-ब-कू फैल गई बात शनासाई की
उसने ख़ुशबू की तरह मेरी पज़ीराई की
वो कहीं भी गया लौटा तो मिरे पास आया
है यही बात तो अच्छी मिरे हरजाई की
कमाल-ए-ज़ब्त को मैं भी तो आज़माऊँगी
ख़ुद अपने हाथ से उसकी दुल्हन सजाऊँगी
हुस्न के समझने को उम्र चाहिए जानाँ
दो-घड़ी की चाहत में लड़कियाँ नहीं खुलतीं
सब्ज़ मद्धम रौशनी में सुर्ख़ आँचल की धनक
सर्द कमरे मचलती गर्म साँसों की महक
बाज़ुओं के सख़्त हलक़े में कोई नाज़ुक बदन
सिलवटें मलबूस पर आँचल भी कुछ ढलका हुआ
गर्मी-ए-रुख़्सार से दहकी हुई ठंडी हवा
नर्म ज़ुल्फ़ों से मुलाएम उंगलियों की छेड़-छाड़
सुर्ख़ होंटों पर शरारत के किसी लम्हे का अक्स
रेशमी बाँहों में चूड़ी की कभी मद्धम धनक
शर्मगीं लहजों में धीरे से कभी चाहत की बात
दो दिलों की धड़कनों में गूँजती थी इक सदा
काँपते होंटों पे थी अल्लाह से सिर्फ इक दुआ’
काश ये लम्हे ठहर जाएँ ठहर जाएँ ज़रा
ख़ुमार-ए-लज़्ज़त से एक पल को / जो आँखें चौंके / तो नीम-ख़्वाबीदा सर-ख़ुशी में / ग़ुरूर-ए-ताराजगी ने सोचा / ख़ुदा-ए-बरतर के क़हर से / आदम-ओ- हव्वा / बहिश्त से जब भी निकले होंगे / सुपुर्दगी की उसी इंतिहा पर होंगे / उसी तरह हम बदन और हम-ख़्वाब-ओ-हम-तमन्ना
हवा कुछ उसकी शब का भी अहवाल सुना
क्या वो अपनी छत पर आज अकेला था
या कोई मेरे जैसी साथी थी और उसने
चाँद को देख के उसका चेहरा देखा था
इतने अच्छे मौसम में
रूठना नहीं अच्छा
हार जीत की बातें
कल पे हम उठा रक्खें
आज दोस्ती कर लें
ख़ुश्बू बता रही है कि वो रास्ते में है
मौज-ए-हवा के हाथ में उसका सुराग़ है
नींद पर जाल से पड़ने लगे आवाज़ों के
और फिर होने लगी तेरी सदा आहिस्ता
मैं बर्ग बर्ग उसको नुमू बख़्शती रही
वो शाख़ शाख़ मेरी जड़ें काटता रहा
मैं उसकी दस्तरस में हूँ मगर वो
मुझे मेरी रज़ा से मांगता है
लड़कियों के दुख अजब होते हैं सुख उस से अजीब
हँस रही हैं और काजल भीगता है साथ साथ