Sunday, November 7, 2021

जब मैं प्रेम करता हूँ

जब मैं प्रेम करता हूँ अपने से 
अच्छा लगता है पानी का दरख़्त 
और मेरे भीतर से उछलकर कुछ बीज 
प्रवेश करते हैं शब्दों के भीतर 

जब मैं प्रेम करता हूँ तुमसे-सबसे 
अच्छी लगती है भरी-पूरी नदी 
और नक्षत्र-लोक से बरसती दुआएँ 
जोत जगाती हैं आँगन के दियों में 


जब हम प्रेम करते हैं पृथ्वी से 
आँखों में तैरते हैं सातों समुद्र 
और पुरखों के सपनों की पताकाएँ 
फहराने लगती हैं समय के आकाश में 

पानी का दरख़्त नदी में 
और नदी समुद्र में मिल जाती है 
फिर भी पूरी नहीं होती प्रेम की परिक्रमा 
क्षितिजों के पार कुछ ढूँढ़ती ही रहती हैं 
कवियों की आँखें।

चंद्रकांत देवताले की कविता

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