दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना
आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे
ऐसा कहाँ से लाऊँ कि तुझ सा कहें जिसे
बे-ख़ुदी बे-सबब नहीं 'ग़ालिब'
कुछ तो है जिस की पर्दा-दारी है
आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए
साहब को दिल न देने पे कितना ग़ुरूर था
रोने से और इश्क़ में बे-बाक हो गए
धोए गए हम इतने कि बस पाक हो गए
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