Friday, September 27, 2024

ज़िंदगी की हर कहानी बे-असर हो जाएगी

ज़िंदगी की हर कहानी बे-असर हो जाएगी

हम न होंगे तो ये दुनिया दर-ब-दर हो जाएगी

पावँ पत्थर कर के छोड़ेगी अगर रुक जाइए
चलते रहिए तो ज़मीं भी हम-सफ़र हो जाएगी

जुगनुओं को साथ ले कर रात रौशन कीजिए
रास्ता सूरज का देखा तो सहर हो जाएगी

ज़िंदगी भी काश मेरे साथ रहती 'उम्र-भर
ख़ैर अब जैसे भी होनी है बसर हो जाएगी
तुम ने ख़ुद ही सर चढ़ाई थी सो अब चक्खो मज़ा
मैं न कहता था कि दुनिया दर्द-ए-सर हो जाएगी

तल्ख़ियाँ भी लाज़मी हैं ज़िंदगी के वास्ते
इतना मीठा बन के मत रहिए शकर हो जाएगी। 

राहत Indori 

आदमी सोच तो ले उसका इरादा क्या है

 ज़िंदगी और बता तेरा इरादा क्या है

इक हसरत थी कि आँचल का मुझे प्यार मिले
मैंने मंज़िल को तलाशा मुझे बाज़ार मिले

मुझको पैदा किया संसार में दो लाशों ने
और बर्बाद किया क़ौम के अय्याशों ने
तेरे दामन में बस मौत से ज़्यादा क्या है
ज़िंदगी और बता तेरा इरादा क्या है

जो भी तस्वीर बनाता हूँ बिगड़ जाती है
देखते-देखते दुनिया ही उजड़ जाती है
मेरी कश्ती तेरा तूफ़ान से वादा क्या है
ज़िंदगी और बता तेरा इरादा क्या है

तूने जो दर्द दिया उसकी क़सम खाता हूं
इतना ज़्यादा है कि एहसां से दबा जाता हूं
मेरी तक़दीर बता और तक़ाज़ा क्या है
ज़िंदगी और बता तेरा इरादा क्या है
मैंने जज़्बात के संग खेलते दौलत देखी
अपनी आँखों से मोहब्बत की तिजारत देखी
ऐसी दुनिया में मेरे वास्ते रक्खा क्या है
ज़िंदगी और बता तेरा इरादा क्या है

आदमी चाहे तो तक़दीर बदल सकता है
पूरी दुनिया की वो तस्वीर बदल सकता है
आदमी सोच तो ले उसका इरादा क्या है

रामावतार त्यागी


वो सितमगर है तो है

 वो सितमगर है तो है

अब मेरा सर है तो है

आप भी हैं मैं भी हूँ
अब जो बेहतर है तो है

जो हमारे दिल में था
अब जुबाँ पर है तो है

दुश्मनों की राह में
है मेरा घर, है तो है

एक सच है मौत भी
वो सिकन्दर है तो है

पूजता हूँ मैं उसे
अब वो पत्थर है तो है

विज्ञान व्रत

चोटों पे चोट देते ही जाने का शुक्रिया

चोटों पे चोट देते ही जाने का शुक्रिया

पत्थर को बुत की शक्ल में लाने का शुक्रिया

जागा रहा तो मैंने नए काम कर लिए
ऐ नींद आज तेरे न आने का शुक्रिया

सूखा पुराना ज़ख्म नए को जगह मिली
स्वागत नए का और पुराने का शुक्रिया

आतीं न तुम तो क्यों मैं बनाता ये सीढ़ियाँ
दीवारों, मेरी राह में आने का शुक्रिया

आँसू-सा माँ की गोद में आकर सिमट गया
नज़रों से अपनी मुझको गिराने का शुक्रिया
अब यह हुआ कि दुनिया ही लगती है मुझको घर
यूँ मेरे घर में आग लगाने का शुक्रिया

ग़म मिलते हैं तो और निखरती है शायरी
यह बात है तो सारे ज़माने का शुक्रिया

अब मुझको आ गए हैं मनाने के सब हुनर
यूँ मुझसे `कुँअर' रूठ के जाने का शुक्रिया

कुँअर बेचैन 

Sunday, September 22, 2024

हर शय तुझी को सामने लाए तो क्या करूँ

 

