Friday, June 30, 2023

भूल पाओ तो मुझे तुम भूल जाना


भूल पाओ तो मुझे तुम भूल जाना! 

साथ देखा था कभी जो एक तारा 
आज भी अपनी डगर का वो सहारा 
आज भी हैं देखते हम तुम उसे पर 
है हमारे बीच गहरी अश्रु-धारा 
नाव चिर जर्जर नहीं पतवार कर में 
किस तरह फिर हो तुम्हारे पास आना। 

भूल पाओ तो मुझे तुम भूल जाना! 

सोच लेना पंथ भूला एक राही 
लख तुम्हारे हाथ में लख की सुराही 
एक मधु की बूँद पाने के लिए बस 
रुक गया था भूल जीवन की दिशा ही 
आज फिर पथ ने पुकारा जा रहा वह 
कौन जाने अब कहाँ पर हो ठिकाना। 

भूल पाओ तो मुझे तुम भूल जाना! 

चाहता है कौन अपना स्वप्न टूटे? 
चाहता है कौन पथ का साथ छूटे? 
रूप की अठखेलियाँ किसको न भातीं? 
चाहता है कौन मन का मीत रूठे? 
छूटता है साथ सपने टूटते पर 
क्योंकि दुश्मन प्रेमियों का है ज़माना। 

भूल पाओ तो मुझे तुम भूल जाना! 

यदि कभी हम फिर मिले जीवन-डगर पर 
मैं लिए आँसू, लिए तुम हास मनहर 
बोलना चाहो नहीं तो बोलना मत 
देख लेना किंतु मेरी ओर क्षण भर 
क्योंकि मेरी राह की मंज़िल तुम्हीं हो 
और जीने का तुम्हीं तो हो बहाना। 

भूल पाओ तो मुझे तुम भूल जाना! 

साँझ जब दीपक जलाएगी गगन में 
रात जब सपने सजाएगी नयन में 
पी कहाँ जब-जब पुकारेगा पपीहा 
मुस्कुराएगी कली जब-जब चमन में 
मैं तुम्हारी याद कर रोता रहूँगा 
किंतु मेरी याद कर तुम मुस्कुराना। 

भूल पाओ तो मुझे तुम भूल जाना! 

भूल जाना किस तरह संग-संग तुम्हारे 
छाँह बन कर मैं रहा संध्या-सकारे 
सोचना मत किस तरह मैं जी रहा हूँ 
चल रहा हूँ किस तरह सुधि के सहारे 
किंतु इतनी भीख तुमसे माँगता हूँ 
यदि सुनो यह गीत इसको गुनगुनाना। 

भूल पाओ तो मुझे तुम भूल जाना! 
गोपालदास नीरज

Thursday, June 29, 2023

फिर मिरे सर पे कड़ी धूप की बौछार गिरी

फिर मिरे सर पे कड़ी धूप की बौछार गिरी

मैं जहाँ जा के छुपा था वहीं दीवार गिरी 

लोग क़िस्तों में मुझे क़त्ल करेंगे शायद 
सब से पहले मिरी आवाज़ पे तलवार गिरी 

और कुछ देर मिरी आस न टूटी होती 
आख़िरी मौज थी जब हाथ से पतवार गिरी 

अगले वक़्तों में सुनेंगे दर-ओ-दीवार मुझे 
मेरी हर चीख़ मिरे अहद के उस पार गिरी 

ख़ुद को अब गर्द के तूफ़ाँ से बचाओ 
तुम बहुत ख़ुश थे कि हम-साए की दीवार गिरी 
Qaisar Ul Jafri

