबाश

रास्ता सोचते रहने से किधर बनता है
सर में सौदा हो तो दीवार में दर बनता है
-जलील आली

ऐ मौज-ए-बला उन को भी ज़रा दो चार थपेड़े हल्के से
कुछ लोग अभी तक साहिल से तूफ़ाँ का नज़ारा करते हैं
-मुईन अहसन जज़्बी

गुफ़्तुगू देर से जारी है नतीजे के बग़ैर 
इक नई बात निकल आती है हर बात के साथ 
-ऐतबार साजिद

ख़ूब नासेह की नसीहत का नतीजा निकला 
हम ने अश्कों को सँभाला तो कलेजा निकला 
-रहमत क़रनी

अपना ज़माना आप बनाते हैं अहल-ए-दिल
हम वो नहीं कि जिन को ज़माना बना गया
-जिगर मुरादाबादी

वफ़ा का लाज़मी था ये नतीजा
सज़ा अपने किए की पा रहा हूँ
- हफ़ीज़ जालंधरी

दिल के मुआमले में नतीजे की फ़िक्र क्या
आगे है इश्क़ जुर्म-ओ-सज़ा के मक़ाम से
- साहिर लुधियानवी

तुम जो पर्दे में सँवरते हो नतीजा क्या है
लुत्फ़ जब था कि कोई देखने वाला होता
- जलील मानिकपूरी
 
कहूँ कुछ उन से मगर ये ख़याल होता है
शिकायतों का नतीजा मलाल होता है
- क़मर बदायुनी

उठो ये मंज़र-ए-शब-ताब देखने के लिए
कि नींद शर्त नहीं ख़्वाब देखने के लिए
-इरफ़ान सिद्दीक़ी

गुमशुदगी ही अस्ल में यारो राह-नुमाई करती है
राह दिखाने वाले पहले बरसों राह भटकते हैं
-हफ़ीज़ बनारसी

जलाने वाले जलाते ही हैं चराग़ आख़िर
ये क्या कहा कि हवा तेज़ है ज़माने की
-जमील मज़हरी

वक़्त की गर्दिशों का ग़म न करो
हौसले मुश्किलों में पलते हैं
-महफूजुर्रहमान आदिल

आसान शायरी

कोई मुझ तक पहुंच नहीं पाता
इतना आसान है पता मेरा
- जौन एलिया


पूछ लेते वो बस मिज़ाज मिरा
कितना आसान था इलाज मिरा
- फ़हमी बदायूंनी



सब आसान हुआ जाता है
मुश्किल वक़्त तो अब आया है
- शारिक़ कैफ़ी


हार दिया है उजलत में
ख़ुद को किस आसानी से
- हम्माद नियाज़ी

तुम न आसान को आसाँ समझो
वर्ना मुश्किल मिरी मुश्किल तो नहीं
- सख़ी लख़नवी


हर ग़म सहना और ख़ुश रहना
मुश्किल है आसान नहीं है
- वक़ार मानवी

कितना आसान था बचपन में सुलाना हम को
नींद आ जाती थी परियों की कहानी सुन कर
- भारत भूषण पन्त


ये जो मैं इतनी सहूलत से तुझे चाहता हूँ
दोस्त इक उम्र में मिलती है ये आसानी भी
- सऊद उस्मानी

तेरे दिल तक आऊँ मैं
इतनी तो आसानी रख
- अब्दुस्समद ’तपिश’


न देखा फिर आख़िर कि मुश्किल पड़ी
उधर देखना ऐसा आसान है
- मीर असर

वो फूल खिल के रहेंगे जो खिलने वाले हैं

हज़ार बर्क़ गिरे लाख आंधियाँ उट्ठें
वो फूल खिल के रहेंगे जो खिलने वाले हैं
- साहिर लुधियानवी

थमते थमते थमेंगे आंसू
रोना है कुछ हंसी नहीं है
- बुध सिंह कलंदर

जो कोई आवे है नज़दीक ही बैठे है तिरे
हम कहां तक तिरे पहलू से सरकते जावें
- मीर हसन

ये धूप तो हर रुख़ से परेशां करेगी
क्यूं ढूंढ़ रहे हो किसी दीवार का साया
- अतहर नफ़ीस

Saturday, June 27, 2020

घटा शायरी

क्या ख़बर कब बरस के टूट पड़े
हर तरफ़ ऐसी है घटा छाई
- इंद्र सराज़ी


लिपट जाते हैं वो बिजली के डर से
इलाही ये घटा दो दिन तो बरसे
- दाग़ देहलवी


मेरी दुनिया में समुंदर का कहीं नाम नहीं
फिर घटा फेंकती है मुझ पे ये पत्थर कैसे
- अशहर हाशमी


क्यूं न टूटे मिरी तौबा जो कहे तू साक़ी
पी ले पी ले अरे घनघोर घटा छाई है
- रियाज़ ख़ैराबादी


क्या मुसीबत है कि जिस दिन से छुटी मय-नोशी
दिल जलाने के लिए रोज़ घटा आती है
- जलील मानिकपूरी


कब से टहल रहे हैं गरेबान खोल कर
ख़ाली घटा को क्या करें बरसात भी तो हो
- आदिल मंसूरी

उसी के शेर सभी और उसी के अफ़्साने
उसी की प्यास का बादल घटा में आया है
- विशाल खुल्लर


किस ने भीगे हुए बालों से ये झटका पानी
झूम के आई घटा टूट के बरसा पानी
- आरज़ू लखनवी

धूप में निकलो घटाओं में नहा कर देखो
ज़िंदगी क्या है किताबों को हटा कर देखो
- निदा फ़ाज़ली


जो घटा छा के न बरसे वो घटा क्या है घटा
हाँ अगर टूट के बरसे तो घटा कहते हैं
- कौसर सीवानी

शाख़ें रहीं तो फूल भी पत्ते भी आएँगे

शाख़ें रहीं तो फूल भी पत्ते भी आएँगे
ये दिन अगर बुरे हैं तो अच्छे भी आएँगे
- अज्ञात

हम को न मिल सका तो फ़क़त इक सुकून-ए-दिल
ऐ ज़िंदगी वगरना ज़माने में क्या न था
- आज़ाद अंसारी


अभी तो जाग रहे हैं चराग़ राहों के
अभी है दूर सहर थोड़ी दूर साथ चलो
- अहमद फ़राज़

अब तो चुप-चाप शाम आती है
पहले चिड़ियों के शोर होते थे
- मोहम्मद अल्वी

हम मैकदे की राह से होकर गुज़र गए

हम मैकदे की राह से होकर गुज़र गए
वरना सफ़र हयात के बेहद तवील था। 

Friday, June 26, 2020

कुछ मेरी भी सुनती जाओऔर कुछ अपने सवाल कहो

तुम कैसी हो कुछ हाल कहो

कुछ मेरी भी सुनती जाओ
और कुछ अपने सवाल कहो

अब मिले हो कितने सालों बाद
कैसे गुज़रे ये साल कहो

मेरे भी दिल की कुछ सुन लो
कुछ अपने भी हालात कहो

रहने दो ज़ुल्फों को यूँ ही
तुम ऐसे ही सब बात कहो

तुम देखो मत मेरी आँखों में
बस ज़रा अपनें जज़्बात कहो

थोड़ा तकल्लुफ तो लाज़िम है
पर बार बार मत आप कहो

अब भी बिल्कुल वैसे ही हो
इसका भी कुछ राज़ कहो

क्या याद तुम्हे अब भी है वो
अपनी पहली मुलाकात कहो

अपने मौसम का प्यारा सावन
अपनी भीगी बरसात कहो

क्या भूल चुकी हो अपना माज़ी
या याद तुम्हें है हर बात कहो

वो पिक्चर जो हमने देखी थी
वो पार्क वो कैफे वो शाम कहो

वो मेरे स्कूटर की पिछली सीट
वो मेरे कन्धों पर हाथ कहो।

खत वो सारे जो तुमको लिखे
सूखे हुए वो गुलाब कहो।

मैं तो वही पुराना सा हूँ
फिर खड़े हो क्यूँ चुपचाप कहो।

तुम क्यों झिझक रही हो मुझसे
जो कहना है बेबाक कहो।

शिकवा कोई अगर मुझसे है तो
अपने दिल की भड़ास कहो।

इतने सालों में इक भी बार
क्या आई मेरी याद कहो।

मैं तो तुम्हे अब तक न भूला
तुम भी करती हो क्या याद कहो।

हंसी छुपा भी गया और नज़र मिला भी गया

हंसी छुपा भी गया और नज़र मिला भी गया

ये इक झलक का तमाशा जिगर जला भी गया

उठा तो जा भी चुका था अजीब मेहमां था
सदाएं दे के मुझे नींद से जगा भी गया

ग़ज़ब हुआ जो अंधेरे में जल उठी बिजली
बदन किसी का तिलिस्मात कुछ दिखा भी गया

हवा थी गहरी घटा थी हिना की ख़ुशबू थी
ये एक रात का क़िस्सा लहू रुला भी गया

चलो 'मुनीर' चलें अब यहां रहें भी तो क्या
वो संग-दिल तो यहां से कहीं चला भी गया

जी चाहता है मैं तिरी आवाज़ चूम लूं

लहजा कि जैसे सुब्ह की ख़ुश्बू अज़ान दे
जी चाहता है मैं तिरी आवाज़ चूम लूं
- बशीर बद्र

एक हो जाएं तो बन सकते हैं ख़ुर्शीद-ए-मुबीं
वर्ना इन बिखरे हुए तारों से क्या काम बने
- अबुल मुजाहिद ज़ाहिद

इक मुअम्मा है समझने का न समझाने का
ज़िंदगी काहे को है ख़्वाब है दीवाने का
- फ़ानी बदायूंनी

दुश्मनों से प्यार होता जाएगा
दोस्तों को आज़माते जाइए

गोपाल दास नीरज के 10 चुनिंदा शेर

अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए
जिस में इंसान को इंसान बनाया जाए


जिस्म दो हो के भी दिल एक हों अपने ऐसे
मेरा आंसू तेरी पलकों से उठाया जाए

जितना कम सामान रहेगा
उतना सफ़र आसान रहेगा


उस से मिलना ना-मुम्किन है
जब तक ख़ुद का ध्यान रहेगा

है बहुत अंधियार अब सूरज निकलना चाहिए
जिस तरह से भी हो ये मौसम बदलना चाहिए


छीनता हो जब तुम्हारा हक़ कोई उस वक़्त तो
आंख से आंसू नहीं शोला निकलना चाहिए

बड़ा न छोटा कोई फ़र्क़ बस नज़र का है
सभी पे चलते समय एक सा कफ़न देखा


ज़बां है और बयां और उस का मतलब और
अजीब आज की दुनिया का व्याकरन देखा

मेरे घर कोई ख़ुशी आती तो कैसे आती
उम्र-भर साथ रहा दर्द महाजन की तरह


हर किसी शख़्स की क़िस्मत का यही है क़िस्सा
आए राजा की तरह जाए वो निर्धन की तरह

मैं उतना याद आऊंगा मुझे जितना भुलाओगे।

कभी खामोश बैठोगे कभी कुछ गुनगुनाओगे,

मैं उतना याद आऊंगा मुझे जितना भुलाओगे।

कोई जब पूछ बैठेगा खामोशी का सबब तुमसे,
बहुत समझाना चाहोगे मगर समझा न पाओगे।

कभी दुनिया मुक्कमल बन के आएगी निगाहों में,
कभी मेरे कभी दुनिया की हर एक शह में पाओगे।

कहीं पर भी रहें हम तुम मोहब्बत फिर मोहब्बत है,
तुम्हें हम याद आयेंगे हमें तुम याद आओगे।


तेरे इश्क में कशिश हैकुछ इस तरह की जाना

तेरे इश्क में कशिश है
कुछ इस तरह की जाना
सरे राह लुट गया हूं
चाहत में तेरी मैं तो।

दिल खो गया है मेरा
तेरे प्यार के सफर में
रही नहीं खबर अब
दिले बेताब की मुझे तो।

ना जाने क्या कहा है
आंखों ने तेरी मुझसे
खामोशी की जुबां अब
समझ आ गई है मुझको।

कहां तक बचाता तुमसे
इस दिल को अपने जानम
टकरा ही गया है अब तो
तेरे इश्क में तड़पकर।

इश्क का जुनू अब तो
सर चढ़ के बोलता है
कुछ खास तो हैं तुझमें
दिल तेरा हो गया है।

पहरा इश्क पे लगाना
ये दस्तूर था जहां का
नादान है जमाने वाले
इन्हे पता ही कहां था।

तेरे आने से सफर में
रौनक सी आ गई है
कट रही थी वरना
बे आस बे सहारे।

मुहब्बत में तुम्हारे मैं
गिरफ्तार हो गया हूं
थाम लो हाथ मेरा
जीवन सफल हो जाए।

प्यार का पहला ख़त लिखने में वक़्त तो लगता है

प्यार का पहला ख़त लिखने में वक़्त तो लगता है
नए परिंदों को उड़ने में वक़्त तो लगता है

जिस्म की बात नहीं थी उन के दिल तक जाना था
लम्बी दूरी तय करने में वक़्त तो लगता है

गांठ अगर लग जाए तो फिर रिश्ते हों या डोरी
लाख करें कोशिश खुलने में वक़्त तो लगता है

हम ने इलाज-ए-ज़ख़्म-ए-दिल तो ढूंढ़ लिया लेकिन
गहरे ज़ख़्मों को भरने में वक़्त तो लगता है

हस्ती मल हस्ती 

चलूं कि जागा हुआ रात भर का मैं भी हूं

अब आ गई है सहर अपना घर संभालने को
चलूं कि जागा हुआ रात भर का मैं भी हूं
- इरफ़ान सिद्दीक़ी 

मुझ में थे जितने ऐब वो मेरे क़लम ने लिख दिए
मुझ में था जितना हुस्न वो मेरे हुनर में गुम हुआ
- हकीम मंज़ूर

दिल को ख़ुदा की याद तले भी दबा चुका
कम-बख़्त फिर भी चैन न पाए तो क्या करूं
- हफ़ीज़ जालंधरी

इस बार इंतिज़ाम तो सर्दी का हो गया
क्या हाल पेड़ कटते ही बस्ती का हो गया
- नोमान शौक़

मैं क्या बताऊँ मेरा कहीं और ध्यान है...

वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है
माथे पे उसके चोट का गहरा निशान है

वे कर रहे हैं इश्क़ पे संजीदा गुफ़्तगू
मैं क्या बताऊँ मेरा कहीं और ध्यान है...

दुष्यंत कुमार

उस के पहलू से लग के चलते हैं

उस के पहलू से लग के चलते हैं
हम कहीं टालने से टलते हैं

बंद है मय-कदों के दरवाज़े
हम तो बस यूँही चल निकलते हैं

मैं उसी तरह तो बहलता हूँ
और सब जिस तरह बहलते हैं

क्या तकल्लुफ़ करें ये कहने में
जो भी ख़ुश है हम उस से जलते हैं...

जौन एलिया

मैं शायद उसी हाथ मे रह गया हूँ

वो क्या है फूलो को धोखा हुआ था
तेरा सूट तितली ने पहना हुआ था

मुझे क्या पता बाढ़ में कौन डूबा
मैं कश्ती बनाने में डूबा हुआ था

मैं शायद उसी हाथ मे रह गया हूँ
वही हाथ जो मुझसे छूटा हुआ था

तुम्हे देखकर कुछ तो भूल हुआ हूँ
अरे याद आया मैं रूठा हुआ था...

Thursday, June 25, 2020

अपनी बदनसीबी की सबसे सख़्त सज़ा

अक्सर ये ख्याल मेरे दिल में आता है
अपनी बदनसीबी की सबसे सख़्त सज़ा
मुफ़लिस शख़्स ही क्यों पाता है

क्या उसको नहीं ये हक
एहतराम ए जीस्त जीने का

मुद्दतों से ये क़ायदा इस ज़माने का रहा है
जो जितना है तंगदस्त
उसने उतना ज़ुल्म सहा है

हुकूमतों के दिए फरमानों के नतीजन
घर से बेघर, भूख प्यास से बेहाल
रहमतों के उजालों को तरसते
महफूज़ पनाहों को पाने को बेचैन
अजनबी राहों पर चलते
लोगों के हुजूमों को जब देखता हूं
तो मन ही मन ये सोचता हूं
मेरे देश के हुक्मरानों की तकरीरों में
कई झूठे वादों की ही तरह
इन शिकस्ता हाल आवाम के हालातों का ज़िक्र
क्यों नहीं

क्या एक आरामदेह और
सुकून की ज़िंदगी जीने का अधिकार
इन मजलूमों से इस कदर मेहरूम रहेगा

नाउम्मीदी और आफत के इस दौर में
यहीं मेरी गुज़ारिश ए दिल है
वक़्त के दिए इन बेरहम घावों की चारागरी हो
ज़िंदगी तेरे दिए इम्तहानों का इख्तियाम हो
और जो थकी निगाहें है उम्मीद ए रोशनी को मुंतजिर
उनको उनका आफताब मिले

कम-बख़्त फिर भी चैन न पाए तो क्या करूं

अब आ गई है सहर अपना घर संभालने को
चलूं कि जागा हुआ रात भर का मैं भी हूं
- इरफ़ान सिद्दीक़ी 

मुझ में थे जितने ऐब वो मेरे क़लम ने लिख दिए
मुझ में था जितना हुस्न वो मेरे हुनर में गुम हुआ
- हकीम मंज़ूर

दिल को ख़ुदा की याद तले भी दबा चुका
कम-बख़्त फिर भी चैन न पाए तो क्या करूं
- हफ़ीज़ जालंधरी

इस बार इंतिज़ाम तो सर्दी का हो गया
क्या हाल पेड़ कटते ही बस्ती का हो गया
- नोमान शौक़

बदलता हुआ मौसम शायरी

सफ़र के बीच ये कैसा बदल गया मौसम
कि फिर किसी ने किसी की तरफ़ नहीं देखा
- मंज़र भोपाली


बदले हुए से लगते हैं अब मौसमों के रंग
पड़ता है आसमान का साया ज़मीन पर
- हमदम कशमीरी


सर्दी में दिन सर्द मिला
हर मौसम बेदर्द मिला
- मोहम्मद अल्वी


सफ़र के बीच ये कैसा बदल गया मौसम
कि फिर किसी ने किसी की तरफ़ नहीं देखा
- मंज़र भोपाली


आज बहुत कम फूल खिले हैं
शायद मौसम बदल रहा है
- रहमान ख़ावर


कितने मौसम बदल गए लेकिन
दिल वही दिल की आरज़ू है वही
- हसन आबिद

सच पूछिए तो इस की हमें ख़ुद ख़बर नहीं
मौसम बदल गया कि बदलने लगे हैं हम
- वाली आसी


अभी तो धुंध में लिपटे हुए हैं सब मंज़र
तुम आओगे तो ये मौसम बदल चुका होगा
- इफ़्तिख़ार आरिफ़

सारे मौसम बदल गए शायद
और हम भी संभल गए शायद
- अलीना इतरत


सारा मौसम बदल चुका था फूल भी थे और आग भी थी
रात ने जब ये स्वांग रचाया चांद भी रूप बदलने लगा
- शमीम हनफ़ी

सफ़र के बाद भी मुझ को सफ़र में रहना है

सफ़र के बाद भी मुझ को सफ़र में रहना है

नज़र से गिरना भी गोया ख़बर में रहना है

अभी से ओस को किरनों से पी रहे हो तुम
तुम्हें तो ख़्वाब सा आंखों के घर में रहना है

हवा तो आप की क़िस्मत में होना लिक्खा था
मगर मैं आग हूं मुझ को शजर में रहना है

निकल के ख़ुद से जो ख़ुद ही में डूब जाता है
मैं वो सफ़ीना हूं जिस को भंवर में रहना है

तुम्हारे बाद कोई रास्ता नहीं मिलता
तो तय हुआ कि उदासी के घर में रहना है

जला के कौन मुझे अब चले किसी की तरफ़
बुझे दिए को तो 'दोस्त' खंडर में रहना है

मैं समंदर हूँ कभी अधूरी प्यास नहीं रखता

किसी को दिल के ज्यादा पास नहीं रखता
मैं समंदर हूँ कभी अधूरी प्यास नहीं रखता

सफर में साथ आओ तो हमेशा याद रखना
मेरे हमराही मैं किसी को खास नहीं रखता

वैसे काफिले के हर शख्स से उम्मीदें हैं मेरी
मगर मरदूदों से मदद की आस नहीं रखता

यही तो एक फायदा है दिल में बसने वालों का
जो दिल में रहते हैं दिल उन्हें उदास नहीं रखता

कितना सीधा सच्चा है दिल खामोश रहता है
घुटता रहता है पागल कोई बात नहीं रखता

तेरी मर्जी है दोस्त गर तू भूल चुका है मुझको
भूलने वाले मैं भी किसी को याद नहीं रखता

सोचता हूँ कभी कागज़ों में समेट लूँ तुम्हें

सोचता हूँ कभी कागज़ों में समेट लूँ उन्हें I
हर जुबां से निकले अल्फाजों की याद बना लूँ मैं I
ऐसी क्या हिमाकत हो गयी हमसे
उन्हें हमारी याद तक नहीं आती I
सोचता हूँ किताबो से शुरू हुए
सिल सिले को किताबें भेजकर ही
अपनी याद दिला दूँ I
सोचता हूँ कभी कागज़ों में समेट लूँ उन्हें I
फिर लगता हैं कि वो देखें तक नहीं
पर ये दिल है मानता ही नहीं
लेकिन तुम कभी सोचना की
यह सही था या नहीं
दोस्ती से शुरू इस रिश्ते को
खत्म करना सही था या नहीं
कभी दोस्ती में महजब को
लाना सही था या नहीं
आज भी सोचता हूं
तुम्हारा आना और जाना सही था या नहीं

Wednesday, June 24, 2020

लोग औरत को फ़क़त जिस्म समझ लेते हैं...

लोग औरत को फ़क़त जिस्म समझ लेते हैं...


लोग औरत को फ़क़त जिस्म समझ लेते हैं
रुह भी होती है उस में ये कहाँ सोचते हैं

रुह क्या होती है इससे उन्हें मतलब ही नहीं
वो तो बस तन के तक़ाज़ों का कहा मानते हैं
रुह मर जाती है तो ये जिस्म है चलती हुई लाश
इस हक़ीक़त को न समझते हैं न पहचानते हैं
कितनी सदियों से ये वहशत का चलन जारी है
कितनी सदियों से है क़ाएम ये गुनाहों का रिवाज
लोग औरत की हर इक चीख़ को नग़्मा समझे
वो क़बीलों का ज़माना हो कि शहरों का रिवाज
जब्र से नस्ल बढ़े ज़ुल्म से तन मेल करें
ये अमल हम में है बे-इल्म परिन्दों में नहीं
हम जो इनसानों की तहज़ीब लिए फिरते हैं
हमसा वहशी कोई जंगल के दरिन्दों में नहीं
इक बुझी रुह लुटे जिस्म के ढाँचे में लिए
सोचती हूँ मैं कहाँ जा के मुक़द्दर फोड़ूँ
मैं न ज़िन्दा हूँ कि मरने का सहारा ढूँढ़ूँ
और न मुर्दा हूँ कि जीने के ग़मों से छूटूँ
कौन बतलाएगा मुझ को किसे जा कर पूछूँ
ज़िन्दगी क़हर के साँचों में ढलेगी कब तक
कब तलक आँख न खोलेगा ज़माने का ज़मीर
ज़ुल्म और जब्र की ये रीत चलेगी कब तक.


कह दूँ तुम्हें,या चुप रहूँ..
कह दूँ तुम्हें
या चुप रहूँ
दिल में मेरे आज क्या है
कह दूँ तुम्हें या चुप रहूँ
दिल में मेरे आज क्या है
जो बोलो तो जानूँ गुरू तुमको मानूँ
चलो ये भी वादा है
कह दूँ तुम्हें...
सोचा है तुमने कि चलते ही जाएँ
तारों से आगे कोई दुनिया बसाएँ
तो तुम बताओ
सोचा ये है कि तुम्हें रस्ता भुलाएँ
सूनी जगह पे कहीं छेड़ें सताएँ
हाय रे ना ना
ये ना करना
अरे नहीं रे नहीं रे नहीं रे नहीं रे नहीं नहीं
कह दूँ तुम्हें...
सोचा है तुमने कि कुछ गुनगुनाएँ
मस्ती में झूमें ज़रा धूमें मचाएँ
तो तुम बताओ ना
सोचा ये है कि तुम्हें नज़दीक लाएँ
फूलों से होंठों की लाली चुराएँ
हाय रे ना ना
ये ना करना
अरे नहीं रे नहीं रे नहीं रे नहीं रे नहीं नहीं
कह दूँ तुम्हें...


किसी पत्थर की मूरत से मुहब्बत का इरादा है...

किसी पत्थर की मूरत से मुहब्बत का इरादा है
परस्तिश की तमन्ना है, इबादत का इरादा है
किसी पत्थर की मूरत से ...
जो दिल की धड़कनें समझे न आँखों की ज़ुबाँ समझे
नज़र की गुफ़्तगू समझे न जज़बों का बयाँ समझे
उसी के सामने उसकी शिक़ायत का इरादा है
किसी पत्थर की मूरत से ...
मुहब्बत बेरुख़ी से और भड़केगी वो क्या जाने
तबीयत इस अदा पे और फड़केगी वो क्या जाने
वो क्या जाने कि अपना किस क़यामत का इरादा है
किसी पत्थर की मूरत से ...
सुना है हर जवाँ पत्थर के दिल में आग होती है
मगर जब तक न छेड़ो, शर्म के पर्दे में सोती है
ये सोचा है की दिल की बात उसके रूबरू कह दे
नतीजा कुच भी निकले आज अपनी आरज़ू कह दे
हर इक बेजाँ तक़ल्लुफ़ से बग़ावत का इरादा है
किसी पत्थर की मूरत से ...

तदबीर से बिगड़ी हुई तक़दीर बना ले...

तदबीर से बिगड़ी हुई तक़दीर बना ले
अपने पे भरोसा है तो ये दाँव लगा ले
डरता है ज़माने की निगाहों से भला क्यों
इन्साफ़ तेरे साथ है इल्ज़ाम उठा ले
क्या ख़ाक वो जीना है जो अपने ही लिए हो
ख़ुद मिट के किसी और को मिटने से बचा ले
टूटे हुए पतवार हैं किश्ती के तो ग़म क्या
हारी हुई बाहों को ही पतवार बना ले.