हर शय तुझी को सामने लाए तो क्या करूँ 
हर शय में तू ही तू नज़र आए तो क्या करूँ 

थम थम के आँख अश्क बहाए तो क्या करूँ 
रह रह के तेरी याद सताए तो क्या करूँ 

ये तो बताते जाओ अगर जा रहे हो तुम! 
मुझ को तुम्हारी याद सताए तो क्या करूँ 

माना सुकूँ-नवाज़ है हर शय बहार में 
तेरे बग़ैर चैन न आए तो क्या करूँ 

हर शेर में सुना तो गया हूँ मैं हाल-ए-दिल 
लेकिन तिरी समझ में न आए तो क्या करूँ 

अब इश्क़ से ज़ियादा ग़म-ए-तर्क-ए-इश्क़ है 
ये आग बुझ के और जलाए तो क्या करूँ 

दिल हो गया है ख़ूगर-ए-बेदाद इश्क़ में 
उन की वफ़ा भी रास न आए तो क्या करूँ 

उस शर्म-गीं नज़र का तसव्वुर अगर 'शमीम' 
बिजली दिल-ओ-नज़र पर गिराए तो क्या करूँ 


शमीम जयपुरी



Thursday, September 12, 2024

aapke bina humse raha nahi jaata

 aapke bina humse raha nahi jata,

hum aapko bahut chahte hai, 

humse kaha nahi jata.


bahti hui ye nadiya,

ghulte hue kinare.

koi toh paar utre,

koi toh paar gujre.


aagaj toh hota hai, anjaam nahi hota,

jab meri kahani mein wo naam nahi hota.


bahte hue aansoo ne aankhon se kaha thamkar,

jo mayy se pihgal jaaye wo jaam nahi hota.


tere visaal ke liye, apne kamaal ke liye,

halat e dil kee thi kharab, aur kharab kee gayi.


Wednesday, September 11, 2024

भड़काएँ मिरी प्यास को अक्सर तिरी आँखें

 भड़काएँ मिरी प्यास को अक्सर तिरी आँखें

सहरा मिरा चेहरा है समुंदर तिरी आँखें

फिर कौन भला दाद-ए-तबस्सुम उन्हें देगा
रोएँगी बहुत मुझ से बिछड़ कर तिरी आँखें

ख़ाली जो हुई शाम-ए-ग़रीबाँ की हथेली
क्या क्या न लुटाती रहीं गौहर तेरी आँखें

बोझल नज़र आती हैं ब-ज़ाहिर मुझे लेकिन
खुलती हैं बहुत दिल में उतर कर तिरी आँखें

अब तक मिरी यादों से मिटाए नहीं मिटता
भीगी हुई इक शाम का मंज़र तिरी आँखें

मुमकिन हो तो इक ताज़ा ग़ज़ल और भी कह लूँ
फिर ओढ़ न लें ख़्वाब की चादर तिरी आँखें

मैं संग-सिफ़त एक ही रस्ते में खड़ा हूँ
शायद मुझे देखेंगी पलट कर तिरी आँखें

यूँ देखते रहना उसे अच्छा नहीं दोस्त
वो काँच का पैकर है तो पत्थर तिरी आँखें

मोहसिन नक़वी





Tuesday, September 10, 2024

बस तिरा नाम ही लिखा देखा

दिल के दीवार-ओ-दर पे क्या देखा

बस तिरा नाम ही लिखा देखा

तेरी आँखों में हम ने क्या देखा
कभी क़ातिल कभी ख़ुदा देखा

अपनी सूरत लगी पराई सी
जब कभी हम ने आईना देखा

हाए अंदाज़ तेरे रुकने का
वक़्त को भी रुका रुका देखा

तेरे जाने में और आने में
हम ने सदियों का फ़ासला देखा

फिर न आया ख़याल जन्नत का
जब तिरे घर का रास्ता देखा

सुदर्शन फ़ाकिर


Monday, September 9, 2024

वह तोड़ती पत्थर


वह तोड़ती पत्थर;
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर - 
वह तोड़ती पत्थर।

 
कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बँधा यौवन,
नत नयन प्रिय, कर्म-रत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार :-
सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।

 
चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू,
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गईं,
प्राय: हुई दुपहर :- 
वह तोड़ती पत्थर।

 
देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा - 
‘मैं तोड़ती पत्थर।’


सीकर -  1. पानी की बूंदें; जल-कण  2. राजस्थान का एक शहर। 

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

Wednesday, September 4, 2024

मैंनू तेरा शबाब ले बैठा

 मैंनू तेरा शबाब ले बैठा,

रंग गोरा गुलाब ले बैठा।
 

किन्नी-बीती ते किन्नी बाकी है,
मैंनू एहो हिसाब ले बैठा।
 

मैंनू जद वी तूसी तो याद आये,
दिन दिहाड़े शराब ले बैठा।
 

चन्गा हुन्दा सवाल ना करदा,
मैंनू तेरा जवाब ले बैठा।

शिव कुमार बटालवी

तुम्हारे शहर का मौसम बड़ा सुहाना लगे

 तुम्हारे शहर का मौसम बड़ा सुहाना लगे

मैं एक शाम चुरा लूं अगर बुरा न लगे

तुम्हारे बस में अगर हो तो भूल जाओ मुझे
तुम्हें भुलाने में शायद मुझे जमाना लगे

जो डूबना है तो इतने सुकून से डूबो
कि आसपास की लहरों को भी पता न लगे.


