Sunday, July 27, 2025

मैं ने सोचा है रात-भर तुम को


मैं ने सोचा है रात-भर तुम को

काश हो जाए ये ख़बर तुम को

ज़िंदगी में कभी किसी को भी
मैं ने चाहा नहीं मगर तुम को

जानती हूँ कि तुम नहीं मौजूद
ढूँढती है मगर नज़र तुम को

तुम भी अफ़्सोस राह-रौ निकले
मैं तो समझी थी हम-सफ़र तुम को

मुझ में अब मैं नहीं रही बाक़ी
मैं ने चाहा है इस क़दर तुम को

अंबरीन हसीब अंबर

Saturday, July 26, 2025

सोए कहाँ थे आँखों ने तकिए भिगोए थे

सोए कहाँ थे आँखों ने तकिए भिगोए थे

हम भी कभी किसी के लिए ख़ूब रोए थे

अँगनाई में खड़े हुए बेरी के पेड़ से
वो लोग चलते वक़्त गले मिल के रोए थे

हर साल ज़र्द फूलों का इक क़ाफ़िला रुका
उस ने जहाँ पे धूल अटे पाँव धोए थे

इस हादसे से मेरा तअ'ल्लुक़ नहीं कोई
मेले में एक साथ कई बच्चे खोए थे

आँखों की कश्तियों में सफ़र कर रहे हैं वो
जिन दोस्तों ने दिल के सफ़ीने डुबोए थे

कल रात मैं था मेरे अलावा कोई न था
शैतान मर गया था फ़रिश्ते भी सोए थे

बशीर बद्र

इक हुनर है जो कर गया हूँ मैं

इक हुनर है जो कर गया हूँ मैं

सब के दिल से उतर गया हूँ मैं

कैसे अपनी हँसी को ज़ब्त करूँ
सुन रहा हूँ कि घर गया हूँ मैं

क्या बताऊँ कि मर नहीं पाता
जीते-जी जब से मर गया हूँ मैं

अब है बस अपना सामना दर-पेश
हर किसी से गुज़र गया हूँ मैं

वही नाज़-ओ-अदा वही ग़म्ज़े
सर-ब-सर आप पर गया हूँ मैं

अजब इल्ज़ाम हूँ ज़माने का
कि यहाँ सब के सर गया हूँ मैं

कभी ख़ुद तक पहुँच नहीं पाया
जब कि वाँ उम्र भर गया हूँ मैं

तुम से जानाँ मिला हूँ जिस दिन से
बे-तरह ख़ुद से डर गया हूँ मैं

कू-ए-जानाँ में सोग बरपा है
कि अचानक सुधर गया हूँ मैं

जौन एलिया

अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जाएँगे

अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जाएँगे

मर के भी चैन न पाया तो किधर जाएँगे

तुम ने ठहराई अगर ग़ैर के घर जाने की
तो इरादे यहाँ कुछ और ठहर जाएँगे

ख़ाली ऐ चारागरो होंगे बहुत मरहम-दाँ
पर मिरे ज़ख़्म नहीं ऐसे कि भर जाएँगे

पहुँचेंगे रहगुज़र-ए-यार तलक क्यूँ कर हम
पहले जब तक न दो आलम से गुज़र जाएँगे

शो'ला-ए-आह को बिजली की तरह चमकाऊँ
पर मुझे डर है कि वो देख के डर जाएँगे

हम नहीं वो जो करें ख़ून का दावा तुझ पर
बल्कि पूछेगा ख़ुदा भी तो मुकर जाएँगे

आग दोज़ख़ की भी हो जाएगी पानी पानी
जब ये आसी अरक़-ए-शर्म से तर जाएँगे

नहीं पाएगा निशाँ कोई हमारा हरगिज़
हम जहाँ से रविश-ए-तीर-ए-नज़र जाएँगे

सामने चश्म-ए-गुहर-बार के कह दो दरिया
चढ़ के गर आए तो नज़रों से उतर जाएँगे

लाए जो मस्त हैं तुर्बत पे गुलाबी आँखें
और अगर कुछ नहीं दो फूल तो धर जाएँगे

रुख़-ए-रौशन से नक़ाब अपने उलट देखो तुम
मेहर-ओ-मह नज़रों से यारों की उतर जाएँगे

हम भी देखेंगे कोई अहल-ए-नज़र है कि नहीं
याँ से जब हम रविश-ए-तीर-ए-नज़र जाएँगे

शेख़ इब्राहीम ज़ौक़



पड़ी रहेगी अगर ग़म की धूल शाख़ों पर

पड़ी रहेगी अगर ग़म की धूल शाख़ों पर

उदास फूल खिलेंगे मलूल शाख़ों पर

अभी न गुलशन-ए-उर्दू को बे-चराग़ कहो
खिले हुए हैं अभी चंद फूल शाख़ों पर

निकल पड़े हैं हिफ़ाज़त को चंद काँटे भी
हुआ है जब भी गुलों का नुज़ूल शाख़ों पर

हवा के सामने उन की बिसात ही क्या थी
दिखा रहे थे बहारें जो फूल शाख़ों पर

निसार-ए-गुल हो मिला है ये इज़्न बुलबुल को
हुआ है हुक्म गुल-ए-तर को झूल शाख़ों पर

वो फूल पहुँचे न जाने कहाँ कहाँ 'रहबर'

नहीं था जिन को ठहरना क़ुबूल शाख़ों पर

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राजेन्द्र नाथ रहबर