साहिर लुधियानवी 

मुसाफिर हूँ मैं रुकना जनता ही नहीं

मुसाफिर हूँ मैं रुकना जनता ही नहीं
शायद इस लिए मुझे कोई अपना मानता ही नहीं

बहुत घूमी दुनिया
दोस्त भी बहुत बनाये
पर कभी वो मिलने ही न आये

देखता हुँ मैं जब रुक के
तस्वीरे तो है बहुत
पर उन तस्वीरै में कोई नहीं

खाली पड़ा है ये आईना
मां तेरी बिंदी कही नहीं
न मैज पे पापै की डायरी कहीं

इन जूतो में खूब देखी दुनिया
पर उस पापा की फट फटिया का मजा कहां
ना मिली माँ की दाल घूम आया मैं नैनीताल

लौटने का मान तो बहुत करता है
पर मैं लौटु कहां
कौन है मेरा यहां

झूठी लगती है पूरी दुनिया
माँ तेरे बिना कौन है यहाँ
तेरे बिना कौन है यहाँ

जो अपने आप को तुमने हमारा कर दिया होता

जो अपने आप को तुमने हमारा कर दिया होता
तो अपनी रूह को हमने तुम्हारा कर दिया होता

मुहब्बत फिर दोबारा से उसी अंदाज़ में होती
मेरे इज़हार पर इक हां दुबारा कर दिया होता

मैं अपनी मांग रख देता खुदा की अंजुमन में जा
जो मेरी बात को तूने गवारा कर दिया होता

हमारे वक़्त ने हमको बहुत बेवस बनाया है
नहीं तो तेरे दीये को सितारा कर दिया होता

मैं तेरी राह भी तकता तुझे हासिल भी कर लेता
बिछड़ते वक़्त ग़र तूने इशारा कर दिया होता

किसी टूटी सी लकड़ी को अगर कश्ती बना लेते
तो इन सागर की लहरों को किनारा कर दिया होता

तुम भी मुझ पर कुछ लिखो ना

कुछ मैंने तुमसे सिखा है,
कुछ तुम भी मुझसे सिखो ना.....
कुछ मैंने तुम पर लिखा है,
कुछ तुम भी मुझ पर लिखो ना....

ये हमारी आखिरी मुलाकात है क्या?

बड़े गुमसुम से बैठे हो कोई बात है क्या
जिसे लोग हिज्र कहते है ये वो रात है क्या
तेरी आंखो से आसूं क्यूं नहीं थम रहे
ये हमारी आखिरी मुलाकात है क्या? 

Tuesday, June 23, 2020

तू क्यों रात भर सोई नहीं

आज घर में मेरे कोई नहीं
तू क्यों रात भर सोई नहीं

सब मुझको ही घेरे बैठे थे
इक तू ही थी जो रोई नहीं

दुनिया हमने छोड़ ही दी
ये ज़हर दवा होई ही नहीं

आज उसको सजना सँवरना
वो ही तेरे हैं हम कोई नहीं

मिट्टी की दीवारें बुलाती हैं
अच्छा चलता हूँ कोई नहीं...

एक तस्वीर जो मुस्कुराएँ जा रही हैं

ज़िन्दगी मेरी गुज़ारी जा रही हैं
हिज़्र के आँसूं बहाती जा रही हैं

ये उम्र दुआँ, दवाओं पे कैसे कटे
मय्यत अभी से सजाई जा रही हैं

हर चीज़ कमरे की धुंदली हो चली
एक तस्वीर जो मुस्कुराएँ जा रही हैं

ख़ुद की आदतें भी अजीब लगती हैं
तू याद नहीं और भुलाई जा रही हैं...


तुम क्या जानो कि दर्द क्या होता है,

तुम क्या जानो कि दर्द क्या होता है,
इसके कई चेहरे कई लोगों में होता है,
इश्क़ में दर्द किसी को इश्क़ से दर्द,
ख़ुशी क्या उस इश्क़ करने वाले से
पूछों जो दर्द में होता है।

संतान से दर्द किसी को संतान का दर्द,
हम को तुम से दर्द तुम को हम से दर्द,
दर्द कैसा भी हो अकेले ही सहना है, पर
सबका सहारा सिर्फ़ वो ईश्वर होता है।

जगत विज्ञान को निचोड़ कर देख लिया,
हम ने अपनो का रस भी पीकर देख लिया,
गुरुत्वाकर्षण का रसायन छोड़ भी दे अब,
अपना वही जो गणित के शून्य में होता हैं।

न आप अपने, न वो अपना और न ये अपना,
भ्रम में क्यों जीते हो ये सारा ज़गत है सपना,
दौलत, शोहरत, इज्ज़त मत पड़ इनके पीछे,
भक्ति और विश्वास अपना तो सब अपना होता है।

तुम क्या जानो कि दर्द क्या होता है,
इसके कई चेहरे कई लोगों में होता है,

ज़िन्दगी रेत सी हो गई है!

सच पूछो तो,

ज़िन्दगी रेत सी हो गई है!

दिन ब दिन फिसलती जा रही है,

जितना समेटने की कोशिश कर रहा हूँ,

उतना ही फिसलती जा रही है |

रौशन होने की चाह मे,

कतरा कतरा मोम सी पिघलती जा रही है |

फिर भी ना जाने अरमान क्यों,

बेखुदी सी मचलती जा रही है |

वक्त ज्यो ज्यो बीत रही है,

त्यों त्यों वजूद मिट जाने की,

डर खलती जा रही है,

उम्र के दोपहर बीतने के बाद समझ आया की,

अरमान शाम की आगोश में ढलती जा रही है |

दिल कह रहा है फिर भी,

बीच लहर में पतवार उम्मीद की थामे डटा रह,

हौसला रख जब तक अंत टलती जा रही है |

सच पूछो तो,

ज़िन्दगी रेत सी हो गई है,

दिन ब दिन फिसलती जा रही है |

एक तेरी खुशी के ख़ातिर हम

टूटे थे हम बिखरे नहीं

एक तेरी खुशी के ख़ातिर हम
नंगे पैर, दौड़ चले आते थे ।
एक तू है, जिसे हमारे आने की,
सुना है घंटों ख़बर नहीं मिलती ।

किसी जमाने में हम,
तुम्हारी दुनिया हुआ करते थे
आज हमारे हाल ए जिगर के,
अन्दाजे तुम्हें नहीं ।

हम तो ये सोचते थे,
जिंदगी में तुम नहीं तो कुछ नहीं ।
ताज्जुब तब हुआ , बिना बताए,
जब जिंदगी से तुम नदारद हुए।

सुनो तुम, टूटे थे हम बिखरे नहीं
जिंदगी में एक तेरा गम ही नहीं,
और भी कुछ जरुरी काम है,
छोड दीया पीछे तुम्हारा नाम है

Monday, June 22, 2020

महसूस हो रही है ख़ुद अपनी कमी मुझे

लाई है किस मक़ाम पे ये ज़िंदगी मुझे
महसूस हो रही है ख़ुद अपनी कमी मुझे

जीवन का आगाज

सूरज का उगना
पंछी का चहकना,
फूलों का खिलना
दिलों का मिलना,
बादल का बरसना
हवाओं का विचरना,
प्रेम में पगना
मुख का हंसना,
फसलों का फलना
चूल्हों का जलना,
मुश्किल से लड़ना
नींद से जगना,
जीवन का आगाज़ है।
संघर्ष का आगाज़ है।

Sunday, June 21, 2020

झूट पर उस के भरोसा कर लिया

झूट पर उस के भरोसा कर लिया 
धूप इतनी थी कि साया कर लिया 

अब हमारी मुश्किलें कुछ कम हुईं 
दुश्मनों ने एक चेहरा कर लिया 

हाथ क्या आया सजा कर महफ़िलें 
और भी ख़ुद को अकेला कर लिया 

हारने का हौसला तो था नहीं 
जीत में दुश्मन की हिस्सा कर लिया 


मंज़िलों पर हम मिलें ये तय हुआ 
वापसी में साथ पक्का कर लिया 

सारी दुनिया से लड़े जिस के लिए 
एक दिन उस से भी झगड़ा कर लिया 

क़ुर्ब का उस के उठा कर फ़ाएदा 
हिज्र का सामाँ इकट्ठा कर लिया 

गुफ़्तुगू से हल तो कुछ निकला नहीं 
रंजिशों को और ताज़ा कर लिया 

मोल था हर चीज़ का बाज़ार में 
हम ने तन्हाई का सौदा कर लिया

जीवन का आगाज

सूरज का उगना
पंछी का चहकना,
फूलों का खिलना
दिलों का मिलना,
बादल का बरसना
हवाओं का विचरना,
प्रेम में पगना
मुख का हंसना,
फसलों का फलना
चूल्हों का जलना,
मुश्किल से लड़ना
नींद से जगना,
जीवन का आगाज़ है।
संघर्ष का आगाज़ है।

इल्म है एक तहज़ीब शायरी

धूप में निकलो...
धूप में निकलो घटाओं में

नहाकर देखो

ज़िन्दगी क्या है, किताबों को

हटाकर देखो |


सिर्फ़ आँखों से ही दुनिया

नहीं देखी जाती

दिल की धड़कन को भी बीनाई*

बनाकर देखो |


पत्थरों में भी ज़बाँ होती है

दिल होते हैं

अपने घर के दरो-दीवार

सजाकर देखो |
 


क्या ज़रूरी है उसे जिस्म...
वो सितारा है चमकने दो

यूँ ही आँखों में

क्या ज़रूरी है उसे जिस्म

बनाकर देखो |


फ़ासला नज़रों का धोका भी

तो हो सकता है

चाँद जब चमके तो ज़रा हाथ

बढाकर देखो |

निदा फ़ाज़ली
 
कैसे आँसू नयन सँभालें...
कैसे आँसू नयन सँभाले।

मेरी हर आशा पर पानी,
रोना दुर्बलता, नादानी,
उमड़े दिल के आगे पलकें, कैसे बाँध बनालें।
कैसे आँसू नयन सँभाले।

समझा था जिसने मुझको सब,
समझाने को वह न रही अब,

समझाते मुझको हैं मुझको कुछ न समझने वाले।
कैसे आँसू नयन सँभाले।

मन में था जीवन में आते
वे, जो दुर्बलता दुलराते,

मिले मुझे दुर्बलताओं से लाभ उठाने वाले।
कैसे आँसू नयन सँभाले।
 
मन में था जीवन में आते...
समझाते मुझको हैं मुझको कुछ न समझने वाले।
कैसे आँसू नयन सँभाले।

मन में था जीवन में आते
वे, जो दुर्बलता दुलराते,

मिले मुझे दुर्बलताओं से लाभ उठाने वाले।
कैसे आँसू नयन सँभाले।

हरिवंशराय बच्चन
 
फ़ालतू अक़्ल मुझ में थी ही नहीं...
मज़हबी बहस मैं ने की ही नहीं 

फ़ालतू अक़्ल मुझ में थी ही नहीं 

अकबर इलाहाबादी

 
ये वो जन्नत है जिस में हूर नहीं... 
इल्म में भी सुरूर है लेकिन 

ये वो जन्नत है जिस में हूर नहीं 

अल्लामा इक़बाल
इक शख़्स की यादों को भुलाने के लिए हैं... 
ये इल्म का सौदा ये रिसाले ये किताबें 

इक शख़्स की यादों को भुलाने के लिए हैं 

जाँ निसार अख़्तर
हर बात को समझा न करो... 
लफ़्ज़ ओ मंज़र में मआनी को टटोला न करो 

होश वाले हो तो हर बात को समझा न करो 

महमूद अयाज़
इश्क़ पर आमाल की बुनियाद रख... 
अक़्ल को तन्क़ीद से फ़ुर्सत नहीं 

इश्क़ पर आमाल की बुनियाद रख 

अल्लामा इक़बाल
 
इल्म की इंतिहा है ख़ामोशी... 
इल्म की इब्तिदा है हंगामा 

इल्म की इंतिहा है ख़ामोशी 


फ़िरदौस गयावी
सब कुछ जो जानते हैं वो कुछ जानते नहीं... 
हद से बढ़े जो इल्म तो है जहल दोस्तो 

सब कुछ जो जानते हैं वो कुछ जानते नहीं 

ख़ुमार बाराबंकवी

खुद को सँवारकर देखिये,

मन के आईने में खुद को सँवारकर तो देखिये,
अपने अंतर मन को निखारकर तो देखिये।
खुद को बेहद खूबसूरत पाएंगे,
असली खूबसूरती को पहचान जाएंगे।
अपने हिय से रज को हटा कर तो देखिये,
छल कपट मन से मिटा कर तो देखिये।
असली मधुरिमा को जान पाएंगे ,
क्षणिक माधुर्य को समझ जाएंगे।
कटुता मन से हटा कर तो देखिए,
मलिनता हृदय से मिटा कर तो देखिये।
जीवन की निर्मलता को जान पाएंगे,
मृषा से खुद को बचा जाएंगे।
क्रोध की छटा हटा कर तो देखिये,
अहंकार मन से मिटा कर तो देखिये।
अपनी आत्मा को बेहद शुद्व पाएंगे,
पारदर्शी जीवन को समझ जाएंगे।

