मैंनू तेरा शबाब ले बैठा,
रंग गोरा गुलाब ले बैठा।
किन्नी-बीती ते किन्नी बाकी है,
मैंनू एहो हिसाब ले बैठा।
मैंनू जद वी तूसी तो याद आये,
दिन दिहाड़े शराब ले बैठा।
चन्गा हुन्दा सवाल ना करदा,
मैंनू तेरा जवाब ले बैठा।
शिव कुमार बटालवी
आशु तो कुछ भी नहीं आसूँ के सिवा, जाने क्यों लोग इसे पलकों पे बैठा लेते हैं।
मैंनू तेरा शबाब ले बैठा,
रंग गोरा गुलाब ले बैठा।
किन्नी-बीती ते किन्नी बाकी है,
मैंनू एहो हिसाब ले बैठा।
मैंनू जद वी तूसी तो याद आये,
दिन दिहाड़े शराब ले बैठा।
चन्गा हुन्दा सवाल ना करदा,
मैंनू तेरा जवाब ले बैठा।
शिव कुमार बटालवी
तुम ख़ामोशी बन इन लबों पे रहती हो कोई बात हो क्या,
अक्सर ख़ुद ही से छुपी सी रहती हो कोई राज़ क्या,
हर शख्स तरसता है तेरे इक दीदार को
जरा हमें भी बताओ कोई आफताब हो क्या।
तुम ख़ामोशी बन इन लबों पे रहती हो,कोई अनकही बात हो क्या.अक्सर ख़ुद ही से छुपी सी रहती हो,दिल में छुपाए कोई राज़ क्या.
मेरे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आएँगे
मेरे बाद तुम्हें ये मेरी याद दिलाने आएँगे
हौले—हौले पाँव हिलाओ,जल सोया है छेड़ो मत
हम सब अपने—अपने दीपक यहीं सिराने आएँगे
थोड़ी आँच बची रहने दो, थोड़ा धुआँ निकलने दो
कल देखोगी कई मुसाफ़िर इसी बहाने आएँगे
उनको क्या मालूम विरूपित इस सिकता पर क्या बीती
वे आये तो यहाँ शंख-सीपियाँ उठाने आएँगे
रह—रह आँखों में चुभती है पथ की निर्जन दोपहरी
आगे और बढ़ें तो शायद दृश्य सुहाने आएँगे
मेले में भटके होते तो कोई घर पहुँचा जाता
हम घर में भटके हैं कैसे ठौर-ठिकाने आएँगे
हम क्या बोलें इस आँधी में कई घरौंदे टूट गए
इन असफल निर्मितियों के शव कल पहचाने जाएँगे।
Dushyant Kumar
शाम ढली और तुम याद आए
तनहा और बेबस मै
बादलों से घिरे आसमा के नीचे
लगता है कि एक मुद्दत से
बैठा हूं इंतजार में
वही बेकरारी जो हुआ करती थी
कभी तुमसे मिलने से पहले
सीने में दबाए बैठा हूं
ख़्वाब जो देखे तुम्हारे
फिर से गरमाए
फिर से शाम ढली और तुम याद आए..
एक ही विषय पर 6 शायरों का अलग नजरिया*
1- *Mirza Ghalib*: 1797-1869
*"शराब पीने दे मस्जिद में बैठ कर,*
*या वो जगह बता जहाँ ख़ुदा नहीं।"*
....... इसका जवाब लगभग 100 साल बाद मोहम्मद इकबाल ने दिया......
2- *Iqbal*: 1877-1938
*"मस्जिद ख़ुदा का घर है, पीने की जगह नहीं ,*
*काफिर के दिल में जा, वहाँ ख़ुदा नहीं।"*
....... इसका जवाब फिर लगभग 70 साल बाद अहमद फराज़ ने दिया......
3- *Ahmad Faraz*: 1931-2008
*"काफिर के दिल से आया हूँ मैं ये देख कर,*
*खुदा मौजूद है वहाँ, पर उसे पता नहीं।"*
....... इसका जवाब सालों बाद वसी ने दिया......
4- *Wasi*:1976-present
*"खुदा तो मौजूद दुनिया में हर जगह है,*
*तू जन्नत में जा वहाँ पीना मना नहीं।"*
वसी साहब की शायरी का जवाब साकी ने दिया
5- *Saqi*: 1986-present
*"पीता हूँ ग़म-ए-दुनिया भुलाने के लिए,*
*जन्नत में कौन सा ग़म है इसलिए वहाँ पीने में मजा नही।"*
2024 में हमारे एक शराबी मित्र के हिसाब से -
*"ला भाई दारू पिला, बकवास न यूँ बांचो,*
*जहाँ मर्ज़ी वही पिएंगे, भाड़ में जाएँ ये पांचों"*
😂🤣😂😜
🥃🥃🥃🥃
काँटे तो काँटे होते हैं उनके चुभने का क्या रोना ।
मुझको तो अखरा करता है फूलों का काँटों-सा होना ।
युग-युग तक उनकी मिट्टी से फूलों की ख़ुशबू आती है
जिनका जीवन ध्येय रहा है कांटे चुनना कलियाँ बोना ।
बदनामी के पर होते हैं अपने आप उड़ा करती है
मेरे अश्रु बहें बह जाएँ तुम अपना दामन न भिगोना ।
दुनिया वालों की महफ़िल में पहली पंक्ति उन्हें मिलती है
जिनको आता है अवसर पर छुपकर हँसना बन कर रोना ।
वाणी के नभ में दिनकर-सा ‘उदय’ नहीं तू हो सकता है
अगर नहीं तूने सीखा है नये घावों में क़लम डुबोना ।
उदयप्रताप सिंह
लिख दिया अपने दर पे किसी ने इस जगह प्यार करना मना है
प्यार अगर हो भी जाए किसी को उस का इज़हार करना मना है
उन की महफ़िल में जब कोई जाए पहले नज़रें वो अपनी झुकाए
वो सनम जो ख़ुदा बन गए हैं उन का दीदार करना मना है
जाग उट्ठे तो आहें भरेंगे हुस्न वालों को रुस्वा करेंगे
सो गए हैं जो फ़ुर्क़त के मारे उन को बेदार करना मना है
हम ने की अर्ज़ ऐ बंदा-पर्वर क्यूँ सितम ढा रहे हो यूँ हम पर
बात सुन कर हमारी वो बोले हम से तकरार करना मना है
सामने जो खुला है झरोका खा न जाना 'क़तील' उन का धोका
अब भी अपने लिए उस गली में शौक़-ए-दीदार करना मना है
Qateel Shifai