Wednesday, April 27, 2022
दोपहर शायरी
Monday, April 25, 2022
ये मेरी ग़ज़लें ये मेरी नज़्में
ये मेरी ग़ज़लें ये मेरी नज़्में
तमाम तेरी हिकायतें हैं
ये तज़्किरे तेरे लुत्फ़ के हैं
ये शे'र तेरी शिकायतें हैं
मैं सब तिरी नज़्र कर रहा हूँ
ये उन ज़मानों की साअ'तें हैं
जो ज़िंदगी के नए सफ़र में
तुझे किसी वक़्त याद आएँ
तो एक इक हर्फ़ जी उठेगा
पहन के अन्फ़ास की क़बाएँ
उदास तन्हाइयों के लम्हों
में नाच उट्ठेंगी ये अप्सराएँ
मुझे तिरे दर्द के अलावा भी
और दुख थे ये मानता हूँ
हज़ार ग़म थे जो ज़िंदगी की
तलाश में थे ये जानता हूँ
मुझे ख़बर थी कि तेरे आँचल में
दर्द की रेत छानता हूँ
मगर हर इक बार तुझ को छू कर
ये रेत रंग-ए-हिना बनी है
ये ज़ख़्म गुलज़ार बन गए हैं
ये आह-ए-सोज़ाँ घटा बनी है
ये दर्द मौज-ए-सबा हुआ है
ये आग दिल की सदा बनी है
और अब ये सारी मता-ए-हस्ती
ये फूल ये ज़ख़्म सब तिरे हैं
ये दुख के नौहे ये सुख के नग़्मे
जो कल मिरे थे वो अब तिरे हैं
जो तेरी क़ुर्बत तिरी जुदाई
में कट गए रोज़-ओ-शब तिरे हैं
वो तेरा शाइ'र तिरा मुग़न्नी
वो जिस की बातें अजीब सी थीं
वो जिस के अंदाज़ ख़ुसरवाना थे
और अदाएँ ग़रीब सी थीं
वो जिस के जीने की ख़्वाहिशें भी
ख़ुद उस के अपने नसीब सी थीं
न पूछ इस का कि वो दिवाना
बहुत दिनों का उजड़ चुका है
वो कोहकन तो नहीं था लेकिन
कड़ी चटानों से लड़ चुका है
वो थक चुका था और उस का तेशा
उसी के सीने में गड़ चुका है
Sunday, April 24, 2022
किताब शायरी
ये जो ज़िंदगी की किताब है ये किताब भी क्या किताब है
कहीं इक हसीन सा ख़्वाब है कहीं जान-लेवा अज़ाब है
- राजेश रेड्डी
इधर उधर से किताब देखूँ
ख़याल सोचूँ कि ख़्वाब देखूँ
- सलीम मुहीउद्दीन
थोड़ी सी मिट्टी की और दो बूँद पानी की किताब
हो अगर बस में तो लिखें ज़िंदगानी की किताब
- मुनीर अनवर
कभी आँखें किताब में गुम हैं
कभी गुम हैं किताब आँखों में
- मोहम्मद अल्वी
खुली किताब थी फूलों-भरी ज़मीं मेरी
किताब मेरी थी रंग-ए-किताब उस का था
- वज़ीर आग़ा
किताब खोल के देखूँ तो आँख रोती है
वरक़ वरक़ तिरा चेहरा दिखाई देता है
- अहमद अक़ील रूबी
कौन पढ़ता है यहाँ खोल के अब दिल की किताब
अब तो चेहरे को ही अख़बार किया जाना है
- राजेश रेड्डी
लम्हे लम्हे से बनी है ये ज़माने की किताब
नुक़्ता नुक़्ता यहाँ सदियों का सफ़र लगता है
- मुईद रशीदी
काग़ज़ में दब के मर गए कीड़े किताब के
दीवाना बे-पढ़े-लिखे मशहूर हो गया
- बशीर बद्र
मैं तो था मौजूद किताब के लफ़्ज़ों में
वो ही शायद मुझ को पढ़ना भूल गया
- कृष्ण कुमार तूर
Saturday, April 9, 2022
तिरी ज़ुल्फ़ों में दिल उलझा हुआ है
तिरी ज़ुल्फ़ों में दिल उलझा हुआ है
बला के पेच में आया हुआ है
न क्यूँकर बू-ए-ख़ूँ नामे से आए
उसी जल्लाद का लिक्खा हुआ है
चले दुनिया से जिस की याद में हम
ग़ज़ब है वो हमें भूला हुआ है
कहूँ क्या हाल अगली इशरतों का
वो था इक ख़्वाब जो भूला हुआ है
जफ़ा हो या वफ़ा हम सब में ख़ुश हैं
करें क्या अब तो दिल अटका हुआ है
हुई है इश्क़ ही से हुस्न की क़द्र
हमीं से आप का शोहरा हुआ है
बुतों पर रहती है माइल हमेशा
तबीअत को ख़ुदाया क्या हुआ है
परेशाँ रहते हो दिन रात 'अकबर'
ये किस की ज़ुल्फ़ का सौदा हुआ है
Thursday, April 7, 2022
तलाश
