Saturday, March 29, 2025

नई नई आँखें हों तो हर मंज़र अच्छा लगता है

नई नई आँखें हों तो हर मंज़र अच्छा लगता है

कुछ दिन शहर में घूमे लेकिन अब घर अच्छा लगता है

मिलने-जुलने वालों में तो सब ही अपने जैसे हैं
जिस से अब तक मिले नहीं वो अक्सर अच्छा लगता है

मेरे आँगन में आए या तेरे सर पर चोट लगे
सन्नाटों में बोलने वाला पत्थर अच्छा लगता है

चाहत हो या पूजा सब के अपने अपने साँचे हैं
जो मौत में ढल जाए वो पैकर अच्छा लगता है

हम ने भी सो कर देखा है नए पुराने शहरों में
जैसा भी है अपने घर का बिस्तर अच्छा लगता है

निदा फ़ाज़ली


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