Sunday, April 17, 2011

बढ़े चलो

वीर तुम बढ़े चलो
धीर तुम बढ़े चलो

साथ में ध्वजा रहे
बाल दल सजा रहे
ध्वज कभी झुके नहीं
दल कभी रुके नहीं

सामने पहाड़ हो
सिंह की दहाड़ हो
तुम निडर,हटो नहीं
तुम निडर,डटो वहीं

वीर तुम बढ़े चलो
धीर तुम बढ़े चलो

प्रात हो कि रात हो
संग हो न साथ हो
सूर्य से बढ़े चलो
चन्द्र से बढ़े चलो

वीर तुम बढ़े चलो
धीर तुम बढ़े चलो

- द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी

Thursday, April 7, 2011

कितने रावण

‘किस रावण की काटूँ बाहें, किस लंका में आग लगाऊँ।
दर-दर रावण, दर-दर लंका, इतने राम कहाँ से लाऊँ।’