हम गुमशुदा हैं कबसे कैसी तलाश है
भीड़ भरी दुनिया में अपनी तलाश है
न कारवां रुका न कभी मंज़िलें मिलीं
छूटा जो पीछे उस सफ़र की तलाश है
मेरे किरदार में मेरी मौज़ूदगी न ढूंढ
मुझे एक अदद कहानी की तलाश है
मिलेंगे सितारे जो ज़िद पर हम आए
मिले आसमां बस, उसी की तलाश है
बुलंदियां हासिल हों, हमें ये शौक़ नहीं
हदों से रहगुज़र हैं, बेहद की तलाश है
सितारे पलकों पे हम ने सजा के रक्खे हैं
ये और बात कि आगे हवा के रक्खे हैं
चराग़ रक्खे हैं जितने जला के रक्खे हैं
नज़र उठा के उन्हें एक बार देख तो लो
सितारे पलकों पे हम ने सजा के रक्खे हैं
करेंगे आज की शब क्या ये सोचना होगा
तमाम काम तो कल पर उठा के रक्खे हैं
किसी भी शख़्स को अब एक नाम याद नहीं
वो नाम सब ने जो मिल कर ख़ुदा के रक्खे हैं
उन्हें फ़साने कहो दिल की दास्तानें कहो
ये आईने हैं जो कब से सजा के रक्खे हैं
ख़ुलूस दर्द मोहब्बत वफ़ा रवादारी
ये नाम हम ने किसी आश्ना के रक्खे हैं
तुम्हारे दर के सवाली बनें तो कैसे बनें
तुम्हारे दर पे तो काँटे अना के रक्खे हैं
Monday, April 4, 2022
चेहरा देखें तेरे होंट और पलकें देखें
चेहरा देखें तेरे होंट और पलकें देखें
दिल पे आँखें रक्खें तेरी साँसें देखें
सुर्ख़ लबों से सब्ज़ दुआएँ फूटी हैं
पीले फूलों तुम को नीली आँखें देखें
साल होने को आया है वो कब लौटेगा
आओ खेत की सैर को निकलें कूजें देखें
थोड़ी देर में जंगल हम को आक़ करेगा
बरगद देखें या बरगद की शाख़ें देखें
मेरे मालिक आप तो सब कुछ कर सकते हैं
साथ चलें हम और दुनिया की आँखें देखें
हम तेरे होंटों की लर्ज़िश कब भूले हैं
पानी में पत्थर फेंकें और लहरें देखें
चुप-चाप अपनी आग में जलते रहो
क्या ऐसे कम-सुख़न से कोई गुफ़्तुगू करे
जो मुस्तक़िल सुकूत से दिल को लहू करे
अब तो हमें भी तर्क-ए-मरासिम का दुख नहीं
पर दिल ये चाहता है कि आग़ाज़ तू करे
तेरे बग़ैर भी तो ग़नीमत है ज़िंदगी
ख़ुद को गँवा के कौन तिरी जुस्तुजू करे
अब तो ये आरज़ू है कि वो ज़ख़्म खाइए
ता-ज़िंदगी ये दिल न कोई आरज़ू करे
तुझ को भुला के दिल है वो शर्मिंदा-ए-नज़र
अब कोई हादसा ही तिरे रू-ब-रू करे
चुप-चाप अपनी आग में जलते रहो 'फ़राज़'
दुनिया तो अर्ज़-ए-हाल से बे-आबरू करे
जो हो गए हो फ़साना तो याद आओ मत
दुखे हुए हैं हमें और अब दुखाओ मत
जो हो गए हो फ़साना तो याद आओ मत
ख़याल-ओ-ख़्वाब में परछाइयाँ सी नाचती हैं
अब इस तरह तो मिरी रूह में समाओ मत
ज़मीं के लोग तो क्या दो दिलों की चाहत में
ख़ुदा भी हो तो उसे दरमियान लाओ मत
तुम्हारा सर नहीं तिफ़्लान-ए-रह-गुज़र के लिए
दयार-ए-संग में घर से निकल के जाओ मत
सिवाए अपने किसी के भी हो नहीं सकते
हम और लोग हैं लोगो हमें सताओ मत
हमारे अहद में ये रस्म-ए-आशिक़ी ठहरी
फ़क़ीर बन के रहो और सदा लगाओ मत
वही लिखो जो लहू की ज़बाँ से मिलता है
सुख़न को पर्दा-ए-अल्फ़ाज़ में छुपाओ मत
सुपुर्द कर ही दिया आतिश-ए-हुनर के तो फिर
तमाम ख़ाक ही हो जाओ कुछ बचाओ मत
Sunday, April 3, 2022
तुम्हें याद हो के न याद हो !
वो जो हम में तुम में क़रार था, तुम्हें याद हो के न याद हो
वही वादा यानि निबाह का, तुम्हें याद हो के न याद हो !
जिसे आप गिनते थे आशना, जिसे आप कहते थे बावफ़ा
मैं वही हूँ मोमिन-ए-मुब्तला, तुम्हें याद हो के न याद हो !