Saturday, July 26, 2025

सोए कहाँ थे आँखों ने तकिए भिगोए थे

सोए कहाँ थे आँखों ने तकिए भिगोए थे

हम भी कभी किसी के लिए ख़ूब रोए थे

अँगनाई में खड़े हुए बेरी के पेड़ से
वो लोग चलते वक़्त गले मिल के रोए थे

हर साल ज़र्द फूलों का इक क़ाफ़िला रुका
उस ने जहाँ पे धूल अटे पाँव धोए थे

इस हादसे से मेरा तअ'ल्लुक़ नहीं कोई
मेले में एक साथ कई बच्चे खोए थे

आँखों की कश्तियों में सफ़र कर रहे हैं वो
जिन दोस्तों ने दिल के सफ़ीने डुबोए थे

कल रात मैं था मेरे अलावा कोई न था
शैतान मर गया था फ़रिश्ते भी सोए थे

बशीर बद्र

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