कोई फरियाद तेरे दिल में दबी हो जैसे
तूने आंखों से कोई बात कही हो जैसे

हर मुलाकात पे महसूस यही होता है
मुझसे कुछ तेरी नजर पूछ रही हो जैसे

एक लम्हे में सिमट आया है सदियों का सफर
जिंदगी तेज बहुत तेज चली हो जैसे

इस तरह पहरों तुझे सोचता रहता हूं मैं
मेरी हर सांस तेरे नाम लिखी हो जैसे.


सुना है लोग उसे आंख भर के देखते हैं
सो उसके शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं

सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात करके देखते हैं

सुना है दिन को उसे तितलियां सताती हैं
सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं.


कितने ऐश से रहते होंगे कितने इतराते होंगे
जाने कैसे लोग वो होंगे जो उसको भाते होंगे

वो जो न आने वाला है ना उससे मुझको मतलब था
आने वालों से क्या मतलब आते हैं आते होंगे

यारो कुछ तो जिक्र करो तुम उसकी कयामत बांहों का
वो जो सिमटते होंगे उनमें वो तो मर जाते होंगे.


मेरे जैसे बन जाओगे जब इश्क तुम्हें हो जाएगा
दीवारों से सर टकराओगे जब इश्क तुम्हें हो जाएगा

हर बात गवारा कर लोगे मिन्नत भी उतारा कर लोगे
तावीजें भी बंधवाओगे जब इश्क तुम्हें हो जाएगा

जब सूरज भी खो जाएगा और चांद कहीं सो जाएगा
तुम भी घर देर से आओगे जब इश्क तुम्हें हो जाएगा.















Sunday, September 1, 2024

अश्रु छलक कर आज हमारे

 अश्रु छलक कर आज हमारे, जो गालों पर ठहरे हैं।

प्रतिनिधि हैं ये विरह व्यथा के, घाव बड़े ही गहरे हैं॥

अहरह अब नव घात हृदय पर, बेकल सुधियाँ करती हैं
एहसासों की लुटी चिंदिया, दीप द्वार नित धरती हैं।
हुआ स्वप्न में स्वप्न विखंडित, निलय प्रीति का सूना है।
पीड़ातप उपहार मिला जो, बढ़ता निशि-दिन दूना है॥

सूखे अधर नाम के तेरे, पढ़ते सतत ककहरे हैं।
अश्रु छलक कर आज हमारे, जो गालों पर ठहरे हैं॥

विगत चुंबनों के अंकन नित, सुमिरे हृदय वीथिका है।
अधराधर जो रच डाली थी, वो लयहीन गीतिका है॥
रोम-रोम पर विह्वल हो जो, छंद प्रणय थे रच डाले।
अश्रु बूँद हो व्याकुल उनको, स्मृतियों में खंगाले॥

अब तक अंकित वह मानस पर, सारे चित्र सुनहरे हैं।
अश्रु छलक कर आज हमारे, जो गालों पर ठहरे हैं॥

अटल हुई पीड़ा पर्वत सम, टूटे क्यों अनुबंध सभी।
दृश्य हुए सारे वह झूठे, जो देखे थे साथ कभी॥
श्वासें सारी तुझे समर्पित, कर दूँ गलियों हाटों में।
करूँ प्रीति का तर्पण जाकर, फिर गंगा के घाटों में॥

इन्द्रिय के सब तंतु रसायन, तुम बिन गूँंगे बहरे हैं।
अश्रु छलक कर आज हमारे, जो गालों पर ठहरे हैं॥


अनामिका सिंह 'अना'





तुमको निहारता हूँ सुबह से

 तुमको निहारता हूँ सुबह से ऋतम्बरा, 

अब शाम हो रही है मगर मन नहीं भरा। 

ख़रगोश बन के दौड़ रहे हैं तमाम ख़्वाब, 
फिरता है चाँदनी में कोई सच डरा-डरा। 

पौधे झुलस गए हैं मगर एक बात है, 
मेरी नज़र में अब भी चमन है हरा-भरा। 

लंबी सुरंग-सी है तेरी ज़िंदगी तो बोल, 
मैं जिस जगह खड़ा हूँ वहाँ है कोई सिरा। 

माथे पे रखके हाथ बहुत सोचते हो तुम, 
गंगा क़सम बताओ हमें क्या है माजरा। 

दुष्यंत क़ुमार