खुद को सँवारकर देखिये,

मन के आईने में खुद को सँवारकर तो देखिये,
अपने अंतर मन को निखारकर तो देखिये।
खुद को बेहद खूबसूरत पाएंगे,
असली खूबसूरती को पहचान जाएंगे।
अपने हिय से रज को हटा कर तो देखिये,
छल कपट मन से मिटा कर तो देखिये।
असली मधुरिमा को जान पाएंगे ,
क्षणिक माधुर्य को समझ जाएंगे।
कटुता मन से हटा कर तो देखिए,
मलिनता हृदय से मिटा कर तो देखिये।
जीवन की निर्मलता को जान पाएंगे,
मृषा से खुद को बचा जाएंगे।
क्रोध की छटा हटा कर तो देखिये,
अहंकार मन से मिटा कर तो देखिये।
अपनी आत्मा को बेहद शुद्व पाएंगे,
पारदर्शी जीवन को समझ जाएंगे।

Saturday, June 20, 2020

कहने की थी जो बात वही दिल में रह गई

सब कुछ हम उन से कह गए लेकिन ये इत्तिफ़ाक़
कहने की थी जो बात वही दिल में रह गई
- जलील मानिकपूरी


झूटे वादों पर थी अपनी ज़िंदगी
अब तो वो भी आसरा जाता रहा
- अज़ीज़ लखनवी


ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता
- मिर्ज़ा ग़ालिब

एक चराग़ और एक किताब और एक उम्मीद असासा
उस के बा'द तो जो कुछ है वो सब अफ़्साना है
- इफ़्तिख़ार आरिफ़

Friday, June 19, 2020

फ़ासला नज़रों का धोका भी तो हो सकता है

अंजाम को पहुंचूंगा मैं अंजाम से पहले
ख़ुद मेरी कहानी भी सुनाएगा कोई और
- आनिस मुईन

टूट पड़ती थीं घटाएँ जिन की आँखें देख कर
वो भरी बरसात में तरसे हैं पानी के लिए
- सज्जाद बाक़र रिज़वी

कहानी लिखते हुए दास्ताँ सुनाते हुए
वो सो गया है मुझे ख़्वाब से जगाते हुए
- सलीम कौसर

फ़ासला नज़रों का धोका भी तो हो सकता है
वो मिले या न मिले हाथ बढ़ा कर देखो
- निदा फ़ाज़ली

Thursday, June 18, 2020

क्षमा शोभती उस भुजंग को

क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल
सबका लिया सहारा
पर नर व्याघ्र सुयोधन तुमसे
कहो, कहाँ, कब हारा?

क्षमाशील हो रिपु-समक्ष
तुम हुये विनत जितना ही
दुष्ट कौरवों ने तुमको
कायर समझा उतना ही।

अत्याचार सहन करने का
कुफल यही होता है
पौरुष का आतंक मनुज
कोमल होकर खोता है।


क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन
विषरहित, विनीत, सरल हो।

तीन दिवस तक पंथ मांगते
रघुपति सिन्धु किनारे,
बैठे पढ़ते रहे छन्द
अनुनय के प्यारे-प्यारे।


उत्तर में जब एक नाद भी
उठा नहीं सागर से
उठी अधीर धधक पौरुष की
आग राम के शर से।

सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि
करता आ गिरा शरण में
चरण पूज दासता ग्रहण की
बँधा मूढ़ बन्धन में।
सच पूछो, तो शर में ही
बसती है दीप्ति विनय की
सन्धि-वचन संपूज्य उसी का
जिसमें शक्ति विजय की।

सहनशीलता, क्षमा, दया को
तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता उसके
पीछे जब जगमग है।

मोहब्बत सोज़ भी है साज़ भी है

मोहब्बत सोज़ भी है साज़ भी है
ख़ामोशी भी है ये आवाज़ भी है
- अर्श मलसियानी

मोहब्बत सोज़ भी है साज़ भी है
ख़मोशी भी है ये आवाज़ भी है
- अर्श मलसियानी


टूट पड़ती थीं घटाएँ जिन की आँखें देख कर
वो भरी बरसात में तरसे हैं पानी के लिए
- सज्जाद बाक़र रिज़वी

अगरचे ज़ोर हवाओं ने डाल रक्खा है
मगर चराग़ ने लौ को संभाल रक्खा है
- अहमद फ़राज़

एक दिन कह लीजिए जो कुछ है दिल में आप के

एक दिन कह लीजिए जो कुछ है दिल में आप के
एक दिन सुन लीजिए जो कुछ हमारे दिल में है
- जोश मलीहाबादी


कश्ती चला रहा है मगर किस अदा के साथ
हम भी न डूब जाएं कहीं ना-ख़ुदा के साथ
- अब्दुल हमीद 



ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो
नश्शा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें
- अहमद फ़राज़

क्यूं मांग रहे हो किसी बारिश की दुआएं
तुम अपने शिकस्ता दर-ओ-दीवार तो देखो
- जाज़िब क़ुरैशी

फेंक जहां तक भाला जाए

कब तक बोझ संभाला जाए
द्वंद्व कहां तक पाला जाए
दूध छीन बच्चों के मुख से 
क्यों नागों को पाला जाए
दोनों ओर लिखा हो भारत 
सिक्का वही उछाला जाए
तू भी है राणा का वंशज 
फेंक जहां तक भाला जाए 


इस बिगड़ैल पड़ोसी को तो 
फिर शीशे में ढाला जाए 
तेरे मेरे दिल पर ताला 
राम करें ये ताला जाए 
वाहिद के घर दीप जले तो 
मंदिर तलक उजाला जाए

कब तक बोझ संभाला जाए
युद्ध कहां तक टाला जाए 
तू भी राणा का वंशज 
फेंक जहां तक भाला जाए

अब उसे हमारी याद आती नहीं होगी

अब उसे हमारी याद आती नहीं होगी,
अब उसे हमारी बात सताती नहीं होगी,
वो अकेला छोड़ गया,
एक पल में मुँह मोड़ गया,
बड़ी जल्दी में था, कुछ सोचने लगा,
जाते जाते हमें वो भूलने लगा,
नाम, शक्ल याद थी, जज्बात बदल रहे थे,
बड़ी जल्दी में वो रिश्ते बदल रहे थे,
हम उसे खोना नहीं चाहते थे, ये उसे बताया था,
फिर भी उसने हमें बड़ा रुलाया था,
उसकी मानो तो उसमें जज्बात थोड़े कम थे,
पर विज्ञान से पढ़े हम थे,
विज्ञान उसने हमसे ज्यादा पढ़ा था,
जज्बात की लाइन में हमसे पीछे खड़ा था,
हम उसे समझते थे,
इसलिए उसके पास जाने से बचते थे,
हर कोई उसे पाना चाहता था, हम उसे खोने को भी तैयार थे,
वो एक बार कहकर तो देखता, हम उसे छोड़ने को भी तैयार थे,
मोहब्बत सिर्फ उससे थी वो ये नहीं जानता था,
अब तो वो मेरा चेहरा भी नहीं पहचानता था,
हममें हिम्मत नहीं थी उसे बताने की,
हममें हिम्मत नहीं थी उसे गवाने की,
फिर भी एक रोज कुछ ऐसा हो गया,
वो हमसे थोड़ा दूर हो गया,
उस रात हमने उसे अपनी याद दिलाई थी,
पर उसने कहा उसे बहुत जोर से नींद आई थी,
उस रात हम ना रोए थे ना सोए थे,
बस टक टकी लगाए उसकी राह देख रहे थे,
किस्मत हमारी खराब थी, ये बात उसे याद थी,
फिर भी उसने याद नहीं किया,
हमारे सवाल का जवाब नहीं दिया,
अब तो वो हमें सताने लगे,
हम क्या बताए वो कितना याद आने लगे,
परेशान ना करेंगे ये वादा किया था,
पर अब हर वक़्त बात करने को दिल किया था,
सब चाहते थे हम अपना घर बसा ले,
पर हमने जिसे दिल में बसाया था,
उसने पहले से किसी ओर को चाहा था,
हमने उसे अपना लिया था,
वो किसी ओर का था खुद को समझा लिया था,
इजहार हम ने आजतक किया नहीं,
कमबख्त समझा वो भी नहीं,
वो हमसे दूर था ओर हमें उसके पास जाना था,
उससे पूछकर हमें उसकी बाहों में आना था,
हम उसकी बाहों में कैद होना चाहते थे,
जीने का पता नहीं हम उसकी बाहों में मरना चाहते थे!!

Wednesday, June 17, 2020

देख लेते हैं तो फिर , एहतराम करते हैं

देख लेते हैं तो फिर , एहतराम करते हैं i
हर हंसीन को तहे-दिल से सलाम करते है॥

ख़ाने-दिल है ये उजड़ा हुवा दयार नहीं
मेहमां बनते जो बरसों मक़ाम करते हैं ॥

वो कहे रात को दिन हो भी सके कि मुमकिन हैं ।
चराग सुबहा की गाज़ी में शाम करते हैं ॥

मेरी ना हो कभी उनसे अरे ख़ुदा न करे ।
फैसले ऐसे ही अहले निज़ाम करते हैं ॥

हम नये रिंद नहीं जो ना कहें किनारा करें I
निगाहे यार से तस्लीमे ज़ाम करते है ॥

मुझसे नफरत ही सही पर जताने आ जाओ

रंग महफिल में ही सही पर जमाने आ जाओ,
मुझसे नफरत ही सही पर जताने आ जाओ,

मैं खुद से ही अब जो ख़फा हो चला हूँ,
इक दफा मुझे मुझसे मिलाने आ जाओ,

तेरी याद में दर-ब-दर भटकूँ कब तलक,
सही या गलत कोई राह दिखाने आ जाओ,

अनकहे अनसुने रह गए जो अल्फ़ाज़,
अबकी उसे सुनने और सुनाने आ जाओ,

तुम भी नेह का वर्षों से प्यासे लग रहे हो,
आओ अपनी यह प्यास मिटाने आ जाओ

दोस्ती में मिले धोखे पर शायरी

दोस्ती जब किसी से की जाए
दुश्मनों की भी राय ली जाए
- राहत इंदौरी


हम को यारों ने याद भी न रखा
'जौन' यारों के यार थे हम तो
- जौन एलिया


दुश्मनों से प्यार होता जाएगा
दोस्तों को आज़माते जाइए
- ख़ुमार बाराबंकवी


दुश्मनों ने जो दुश्मनी की है
दोस्तों ने भी क्या कमी की है
- हबीब जालिब

लोग डरते हैं दुश्मनी से तिरी
हम तिरी दोस्ती से डरते हैं
- हबीब जालिब


पत्थर तो हज़ारों ने मारे थे मुझे लेकिन
जो दिल पे लगा आ कर इक दोस्त ने मारा है
- सुहैल अज़ीमाबादी

अक़्ल कहती है दोबारा आज़माना जहल है
दिल ये कहता है फ़रेब-ए-दोस्त खाते जाइए
- माहिर-उल क़ादरी


हटाए थे जो राह से दोस्तों की
वो पत्थर मिरे घर में आने लगे हैं
- ख़ुमार बाराबंकवी

मैं हैराँ हूँ कि क्यूँ उस से हुई थी दोस्ती अपनी
मुझे कैसे गवारा हो गई थी दुश्मनी अपनी
- एहसान दानिश


दुश्मनी ने सुना न होवेगा
जो हमें दोस्ती ने दिखलाया
- ख़्वाजा मीर दर्द

तन्हाई के खौफ़ से जो शख्स मर गया .....

सारा शहर शरीक था 
जनाज़े में उसके....... 
तन्हाई के खौफ़ से 
जो शख्स मर गया .....

जाने किसकी अमानत है , ये जो धड़कती है सीने में

जाने किसकी अमानत है , ये जो धड़कती है सीने में I
क्यूं संभाला है मैने इसे , क्या मजा ऐसे जीने में ॥

ख़्वाब में मेरे कोई आता नहीं, कोई दिल में हलचल मचाता नहीं ,
सुनी सुनी मेरी जिंदगी की फजा , कोई बनके बहारें भी आता नहीं ,,
जाने है वो कहां माहिया जिसकी , धड़कन है सीनेमें ॥

किरणों से बंधी उदासी मेरी , शाम प्यासी बढ़ाती है प्यासे मेरी ,
मन मसोसे मैं दिन को गुजारा करूं , नींद आती नहीं कि रात का क्या करूं ,,.
क्यूं बनाए हैं ये रात दिन की , रात होती महीने में ॥

ना तिजारत ना वादा किया प्यार का , हाथ थामुंगी में कल किसी गैर का ,
छोड़ अपना पराये घर जाऊंगी ,उसको कह सजन अंग लग जाऊंगी ,,
सोचते ही शर्म से नहा गई , हाय ठंडे पसीने में ॥

सोचती हूं कि अब मैं जतन क्या करूं , किससे जाकर में किसकी शिकायत करुं ,
जिसे देखा न भाला न पहचानती ,उसके बारे में कैसे बगावत करूं ,,
आज उट्ठे ये कैसी लहर , जैसे सागर हो सीने में ॥

दिल मेरा बन गया साज एहसास का , टूटता है कही तार फिर आस का ,
काटती हूं दिन तो किसी भी तरहा , जलता लगता है आलम मुझे रात का ,,
ख्वाब आते हैं एसे मुझे , मैं सजके बैठी सफिने में ॥

तोड़ो न आसरा दिल-ए-उम्मीद-वार का

कुछ कह दो झूट ही कि तवक़्क़ो बंधी रहे
तोड़ो न आसरा दिल-ए-उम्मीद-वार का
- अज्ञात

ख़ंजर चले किसी पे तड़पते हैं हम 'अमीर'
सारे जहां का दर्द हमारे जिगर में है
- अमीर मीनाई

अपना लहू भर कर लोगों को बाँट गए पैमाने लोग
दुनिया भर को याद रहेंगे हम जैसे दीवाने लोग
- कलीम आजिज़

हम को यारों ने याद भी न रखा
'जौन' यारों के यार थे हम तो
- जौन एलिया



Tuesday, June 16, 2020

यूँ जुल्फें न बाँधा करो तुम

यूँ जुल्फें न बाँधा करो तुम,
हवाएँ बेवजह नाराज रहती है! 

