Wednesday, May 11, 2022

हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ!


हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ!

वही हाँ, वही जो युगों से गगन को 
बिना कष्ट-श्रम के सम्हाले हुए हूँ; 
हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ। 

वही हाँ, वही जो धरा का बसंती 
सुसंगीत मीठा गुँजाती फिरी हूँ; 
हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ। 

वही हाँ, वही जो सभी प्राणियों को 
पिला प्रेम-आसव जिलाए हुए हूँ, 
हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ। 

क़सम रूप की है, क़सम प्रेम की है, 
क़सम इस हृदय की, सुनो बात मेरी— 
अनोखी हवा हूँ, बड़ी बावली हूँ! 
बड़ी मस्तमौला, नहीं कुछ फ़िकर है, 
बड़ी ही निडर हूँ, जिधर चाहती हूँ 
उधर घूमती हूँ, मुसाफ़िर अजब हूँ! 
न घर-बार मेरा, न उद्देश्य मेरा, 
न इच्छा किसी की, न आशा किसी की, 
न प्रेमी, न दुश्मन, 
जिधर चाहती हूँ उधर घूमती हूँ! 
हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ। 
जहाँ से चली मैं जहाँ को गई मैं, 
शहर, गाँव, बस्ती, 
नदी, रेत, निर्जन, हरे खेत, पोखर, 
झुलाती चली मैं, झुमाती चली मैं, 
हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ। 

चढ़ी पेड़ महुआ, थपाथप मचाया, 
गिरी धम्म से फिर, चढ़ी आम ऊपर, 
उसे भी झकोरा, किया कान में ‘कू’ 
उतर कर भगी मैं हरे खेत पहुँची— 
वहाँ गेहुँओं में लहर ख़ूब मारी, 
पहर दो पहर क्या, अनेकों पहर तक 
इसी में रही मैं। 
खड़ी देख अलसी लिए शीश कलसी, 
मुझे ख़ूब सूझी! 
हिलाया-झुलाया, गिरी पर न कलसी! 
इसी हार को पा, 
हिलाई न सरसों, झुलाई न सरसों, 
मज़ा आ गया तब, 
न सुध-बुध रही कुछ, 
बसंती नवेली भरे गात में थी! 
हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ! 

मुझे देखते ही अरहरी लजायी, 
मनाया-बनाया, न मानी, न मानी, 
उसे भी न छोड़ा— 
पथिक आ रहा था, उसी पर ढकेला, 
लगी जा हृदय से, कमर से चिपक कर, 
हँसी ज़ोर से मैं, हँसी सब दिशाएँ, 
हँसे लहलहाते हरे खेत सारे, 
हँसी चमचमाती भरी धूप प्यारी, 
बसंती हवा में हँसी सृष्टि सारी! 
हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ।

केदारनाथ अग्रवाल

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