Monday, June 15, 2020

करीब शायरी

मैं तेरे क़रीब आते आते
कुछ और भी दूर हो गया हूँ
- अतहर नफ़ीस


वो दौर क़रीब आ रहा है
जब दाद-ए-हुनर न मिल सकेगी
- अतहर नफ़ीस

डुबो के सारे सफ़ीने क़रीब साहिल के
है उन को फिर भी ये दावा कि ना-ख़ुदा हम हैं
- अज्ञात


तन्हाइयों में आती रही जब भी उस की याद
साया सा इक क़रीब मिरे डोलता रहा
- ज़हीर काश्मीरी

जो दूर रह के उड़ाता रहा मज़ाक़ मिरा
क़रीब आया तो रोया गले लगा के मुझे
- फ़रियाद आज़र


बहती रही नदी मिरे घर के क़रीब से
पानी को देखने के लिए मैं तरस गया
- इफ़्तिख़ार नसीम

जो अपने आप से बढ़ कर हमारा अपना था
उसे क़रीब से देखा तो दूर का निकला
- अक़ील शादाब


बहुत क़रीब से कुछ भी न देख पाओगे
कि देखने के लिए फ़ासला ज़रूरी है
- सलीम फ़ौज़

सुलग रहा है जो दिल वो भड़क भी सकता है
क़रीब आओ पर इतने क़रीब आओ मत
- शाहिद इश्क़ी


जब किसी को क़रीब पाओगे
ज़ाइक़ा अपना भूल जाओगे
- उम्मीद फ़ाज़ली

हमसे तेरे ये तक़ाज़े नहीं झेले जाते..

“खेल एहसास के,इनाम में सिक्के औ हवस,
आप ही खेलिए, हम से नहीं खेले जाते,
मुंबई तुझसे मुहब्बत तो है हमको लेकिन,
हमसे तेरे ये तक़ाज़े नहीं झेले जाते...!”

Sunday, June 14, 2020

इश्क़ मंज़िल ही मंज़िल है रस्ता नहीं

क्या हुआ हुस्न है हम-सफ़र या नहीं 
इश्क़ मंज़िल ही मंज़िल है रस्ता नहीं 

दो परिंदे उड़े आँख नम हो गई 
आज समझा कि मैं तुझ को भूला नहीं 

तर्क-ए-मय को अभी दिन ही कितने हुए 
कुछ कहा मय को ज़ाहिद तो अच्छा न

हर नज़र मेरी बन जाती ज़ंजीर-ए-पा 
उस ने जाते हुए मुड़ के देखा नहीं 

छोड़ भी दे मिरा साथ ऐ ज़िंदगी 
मुझ को तुझ से नदामत है शिकवा नहीं 

तू ने तौबा तो कर ली मगर ऐ 'ख़ुमार' 
तुझ को रहमत पे शायद भरोसा नहीं 

आग़ाज़-ए-मोहब्बत का अंजाम बस इतना है

हम तो समझे थे कि हम भूल गए हैं उन को
क्या हुआ आज ये किस बात पे रोना आया
- साहिर लुधियानवी

ये दुनिया नफ़रतों के आख़री स्टेज पे है
इलाज इस का मोहब्बत के सिवा कुछ भी नहीं है
- चरण सिंह बशर

आग़ाज़-ए-मोहब्बत का अंजाम बस इतना है
जब दिल में तमन्ना थी अब दिल ही तमन्ना है
- जिगर मुरादाबादी

फ़ासला नज़रों का धोका भी तो हो सकता है
वो मिले या न मिले हाथ बढ़ा कर देखो
- निदा फ़ाज़ली

मुहब्बत की दिल में चुभन देख लेना

मुहब्बत की दिल में चुभन देख लेना
ये मिट्टी की खुशबू, वतन देख लेना

कमाने से जो तुमको फुर्सत मिले तो
पलटकर तुम उजड़ा चमन देख लेना

मुझे देखना है तो जी भर के देखो
मगर आँसुओं की तपन देख लेना

छलकते हुए जाम के बीच साकी
महकता हुआ गुलबदन देख लेना

सफ़र में जो तन्हा कभी हो अकेले
तो प्यारी सी पहली छुअन देख लेना

जो एहसास योगी कराना हो ख़ुद का
तो पहले ये फैला गगन देख लेना

Saturday, June 13, 2020

पानी में अक्स और किसी आसमाँ का है

लोग कहते हैं कि तू अब भी ख़फ़ा है मुझ से
तेरी आँखों ने तो कुछ और कहा है मुझ से
- जाँ निसार अख़्तर

इक शजर ऐसा मोहब्बत का लगाया जाए
जिस का हम-साए के आँगन में भी साया जाए
- ज़फर ज़ैदी

ज़िंदगी शायद इसी का नाम है
दूरियाँ मजबूरियाँ तन्हाइयाँ
- कैफ़ भोपाली

पानी में अक्स और किसी आसमाँ का है
ये नाव कौन सी है ये दरिया कहाँ का है
- अहमद मुश्ताक़

चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले व अन्य

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़/गुलों में रंग भरे 

गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौ-बहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले

क़फ़स उदास है यारो सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बहर-ए-ख़ुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले

कभी तो सुब्ह तिरे कुंज-ए-लब से हो आग़ाज़
कभी तो शब सर-ए-काकुल से मुश्क-बार चले

बड़ा है दर्द का रिश्ता ये दिल ग़रीब सही
तुम्हारे नाम पे आएँगे ग़म-गुसार चले

जो हम पे गुज़री सो गुज़री मगर शब-ए-हिज्राँ
हमारे अश्क तिरी आक़िबत सँवार चले

हुज़ूर-ए-यार हुई दफ़्तर-ए-जुनूँ की तलब
गिरह में ले के गरेबाँ का तार तार चले

मक़ाम 'फ़ैज़' कोई राह में जचा ही नहीं
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले



रफ़्ता रफ़्ता वो मेरे हस्ती का सामां हो गये/तस्लीम फ़ज़ली

रफ़्ता रफ़्ता वो मेरे हस्ती का सामां हो गये
पहले जां, फिर जानेजां, फिर जानेजाना हो गये

दिन-ब-दिन बढती गईं इस हुस्न की रानाइयां
पहले गुल, फिर गुल-बदन, फिर गुल-बदामां हो गए

आप तो नज़दीक से नज़दीक-तर आते गए
पहले दिल, फिर दिलरुबा, फिर दिल के मेहमां हो गए

प्यार जब हद से बढ़ा सारे तकल्लुफ़ मिट गए
आप से, फिर तुम हुए, फिर तू का उनवाँ हो गए

अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें/अहमद फ़राज़

अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें

ढूँढ उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती
ये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों में मिलें

ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो
नश्शा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें

तू ख़ुदा है न मिरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
दोनों इंसाँ हैं तो क्यूँ इतने हिजाबों में मिलें

आज हम दार पे खींचे गए जिन बातों पर
क्या अजब कल वो ज़माने को निसाबों में मिलें

अब न वो मैं न वो तू है न वो माज़ी है 'फ़राज़'
जैसे दो शख़्स तमन्ना के सराबों में मिलें

उस सितमगर की मेहरबानी से: गुलज़ार देहलवी

उस सितमगर की मेहरबानी से 
दिल उलझता है ज़िंदगानी से 

ख़ाक से कितनी सूरतें उभरीं 
धुल गए नक़्श कितने पानी से 

हम से पूछो तो ज़ुल्म बेहतर है 
इन हसीनों की मेहरबानी से 


और भी क्या क़यामत आएगी 
पूछना है तिरी जवानी से 

दिल सुलगता है अश्क बहते हैं 
आग बुझती नहीं है पानी से 

हसरत-ए-उम्र-ए-जावेदाँ ले कर 
जा रहे हैं सरा-ए-फ़ानी से 
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हाए क्या दौर-ए-ज़िंदगी गुज़रा 
वाक़िए हो गए कहानी से 

कितनी ख़ुश-फ़हमियों के बुत तोड़े 
तू ने गुलज़ार ख़ुश-बयानी से 

कोई फ़रियाद तिरे दिल में दबी हो जैसे

कोई फ़रियाद तिरे दिल में दबी हो जैसे
तू ने आंखों से कोई बात कही हो जैसे

जागते जागते इक उम्र कटी हो जैसे
जान बाक़ी है मगर सांस रुकी हो जैसे

हर मुलाक़ात पे महसूस यही होता है
मुझ से कुछ तेरी नज़र पूछ रही हो जैसे

राह चलते हुए अक्सर ये गुमां होता है
वो नज़र छुप के मुझे देख रही हो जैसे

एक लम्हे में सिमट आया है सदियों का सफ़र
ज़िंदगी तेज़ बहुत तेज़ चली हो जैसे

इस तरह पहरों तुझे सोचता रहता हूं मैं
मेरी हर सांस तिरे नाम लिखी हो जैसे

-फैज अन्वर 

रात दिन शायरी

रात दिन एक ही रहा आलम
कौन सा लम्हा सोगवार न था
- शोहरत बुख़ारी


पत्थरों को न एहसास होगा कभी
रात दिन अश्क चाहे बहाते रहो
- ज्योती आज़ाद खतरी



इस पे तकिया किया तो था लेकिन
रात-दिन हम थे और बिस्तर था
- मीर तक़ी मीर


हो गई क्या बला मिरे घर को
रात-दिन तीरगी सी रहती है
- रियाज़ ख़ैराबादी



जब से आशिक़ हुआ हूँ उस का मैं
रात-दिन सिर्फ़ मुद्दआ' है दिल
- हकीम आग़ा जान ऐश


जो टूटती बिखरती सी रहती है रात दिन
कुछ इस तरह की एक सदा है ख़लाओं में
- ज़फ़र इक़बाल

दूर तेरी महफ़िल से रात दिन सुलगता हूँ
तू मिरी तमन्ना है मैं तिरा तमाशा हूँ
- अहमद राही


चुपके चुपके रात दिन आंसू बहाना याद है
हम को अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है
- हसरत मोहानी

रखो तुम बंद बे-शक अपनी घड़ियाँ
समय तो रात दिन चलता रहेगा
- राणा गन्नौरी


लम्हों के तार खींचता रहता था रात दिन
इक शख़्स ले गया मिरी सदियाँ समेट के
- कामिल अख़्तर

वो मुलाकात के पल

वो मुलाकात के पल ,
जब भी मेरे जहन में आते हैं,
पूरा तन मचल सा जाता है।
जैसे पवन की ठंडी हवाओ से,
सिहर जाता है पूरा बदन।
वो लम्हें जब याद करती हूं,
तेरे-मेरे मुलाकात के,
मन में एक खुशी की लहर दौड़ जाती है।
होठों पे एक भीनी सी मुस्कुराहट छा जाती है।
नयन ख्यालों की दुनिया में विचरने लगते हैं,
कुछ नए ख्वाबो को बुनते हैं।
तेरे साथ इस मुलाकात के लिए,
न जाने कबसे तड़प रही थी मैं।
जब तू नजदीक आया मेरे,
मैं तो शर्म से पलके भी न उठा पाई,
एक पल तुझको निहारने के लिए।
वो पहली मुलाकात आज भी ,जहन में हैं मेरे।
जब तूने प्रथमतः मेरी कलाई को पकड़ा था,
तेरे उस एक प्रेमपूर्ण स्पर्श से,
मैं तो भावविभोर हो गई थी।
तेरे साथ उस मुलाकात की , बूंद के लिए ,
मैं तो न जाने कब से प्यासी थी,
पर जब तू आया समीप मेरे,
मेरी तृष्णा और भी बढ़ती चली गयी।
वो पल भर की मुलाकात ही सही,
मेरे लिये तो पुनः जीने की उम्मीद सी बन गयी।
वो कुछ लम्हों का मुलाकात ही सही,
मेरे एहसासो में सदा के लिये बस गयी।

Friday, June 12, 2020

कई वर्ष लग जाते है जीवन के ,

कई वर्ष लग जाते है जीवन के ,
एक लक्ष्य को पाने में,
समय सही है वक्त यही है ,
तु साध ले अपना लक्ष्य निशाने पे,
फिर चयन कर तु गुरुवर का,
जो दिशा दिखाए तुझको ठीक निशाने पे,
फिर चला दे अपने लक्ष्य का बाड़ ,
सीधा तीर निशाने पे,
और तु बनकर वीर लड़ेगा,
अपने राह के काटो से,
तभी तो पाएगा तु जीत,
अपने लक्ष्य प्रयासों पे,
पर याद रहे तुझको हरदम,
बाधाएं ना होगी कभी ख़तम,
हो जाए अवश्य थोड़ी ये कम,
क्योंकि जीवन जब तक जीना है,
लड़ना है हमको हर बाधाओं से,
फिर वक्त हो चाहे तेरा अंतिम,
पर जन्म नहीं ये अंतिम तेरा,
तुझको जन्म जन्म तक जन्म यही पर लेना है,
ये जीवन है संघर्ष करत तुझको ये जीवन जीना है,
बिन संघर्ष ये जीवन जीवन क्या,
जीवन तो फिर एक लाश है जिंदा,
अब तो ये है हाथ में तेरे,
तुझको जीवन जीना है,
या फिर खुद के जीवन को एक जीवित लाश बना देना,
अब तो ये है हाथ में तेरे तुझको जीवन जीना है।

औरत एक घनेरी सी रात है

औरत एक घनेरी सी रात है
उसके जहन में छुपी कई बात है
यह किसी से कहती नहीं
चुपचाप अकेले सब सेहती है
औरत का जीवन नहीं आसान है
कुछ लोगों में सिमटा उसका एक छोटा सा जहान है

कितनी तकलीफे है उसको
कभी उससे उसका हाल तो पूछो
वो कैसे जीती है
कभी तो सोचो

खिलना चाहती है वो
नए नए लोगो से मिलना चाहती है
अहम सा इसका किरदार है
फिर भी इसके लिए ही अनेकों परम्पराओं की दीवार है

मैं ख़ुद भी सोचता हूं ये क्या मेरा हाल है

मैं ख़ुद भी सोचता हूं ये क्या मेरा हाल है
जिस का जवाब चाहिए वो क्या सवाल है

घर से चला तो दिल के सिवा पास कुछ न था
क्या मुझ से खो गया है मुझे क्या मलाल है

आसूदगी से दल के सभी दाग़ धुल गए
लेकिन वो कैसे जाए जो शीशे में बाल है

बे-दस्त-ओ-पा हूं आज तो इल्ज़ाम किस को दूं
कल मैं ने ही बुना था ये मेरा ही जाल है

फिर कोई ख़्वाब देखूं कोई आरज़ू करूं
अब ऐ दिल-ए-तबाह तिरा क्या ख़याल है

तेरा होना भी नहीं और तिरा कहलाना भी



मौत का एक दिन मुअय्यन है
नींद क्यूँ रात भर नहीं आती
- मिर्ज़ा ग़ालिब

'मीर' का रंग बरतना नहीं आसाँ ऐ 'दाग़'
अपने दीवाँ से मिला देखिए दीवाँ उन का
- दाग़ देहलवी

ऐसे रिश्ते का भरम रखना कोई खेल नहीं
तेरा होना भी नहीं और तिरा कहलाना भी
- वसीम बरेलवी

किसी को घर से निकलते ही मिल गई मंज़िल
कोई हमारी तरह उम्र भर सफ़र में रहा
- अहमद फ़राज़

शकील बदायूंनी गजलें

तस्वीर पे रोना आया...

आज फिर गर्दिश-ए-तक़दीर पे रोना आया
दिल की बिगड़ी हुई तस्वीर पे रोना आया

इश्क़ की क़ैद में अब तक तो उमीदों पे जिए
मिट गई आस तो ज़ंजीर पे रोना आया
क्या हसीं ख़्वाब मुहब्बत ने दिखाया था हमें
खुल गई आंख तो ताबीर पे रोना आया
पहले क़ासिद की नज़र देख के दिल सहम गया
फिर तेरी सुर्ख़ी-ए-तहरीर पे रोना आया
दिल गंवा कर भी मुहब्बत के मज़े मिल न सके
अपनी खोई हुई तक़दीर पे रोना आया
कितने मसरूर थे जीने की दुआओं पे 'शकील'
जब मिले रंज तो तासीर पे रोना आया
 
जैसे अब आई हंसी मुझे...

अब तो ख़ुशी का ग़म है न ग़म की ख़ुशी मुझे
बे-हिस बना चुकी है बहुत ज़िंदगी मुझे
वो वक़्त भी ख़ुदा न दिखाए कभी मुझे
उन की नदामतों पे हो शर्मिंदगी मुझे
रोने पे अपने उन को भी अफ़्सुर्दा देख कर
यूं बन रहा हूं जैसे अब आई हंसी मुझे
यूं दीजिए फ़रेब-ए-मुहब्बत कि उम्र भर
मैं ज़िंदगी को याद करूं ज़िंदगी मुझे
रखना है तिश्ना-काम तो साक़ी बस इक नज़र
सैराब कर न दे मेरी तिश्ना-लबी मुझे
पाया है सब ने दिल मगर इस दिल के बावजूद
इक शय मिली है दिल में खटकती हुई मुझे
राज़ी हों या ख़फ़ा हों वह जो कुछ भी हों 'शकील'
हर हाल में क़ुबूल है उन की ख़ुशी मुझे
 
मगर बात नहीं होती है...

कैसे कह दूं कि मुलाक़ात नहीं होती है
रोज़ मिलते हैं मगर बात नहीं होती है
आप लिल्लाह न देखा करें आईना कभी
दिल का आ जाना बड़ी बात नहीं होती है
छुप के रोता हूं तेरी याद में दुनिया भर से
कब मेरी आंख से बरसात नहीं होती है
हाल-ए-दिल पूछने वाले तेरी दुनिया में कभी
दिन तो होता है मगर रात नहीं होती है
जब भी मिलते हैं तो कहते हैं कि कैसे हो 'शकील'
इस से आगे तो कोई बात नहीं होती है
 
 
मेरी ज़िंदगी बदल कर...

ग़म-ए-इश्क़ रह गया है ग़म-ए-जुस्तुजू में ढल कर
वह नज़र से छुप गए हैं मेरी ज़िंदगी बदल कर
तेरी गुफ़्तुगू को नासेह दिल-ए-ग़म-ज़दा से जल कर
अभी तक तो सुन रहा था मगर अब संभल संभल कर
न मिला सुराग़-ए-मंज़िल कभी उम्र भर किसी को
नज़र आ गई है मंज़िल कभी दो क़दम ही चल कर
ग़म-ए-उम्र-ए-मुख़्तसर से अभी बे-ख़बर हैं कलियां
न चमन में फेंक देना किसी फूल को मसल कर
हैं किसी के मुंतज़िर हम मगर ऐ उमीद-ए-मुबहम
कहीं वक़्त रह न जाए यूं ही करवटें बदल कर
मेरे दिल को रास आया न जुमूद-ओ-ग़ैर-फ़ानी
मिली राह-ए-ज़िंदगानी मुझे ख़ार से निकल कर
मेरी तेज़-गामियों से नहीं बर्क़ को भी निस्बत
कहीं खो न जाए दुनिया मिरे साथ साथ चल कर
कभी यक-ब-यक तवज्जो कभी दफ़अतन तग़ाफ़ुल
मुझे आज़मा रहा है कोई रुख़ बदल बदल कर
हैं 'शकील' ज़िंदगी में ये जो वुसअतें नुमायां
इन्हीं वुसअतों से पैदा कोई आलम-ए-ग़ज़ल कर

ऐसे में क्यों न कोई मौसमी गुनाह हो।

एक बार और जाल फेंक रे मछेरे
जाने किस मछली में बंधन की चाह हो!

सपनों की ओस गूँथती कुश की नोक है
हर दर्पण में उभरा एक दिवालोक है
रेत के घरौंदों में सीप के बसेरे
इस अँधेर में कैसे नेह का निबाह हो।


उनका मन आज हो गया पुरइन पात है
भिगो नहीं पाती यह पूरी बरसात है
चंदा के इर्द-गिर्द मेघों के घेरे
ऐसे में क्यों न कोई मौसमी गुनाह हो।

गूँजती गुफाओं में पिछली सौगंध है
हर चारे में कोई चुंबकीय गंध है
कैसे दे हंस झील के अनंत फेरे
पग-पग पर लहरें जब बाँध रही छाँह हो।


कुंकुम-सी निखरी कुछ भोरहरी लाज है
बंसी की डोर बहुत काँप रही आज है
यों ही ना तोड़ अभी बीन रे सँपेरे
जाने किस नागिन में प्रीत का उछाह हो ! 

टूटकर दिल के अरमान बदल जातें हैं।

अपनी ही रूह के मकान बदल जाते हैं,
मौत के साथ जिस्म-ओ-जान बदल जातें हैं।।

राज़ चलता है यहाँ किसका सदा !
एक झटके में सुलतान बदल जातें हैं।

टूटे हुए सपनें संजोकर रखना है मुश्किल !
टूटकर दिल के अरमान बदल जातें हैं।

कल थे मंदिर में आज मस्ज़िद में !
चाहतों के लिए भगवान बदल जाते हैं।

हिन्दू क्या; मुसलमान बदल जातें हैं,
वक़्त के साथ सब इंसान बदल जातें हैं।

कहतें हैं कि बदलना है क़ुदरत का नियम,
हाँ ये धरती ये आसमान बदल जातें हैं।

और तो और अपने ही घर में, धीरे-धीरे,
घर के सब सामान बदल जाते हैं।

वक़्त के साथ दुनिया के हर तमाशे में,
देखनें वाले क़दरदान बदल जातें हैं।

इतना भी भरोसा न कर गैर पर 'दोस्त ',
चंद सिक्कों के लियें ईमान बदल जातें हैं।

नसीब शायरी

ख़ुदा तौफ़ीक़ देता है जिन्हें वो ये समझते हैं 
कि ख़ुद अपने ही हाथों से बना करती हैं तक़दीरें 
- अज्ञात

हाथ में चाँद जहाँ आया मुक़द्दर चमका 
सब बदल जाएगा क़िस्मत का लिखा जाम उठा 
- बशीर बद्र

टूट पड़ती थीं घटाएँ जिन की आँखें देख कर 
वो भरी बरसात में तरसे हैं पानी के लिए 
- सज्जाद बाक़र रिज़वी

गुज़रे हैं आठ दिन की ज़ियारत नहीं हुई
इस बे-नसीब से कोई ख़िदमत नहीं हुई
- मिर्ज़ा सलामत अली दबीर

वो हम से मुकद्दर हैं तो हम उन से मुकद्दर
कह देते हैं साफ़ अपनी सफ़ाई नहीं जाती
- जलाल लखनवी

रोज़ वो ख़्वाब में आते हैं गले मिलने को 
मैं जो सोता हूँ तो जाग उठती है क़िस्मत मेरी 
- जलील मानिकपूरी


कभी मैं अपने हाथों की लकीरों से नहीं उलझा 
मुझे मालूम है क़िस्मत का लिक्खा भी बदलता है 
- बशीर बद्र

खो दिया तुम को तो हम पूछते फिरते हैं यही 
जिस की तक़दीर बिगड़ जाए वो करता क्या है 
- फ़िराक़ गोरखपुरी

मिरी तरह न ज़िंदगी किसी की यूँ अजीब हो
नसीब मौत हो अगर तो ज़िंदगी नसीब हो
- अर्श मलसियानी

हम भी नसीब से जो सितारा-नसीब थे
सूरज का इंतिज़ार किया और जल बुझ
- सहबा अख़्तर

बुलबुल को बाग़बाँ से न सय्याद से गिला 
स्मत में क़ैद लिक्खी थी फ़स्ल-ए-बहार में 
- बहादुर शाह ज़फ़र

तदबीर से क़िस्मत की बुराई नहीं जाती 
बिगड़ी हुई तक़दीर बनाई नहीं जाती 
- दाग़ देहलवी

'अदम' रोज़-ए-अजल जब क़िस्मतें तक़्सीम होती थीं 
मुक़द्दर की जगह मैं साग़र-ओ-मीना उठा लाया 
- अब्दुल हमीद अद

ऐसी क़िस्मत कहाँ कि जाम आता 
बू-ए-मय भी इधर नहीं आई 
- मुज़्तर ख़ैराबादी

दौलत नहीं काम आती जो तक़दीर बुरी हो 
क़ारून को भी अपना ख़ज़ाना नहीं मिलता 
- मिर्ज़ा रज़ा बर्क़

मोहब्बत सोज़ भी है साज़ भी है

मोहब्बत सोज़ भी है साज़ भी है
ख़ामोशी भी है ये आवाज़ भी है
- अर्श मलसियानी


मोहब्बत सोज़ भी है साज़ भी है
ख़मोशी भी है ये आवाज़ भी है
- अर्श मलसियानी

टूट पड़ती थीं घटाएँ जिन की आँखें देख कर
वो भरी बरसात में तरसे हैं पानी के लिए
- सज्जाद बाक़र रिज़वी

अगरचे ज़ोर हवाओं ने डाल रक्खा है
मगर चराग़ ने लौ को संभाल रक्खा है
- अहमद फ़राज़

Thursday, June 11, 2020

किनारा शायरी

भंवर से लड़ो तुंद लहरों से उलझो
कहां तक चलोगे किनारे किनारे
- रज़ा हमदानी


ज़रा दरिया की तह तक तो पहुँच जाने की हिम्मत कर
तो फिर ऐ डूबने वाले किनारा ही किनारा है
- बासित भोपाली


पाँव उठते हैं किसी मौज की जानिब लेकिन
रोक लेता है किनारा कि ठहर पानी है
- अकरम महमूद


तलातुम का एहसान क्यूँ हम उठाएँ
हमें डूबने को किनारा बहुत है
- साहिर भोपाली


मिरे डूब जाने का बाइस न पूछो
किनारे से टकरा गया था सफ़ीना
- हफ़ीज़ जालंधरी


इन किनारों की ज़िंदगी देखो
साथ रहते हैं मिल नहीं सकते
- निकहत गुल-रुख़

मिरे नाख़ुदा न घबरा ये नज़र है अपनी अपनी
तिरे सामने है तूफ़ाँ मिरे सामने किनारा
- फ़ारूक़ बाँसपारी


दिल के दरिया ने किनारों से मोहब्बत कर ली
तेज़ बहता है मगर कम नहीं होने पाता
- सरवत ज़ेहरा

दोस्त अहबाब से लेने न सहारे जाना
दिल जो घबराए समुंदर के किनारे जाना
- अब्दुल अहद साज़


रब्त है हुस्न ओ इश्क़ में बाहम
एक दरिया के दो किनारे हैं
- मोहम्मद दीन तासीर

ये ज़रूरी है कि आँखों का भरम क़ाएम रहे

सब से पुर-अम्न वाक़िआ ये है
आदमी आदमी को भूल गया
- जौन एलिया

कौन कहे मा'सूम हमारा बचपन था
खेल में भी तो आधा आधा आँगन था
- शारिक़ कैफ़ी

ये ज़रूरी है कि आँखों का भरम क़ाएम रहे
नींद रक्खो या न रक्खो ख़्वाब मेयारी रखो
- राहत इंदौरी

ज़िंदगी के हसीन तरकश में
कितने बे-रहम तीर होते हैं
- अब्दुल हमीद अदम

Wednesday, June 10, 2020

वसीम बरेलवी शायरी

मुहब्बतों के दिनों की यही ख़राबी है..

तुम्हारी राह में मिट्टी के घर नहीं आते
इसीलिए तो तुम्हें हम नज़र नहीं आते
मुहब्बतों के दिनों की यही ख़राबी है
ये रूठ जाएँ तो फिर लौटकर नहीं आते
जिन्हें सलीका है तहज़ीब-ए-ग़म समझने का
उन्हीं के रोने में आँसू नज़र नहीं आते
ख़ुशी की आँख में आँसू की भी जगह रखना
बुरे ज़माने कभी पूछकर नहीं आते
बिसाते -इश्क पे बढ़ना किसे नहीं आता
यह और बात कि बचने के घर नहीं आते
'वसीम' जहन बनाते हैं तो वही अख़बार
जो ले के एक भी अच्छी ख़बर नहीं आते.

कितना दुश्वार है दुनिया ये हुनर आना भी...
कितना दुश्वार है दुनिया ये हुनर आना भी
तुझी से फ़ासला रखना तुझे अपनाना भी
ऐसे रिश्ते का भरम रखना बहुत मुश्किल है
तेरा होना भी नहीं और तेरा कहलाना भी.

उसूलों पे जहाँ आँच आये ...

उसूलों पे जहाँ आँच आये टकराना ज़रूरी है
जो ज़िन्दा हों तो फिर ज़िन्दा नज़र आना ज़रूरी है
नई उम्रों की ख़ुदमुख़्तारियों को कौन समझाये
कहाँ से बच के चलना है कहाँ जाना ज़रूरी है
थके हारे परिन्दे जब बसेरे के लिये लौटें
सलीक़ामन्द शाख़ों का लचक जाना ज़रूरी है
बहुत बेबाक आँखों में त'अल्लुक़ टिक नहीं पाता
मुहब्बत में कशिश रखने को शर्माना ज़रूरी है
सलीक़ा ही नहीं शायद उसे महसूस करने का
जो कहता है ख़ुदा है तो नज़र आना ज़रूरी है
मेरे होठों पे अपनी प्यास रख दो और फिर सोचो
कि इस के बाद भी दुनिया में कुछ पाना ज़रूरी है.

मैं इस उम्मीद पे डूबा कि तू बचा लेगा...

मैं इस उम्मीद पे डूबा के तू बचा लेगा
अब इसके बाद मेरा इम्तेहान क्या लेगा
ये एक मेला है वादा किसी से क्या लेगा
ढलेगा दिन तो हर एक अपना रास्ता लेगा
मैं बुझ गया तो हमेशा को बुझ ही जाऊँगा
कोई चराग़ नहीं हूँ जो फिर जला लेगा
कलेजा चाहिए दुश्मन से दुश्मनी के लिए
जो बे-अमल है वो बदला किसी से क्या लेगा
मैं उसका हो नहीं सकता बता न देना उसे
सुनेगा तो लकीरें हाथ की अपनी जला लेगा
हज़ार तोड़ के आ जाऊँ उस से रिश्ता वसीम
मैं जानता हूँ वो जब चाहेगा बुला लेगा.

कही सुनी पे बहुत एतबार करने लगे...

कही-सुनी पे बहुत एतबार करने लगे
मेरे ही लोग मुझे संगसार करने लगे
पुराने लोगों के दिल भी हैं ख़ुशबुओं की तरह
ज़रा किसी से मिले, एतबार करने लगे
नए ज़माने से आँखें नहीं मिला पाये
तो लोग गुज़रे ज़माने से प्यार करने लगे
कोई इशारा, दिलासा न कोई वादा मगर
जब आई शाम तेरा इंतज़ार करने लगे
हमारी सादा -मिजाज़ी की दाद दे कि तुझे
बग़ैर परखे तेरा एतबार करने लगे.

मैं अपने ख़्वाब से बिछ्ड़ा नज़र नहीं आता...

मैं अपने ख़्वाब से बिछ्ड़ा नज़र नहीं आता
तू इस सदी में अकेला नज़र नहीं आता
अजब दबाव है इन बाहरी हवाओं का
घरों का बोझ भी उठता नज़र नहीं आता
मैं इक सदा पे हमेशा को घर छोड़ आया
मगर पुकारने वाला नज़र नहीं आता
मैं तेरी राह से हटने को हट गया लेकिन
मुझे तो कोई भी रस्ता नज़र नहीं आता
धुआँ भरा है यहाँ तो सभी की आँखों में
किसी को घर मेरा जलता नज़र नहीं आता

चलते हुए पांव, अक्सर लड़खड़ाते हैं

चलते हुए पांव, अक्सर लड़खड़ाते हैं
निगाहों का निशाना जहां हम हटाते हैं

पूछते हैं लोग कि आपको कहीं चोट तो नहीं आई
फिर कैसे कहूं कि इस उम्र में हमने थी आंख लड़ाई

मियां ऐ दिल ही जानता है कि इस बुढ़ापे में इश्क़ का अपने कैसा मजा होता है
कंपकंपाती देह और लड़खड़ाते पैर फिर भी इस उम्र में गिरने का नशा होता है

हैरां दिल है कि अभी इश्क़ मुकम्मल हुआ या नहीं
एकबार तू बता दे तेरे आईने में कहीं हैं भी या नहीं

कोई नहीं समझता कि गिरते-गिरते सिर के बाल सारे गिर गए
अस्सी की दहलीज पर जनाब बीस के दिग विजय जैसे हो गए

आपने देखा होगा एक नवजवां कवि वीर रस की रचना करता है
वही बुढ़ापा आने पर श्रृंगार रस में जवानी के अश्रु फेंका करता है

ऐ जो मोहब्बत है न जीने देती है और न मरने देती है
बस जिंदगी और मौत दोनों का अंदाज बदल देती है

जब इतनी ही चाहत थी तो रुसवा क्यों कर दिया
उजाड़ कर आशियां हमारा जहां बर्बाद कर दिया

आँख के आसुओ को पलको पे न रहने दो ।

आँख के आसुओ को पलको पे न रहने दो । 

पलको से गिरकर समन्दर बन जायेगे इन्हे धरती पे न बहने दो।

देते हैं दर्द अपनों को दिखकर आखो में नमी।

अपने लबो पर केकहे रहने दो।

आसूओ की परिभाषा अजीब होती है।

न समझे तो हसी समझे तो गमगीन होती हैं।

जन्मते बच्चे को देख परिवार की आखो में ख़ुशी के आंसू।

भूख लगने पर बच्चे के जुबा पर आंसू।

खिलौने, कपड़े, खलेने की ज़िद के आंस।  

अपनी ही कहानी खुद ब्या करते हैं आंस।

स्कूल जाते वक़्त डर के आंसू।

टीचर की डाट से उमड़ते आंसू।

मेहनत न करने पर मार के आंसू ।

रिजल्ट आने पर एक्ससाइटमेंट के आंसू ।

सेकेंडरी पास कर सही विषय न चुनने पर आंसू।

सही चुने तो फ्यूचर की चिंता के आंस।

गलती का आभास होने पर पश्चाताप के आंसू।

समझाने की जरुरत नहीं आसुओ को ये खुद समज जाते है।

परिस्थिति देख आखो से झरने की तरह निकल आते है।

शिक्षा पूरी कर उपयुक्त जॉब न मिले तो सपने पूरे न होने के आंस।

उपकृत जॉब मिले तो मन के दास्ताँ शब्दों से ब्या न करने के आंसू।

दुसरो को दुखी देख निकलते हैं आंसू ।

दुसरो को सुखी देख तूफ़ान की तरह टपकते हैं आंसू।

आज़ादी के वीरो की आखो में आज़ादी मिलने की संतोष के आंसू।

हम सुकून से सोये तो सरहद के सिपहियों कीआखो में सुकून के आंसू।

वर्ल्ड कप जीतने पर खिलाडी के आखो में जूनून के आंसू।

कोरोना वारियर्स पर हमले देख आखो से नहीं ह्र्दय से बहते हैं आंसू।

जब जॉर्ज फ्लॉयड पर ज़ुल्म हुआ तो बहने लगे इंसानियत के आंसू।

दुनिया में जब में सुख ,समृद्धि और शांति रहेगी।

तभी तो धरती माता की आखो से निकलेंगे आंसू।

आसुओ को भीतर न रहने दो।

कभी कभी तो किसी रूप में आखो से बहने दो।

दिखते हैं मोती होते हैं पानी यही हैं आसुओ की अजीब कहानी

इल्म शायरी

इल्म में भी सुरूर है लेकिन 
ये वो जन्नत है जिस में हूर नहीं 
- अल्लामा इक़बाल

अक़्ल में जो घिर गया ला-इंतिहा क्यूँकर हुआ 
जो समा में आ गया फिर वो ख़ुदा क्यूँकर हुआ 
- अकबर इलाहाबादी

लफ़्ज़ ओ मंज़र में मआनी को टटोला न करो 
होश वाले हो तो हर बात को समझा न करो 
- महमूद अयाज़

वो तो साँसों ने शामें सुलगाईं
आदमी को ये इल्म ही कब था
- नवीन सी. चतुर्वेदी

ये इल्म का सौदा ये रिसाले ये किताबें 
इक शख़्स की यादों को भुलाने के लिए हैं 
- जाँ निसार अख़्तर

थोड़ी सी अक़्ल लाए थे हम भी मगर 'अदम' 
दुनिया के हादसात ने दीवाना कर दिया 
- अब्दुल हमीद अदम

हद से बढ़े जो इल्म तो है जहल दोस्तो 
सब कुछ जो जानते हैं वो कुछ जानते नहीं 
- ख़ुमार बाराबंकवी

आदमिय्यत और शय है इल्म है कुछ और शय 
कितना तोते को पढ़ाया पर वो हैवाँ ही रहा 
- शेख़ इब्राहीम ज़ौक़

हर अँधेरे में काम आएगा
इल्म का आफ़्ताब ले जाओ
- मीनाक्षी जिजीविषा

कभी इल्म की प्यास बन कर!
वो कूल्हे हिलाती थी हँसती थी
- नून मीम राशिद

Tuesday, June 9, 2020

हर अदा अच्छी ख़मोशी की अदा अच्छी नहीं

आप ने तस्वीर भेजी मैं ने देखी ग़ौर से
हर अदा अच्छी ख़मोशी की अदा अच्छी नहीं
- जलील मानिकपूरी

सफ़र में कोई किसी के लिए ठहरता नहीं
न मुड़ के देखा कभी साहिलों को दरिया ने
- फ़ारिग़ बुख़ारी

सदा ऐश दौराँ दिखाता नहीं
गया वक़्त फिर हाथ आता नहीं
- मीर हसन

चला जाता हूँ हँसता खेलता मौज-ए-हवादिस से
अगर आसानियाँ हों ज़िंदगी 

तुम दूर हो तो प्यार का मौसम न आएगा

इक आप का दर है मिरी दुनिया-ए-अक़ीदत
ये सज्दे कहीं और अदा हो नहीं सकते


न साथी है न मंज़िल का पता है
मोहब्बत रास्ता ही रास्ता है



हालात ने किसी से जुदा कर दिया मुझे
अब ज़िंदगी से ज़िंदगी महरूम हो गई


ऐसे इक़रार में इंकार के सौ पहलू हैं
वो तो कहिए कि लबों पे न तबस्सुम आए


इश्क़ को जब हुस्न से नज़रें मिलाना आ गया
ख़ुद-ब-ख़ुद घबरा के क़दमों में ज़माना आ गया


ग़ुंचा ओ गुल माह ओ अंजुम सब के सब बेकार थे
आप क्या आए कि फिर मौसम सुहाना आ गया

गिरां गुज़रने लगा दौर-ए-इंतिज़ार मुझे
ज़रा थपक के सुला दे ख़याल-ए-यार मुझे


बस आ भी जाओ बदल दें हयात की तक़दीर
हमारे साथ ज़माने का फ़ैसला होगा

तुम दूर हो तो प्यार का मौसम न आएगा
अब के बरस बहार का मौसम न आएगा


जब अपने पैरहन से ख़ुशबू तुम्हारी आई
घबरा के भूल बैठे हम शिकवा-ए-जुदाई

-असद भोपाली 

आंखें ढूंढती रहती दिलों की आती आहट को,

उन नफरतों की गलियों में, कई अरमान उठे थे,
सिसकती लबों पर उसके मोहब्बत दम तोड़ती है।
इंसान सोचता है दर पर दस्तक कैसे दूं उसके?
मोहब्बत करने वालों पर कई सवाल उठते हैं।

जमाना कहता है तू खामोश हो जाना,
दिलों के एहसासों को दबाकर तू रख लेना।
खामोशी में मोहब्बत के कई मुकाम होते हैं ,
बरसों की कहानी को मिटाने तुम चलते हो ।

आंखें ढूंढती रहती दिलों की आती आहट को,
मोहब्बत की बाहों में उड़ने की चाहत को।
जमाने की कई पाबंदियों के अफसाने मिलते हैं ,
बंदिशों में ही अक्सर मुकम्मल प्यार पलते हैं।

थोड़ा सा खुद के बारे में

समय रहते
थोड़ा सा खुद के बारे में
सोच लेती हूं
जीवन की राह पे
जिस बिंदु से चलते हैं
उसीपर वापिस लौटना होता है
वापिस मुड़ने से पहले
थोड़ा सा खुद को दुनिया से
अलग कर लेती हूं
खुद को समय दे लूं
खुद पर ध्यान दे लूं
खुद के लिए थोड़ा जी लूं
खुद को खुद में थोड़ा सा
समाहित कर लूं
खुद के जीवन को भी थोड़ा सा
समझने की कोशिश करूं
खुद के ख्वाब भी पूरे करूं
खुद के लिए जो तय की थी
मंजिल
उसे हासिल करूं
छोड़ दूं
भूला दूं
कुछ पल को सब कुछ
बस खुद से बातें करूं
खुद के साथ अपना जीवन
जियूं।

इरादा नहीं बदलते हम

हुजूम देख के रस्ता नहीं बदलते हम 
किसी के डर से तक़ाज़ा नहीं बदलते हम 

हज़ार ज़ेर-ए-क़दम रास्ता हो ख़ारों का 
जो चल पड़ें तो इरादा नहीं बदलते हम 


बात करते हैं कुछ उन दिनों की,

बात करते हैं कुछ उन दिनों की, करते थे सब बातें चार
गाँव, मोहल्ले, गलियों में सब आपस में करते थे प्यार।

गुज़र गये वो लम्हें, बीत गये वो पल
सोशल डिस्टन्सिंग हैं आया, गुज़र जाएँगे ये पल।

चाहत है लोगों की, बीतें वो दिन आ जायें
पिछले कल की सोचें न हम, ये बीतें कल बन जायें।

घर बैठें हैं सब, करते है गुणगान
बिना मुश्किल सहें सब बीतें, ये पल आसान।

दुनिया में हैं कोहराम मचा, मानवता हैं शर्मसार
कहीं जानवर हैं फ़ंसा तो कहीं मनुष्य हैं बेकार।

दूर घड़ी जब दिख जाती हैं, समय की पाबंदी खुल जाती हैं
वक़्त न बचता जीवन में, भीड़ इकट्ठी यूँ ही हो जाती हैं।

कर लेते हैं बात आज की, कल है किसने देखा
आज करो कुछ, अभी करो, वरना रह जाओगे भूखा।

घर से बाहर का दुख

घर से बाहर का दुख
घर के अन्दर के दुख से बड़ा था

इसे उसने इस तरह कहा कि
घर का दुख घर भर दुख था
और बाहर का दुख देश भर दुख
घर के अन्दर दुख के नाम पर उदासी थी
भाँय - भाँय करती थीं दीवारें

घर दुखी है — उसने कहा
देश दुखी है — उसने बतलाया
उसकी दृष्टि में देश भी एक घर ही था


एक विशालकाय मध्यकालीन हवेली
जिसके बुर्ज टूट रहे थे
और नींव दरक रही थी जगह-जगह से
जंग खाए बन्द पड़े थे हज़ारों दरवाज़े


एक आदमी का सुख
कारण था करोड़ों के दुख का
घर में कमाता था एक
खाते थे दस
देश में कमाते थे करोड़ों
और खाते थे दस

सुख था ज़रूर
और सुखी होने के लिए ज़रूरी था
कि बनाया जाए देश में ग्यारहवाँ घर

Monday, June 8, 2020

परंपरा को अंधी लाठी से मत पीटो

परंपरा को अंधी लाठी से मत पीटो
उसमें बहुत कुछ है
जो जीवित है
जीवन दायक है
जैसे भी हो
ध्वंस से बचा रखने लायक है

पानी का छिछला होकर
समतल में दौड़ना
यह क्रांति का नाम है
लेकिन घाट बांध कर
पानी को गहरा बनाना
यह परम्परा का नाम है

परम्परा और क्रांति में
संघर्ष चलने दो
आग लगी है, तो
सूखी डालों को जलने दो

मगर जो डालें
आज भी हरी हैं
उन पर तो तरस खाओ
मेरी एक बात तुम मान लो

लोगों की आस्था के आधार
टूट जाते है
उखड़े हुए पेड़ो के समान
वे अपनी जड़ों से छूट जाते है

परम्परा जब लुप्त होती है
सभ्यता अकेलेपन के
दर्द मे मरती है
कलमें लगना जानते हो
तो जरुर लगाओ
मगर ऐसी कि फलो में
अपनी मिट्टी का स्वाद रहे

और ये बात याद रहे
परम्परा चीनी नहीं मधु है
वह न तो हिन्दू है, ना मुस्लिम

रामधारी सिंह दिनकर 

किसी को हम न मिले और हम को तू न मिला

एक तख़्ती अम्न के पैग़ाम की
टांग दीजे ऊंचे मीनारों के बीच
- अज़ीज़ नबील


इक रात वो गया था जहां बात रोक के
अब तक रुका हुआ हूं वहीं रात रोक के
- फ़रहत एहसास


यहाँ किसी को भी कुछ हस्ब-ए-आरज़ू न मिला
किसी को हम न मिले और हम को तू न मिला
- ज़फ़र इक़बाल

क्या पूछते हो कौन है ये किस की है शोहरत
क्या तुम ने कभी 'दाग़' का दीवां नहीं देखा
- दाग़ देहलवी

आती नहीं नींद भी, उनके चले जाने के बाद ।

आती होगी किसी को मौत, किसी के दूर चले जाने से
हमें तो आती नहीं नींद भी, उनके चले जाने के बाद ।

क्या खुशनसीब थी वो जगह , जहां मिले थे पहली बार हम
अब तो मिलती नहीं वैसी जमीन भी , उनके चले जाने के बाद ।

लोग कहते होंगे उन्हे बेवफा , छोङ कर दूर चले जाने पर
हमें तो होता नहीं यक़ीन भी , उनके चले जाने के बाद ।

तब बिन मसाले की दाल भी, क्या चटपटी हुआ करती थी
अब फीकी लगती है नमकीन भी , उनके चले जाने के बाद ।

मेला लगा है हसीनाओं का, आज मेरे इस शहर में
कोई दिखती नहीं वैसी हसीन भी, उनके चले जाने के बाद ।

आती होगी किसी को मौत , किसी के दूर चले जाने से
हमें तो आती नहीं नींद भी , उनके चले जाने के बाद ।

मेरी शरारत पर जब तुम मुस्कराते हो।

सच कहती हूँ तुम दिल में उतर जाते हो।
मेरी शरारत पर जब तुम मुस्कराते हो।

जिंदगी जीना क्या इतना आसान है?


जिंदगी जीना क्या इतना आसान है....

जिंदगी जीना क्या इतना आसान है, जो कोई भी जी ले?

दर्द से भरी है जिंदगी, इस घूँट को क्या कोई भी पी ले?

जिंदगी जीना क्या इतना आसान है?

राहों में चलना पड़ता है, बहुत संभल-संभल कर,

कहीं टक्कर ना लग जाये, राहों के शूल से।

जिंदगी जीना क्या इतना आसान है?

हर मोड़ पर नित्य नए-नए फ़साने हैं, जो हमें जिंदगी की राहों में बिताने हैं।

दृढ संकल्पीं व्यक्ति को भी, सहना पड़ता है दर्द जिंदगी के फसाने का।

जिंदगी जीना क्या इतना आसान है?

कितनी ख्वाहिशें थी बचपन में, उसे पूरा करना था इस जिंदगी में।

हिम्मत तो बहुत थी हम में इसे पूरा करने की,

कुछ ख्वाहिशें पूरी हुई, कुछ अधूरी रह गयी।

इतनी अधूरी भरी जिंदगी के साथ, खुशियों के साथ जीते रहना ही जिंदगी है।

जिंदगी जीना क्या इतना आसान है?

कुछ अपनी गलतियों से, कुछ दूसरों की गलतियों से।

सीख के सीखते रहना ही, जिंदगी जीने का नाम है।

जिंदगी जीना क्या इतना आसान है, जो कोई भी जी ले।

दर्द से भरी है जिंदगी, इस घूँट को क्या कोई भी पी ले?

जिंदगी जीना क्या इतना आसान है?

राह में रोका और रोने लगे

राह में रोका और रोने लगे हमारा हाल देख के
जिन्हें ख़ुशी होती थी कभी हमें बे हाल देख के

उस ने रूब़रू हो कर पूछा मोहब्बत करते हो
मैं बस कांपने लगा उस का ये सवाल देख के

मैं ख़ुद को अच्छा समझने पे मजबूर हो गया
ख़ुद के बारे में सिर्फ़ उस का ख़याल देख के

हमारे आंसुओं की क़दर तो आप से हुई नहीं
अब हमदर्दी न जताओ भीगा रूमाल देख के

तुझे लगा पास से बात करेगी तो ग़ौर न होगा
मैं सब जान गया दूर से ही तिरी चाल देख के

और किस बात का रोना होगा मेरे नसीब में
तिरी याद आती है औरों का विसाल देख के

परिंदे उड़ना नहीं चाहते ताकि हवा सो सके
तुम्हें हैरत नहीं होती इन का ख़याल देख के

इस वक़्त ख़ौफ 'दोस्त' को क़यामत का नहीं
टूट गया हूं मज़दूरों का जीना मुहाल देख के

ज़िंदगी शायरी 4

ज़िंदगी शायद इसी का नाम है 
दूरियाँ मजबूरियाँ तन्हाइयाँ 
- कैफ़ भोपाली

देखा है ज़िंदगी को कुछ इतने क़रीब से 
हरे तमाम लगने लगे हैं अजीब से 
- साहिर लुधियानवी

तू कहानी ही के पर्दे में भली लगती है 
ज़िंदगी तेरी हक़ीक़त नहीं देखी जाती 
- अख़्तर सईद ख़ान

गँवाई किस की तमन्ना में ज़िंदगी मैं ने 
वो कौन है जिसे देखा नहीं कभी मैं ने 
- जौन एलिया

Saturday, June 6, 2020

ये तो कोई बात न हुई

आपको मोहब्बत नहीं, मान सकते हैं
मगर आप हमें मोहब्बत समझाने लगें
यार! ये तो कोई बात न हुई.........

हम अपने गम अपने पास नहीं रखते
आप इसे गमों की तौहीन बताने लगें
यार! ये तो कोई बात न हुई.........

आपका खयाल था रुखसत का मगर
फिर आप हमारे रकीबों के ठिकाने लगे
यार! ये तो कोई बात न हुई.........

आपके लिए ये गीत लिखते है, सच है
आप ये गीत सुनाके किसी को मनाने लगें
यार! ये तो कोई बात न हुई.........

आप हमसे जवाब मांगे, हक है आपको
मगर आप हमपर सवाल उठाने लगें
यार! ये तो कोई बात न हुई.........

इक 'बंजारा दिल' ये मेरा..

इक 'बंजारा दिल' ये मेरा..
ढूंढे किसे इधर-उधर
न कोई ठोर न  ठिकाना
न ही पता शहर
न जाने कब और कैसे
होगी इसकी सहर
मुखौटे ओढ़ कई
लोग आते हैं जाते हैं
कभी रुक जाते हैं
तो कभी आगे को बढ़ जाते हैं
मुंह तकते रहे जाता है
ये 'बंजारा
लोग आजमाकर इनसे
आगे को बढ़ जाते हैं..

मैं शेर कहता था वो दास्ताँ सुनाती थी

ज़न-ए-हसीन थी फूल चुन लाती थी
मैं शेर कहता था वो दास्ताँ सुनाती थी

ये लोग तुम्हें जानते नही है अभी
वो गले लगाकर मेरा हौसला बढ़ाती थी

उसे किसी से मोहब्बत थी और वो मैं नही था
ये बात मुझसे ज़्यादा उसे रुलाती थी

अरब लहू था बदन में रंग सुनहरा था
वो मुस्कुराती नही थी दिए जलाती थी...

धूप में जलते हैं तब साया बनता है

धूप में जलते हैं तब साया बनता है

बड़े जतन से कोई अपना बनता है

सारे बिखरे ख़्वाब इकट्ठा करने पर

एक मुकम्मल तेरा चेहरा बनता है

घर के दोनों जानिब दर लगवाए हैं

अब तो तेरा दस्तक देना बनता है

प्यार करो तो एक ख़राबी ये भी है

हद दर्जे का यार तमाशा बनता है

उस का पहलू सिर्फ़ मयस्सर है मुझ को

या'नी मेरा इतना बनना बनता है


-अक्स समस्तीपुरी