तेरे आने का धोखा सा रहा है

​तेरे आने का धोखा सा रहा है,

दिया सा रात भर जलता रहा है  

अजब है रात से आँखों का आलम  
ये दरिया रात भर चढ़ता रहा है  

सुना है रात भर बरसा है बादल  
मगर वो शहर जो प्यासा रहा है  

वो कोई दोस्त था अच्छे दिनों का  
जो पिछली रात से याद आ रहा है  

किसे ढूँढोगे इन गलियों में 
चलो अब घर चलें दिन जा रहा है  

कितना रखना है अब फासला सोच लो

कोई रंजिश कोई सानेहा सोच लो

अबके लिखना है क्या वाकया सोच लो 

हम भी खामोश हैं तुम भी खामोश हो 
कैसे सुलझेगा ये मस'अला सोच लो 

तुम तो आँखों से दिल में उतर ही गये 
कितना रखना है अब फासला सोच लो 

ज़िंदगी चंद लम्हों की मेहमान है 
अब दवा बे असर है दुआ सोच लो 

इश़्क की रहगुज़र भी कठिन है
प्यार करने से पहले ज़रा सोच लो

Wednesday, June 28, 2023

जिंदगी में खुशियां भरमार करलें

उम्र के इस मोड़ पर फिर से,

इज़हार-ए-प्यार करलें 
एक दूजे के लिए जीने-मरने 
का कौल-करार करलें 
बुढ़ापा रफ्ता- रफ्ता छाता जा रहा है हम पर 
बेहतर है कि हम सच्चाई दिल से स्वीकार करलें 
बच्चे हमारी पहुंच से बहुत दूर निकल गए अब 
क्यों दिल दुखाएं हम खुद 
को खुशगवार करलें 
ज़िंदगी जो बीत गई हर रोज़ उसका रोना-धोना क्या 
क्यों ना हम बाकी जिंदगी में खुशियां भरमार करलें 
दुआएं सब की कुबूल कहां होती हैं इस दुनियां में 
जो भी मिला वो ही बहुत है 
हम ऐसा ऐतबार करलें

कातिल से वफा क्या रखना

उनकी महफिल का पता क्या रखना,

यानी कातिल से वफा क्या रखना । 

दिल का कोना ही अगर खाली है, 
घर के कोने में खुदा क्या रखना । 

आँखों-आँखों में समन्दर लेकर, 
अबकि मुट्ठी में हवा क्या रखना । 

हरसू दौलत का तमाशा है यहाँ, 
ख़ाली जेबों में पता क्या रखना । 

सूरज की निगहबानी में, 
मोम होने की अदा क्या रखना । 

मेरे आंगन का गुलाब गजब ढाता है

मेरे आंगन का गुलाब गजब ढाता है,

कांटो में रहकर भी सदा मुस्कराता है 
पूछने पर बताया मुस्कराने का सबब 
खुशबू लूटाने वाला ही समझ पाता है .

Tuesday, June 27, 2023

लब पे रह जाती है आ आ के शिकायत मेरी.

उस ने मेरी राह न देखी और,

वो रिश्ता तोड़ लिया.

जिस रिश्ते कि खातिर मुझसे,

दुनिया ने मुँह मोड़ लिया.

 

कहने नहीं देती कुछ मुँह से मोहब्बत मेरी,

लब पे रह जाती है आ आ के शिकायत मेरी.

अच्छा लगता है तेरा साथ

अच्छा लगता है तेरा साथ,

तू केवल नाम भर नहीं। 

तू बेहद बेशकीमती है, 
शब्दों में कैसे कहूँ? 

ये कैसे होगा? 
कि तू आए, मैं कहीं और देखूँ। 

मेरी निगाहों की राहें, 
तुम पर खत्म हो जाती हैं। 

तू पास से गुजर जाए, 
क्यूँ ये धड़कन ना बढ़ जाए ? 

तेरे आस-पास ही तो, 
ये धड़कना चाहे। 

सोच भी ना सके , 
उतना प्यार करूँ । 

थम जाए ये वक्त, 
जब इजहार करूँ। 

कहो तो, 
उस बारिश की बात कहूँ l 

जो टकराए थे हम, 
किस्से की शुरुआत करूँ l 

आँखें मिल जाए, 
भला क्यूँ शरम आए ? 

बस तुम ना शर्माना, 
ये दिल बस तुमको चाहे l 

तुम जैसे भी हो, 
दिल फिदा है तुमपर l 

इजहार बहुत कम है, 
प्यार दिखाने को l 

आओ तो सही, 
जान बनाएंगे l 

कुछ ऐसा है प्यार मेरा, 
तू खुश रहे, तेरी दुनिया में l 

हम तुझे खुश देखकर, 
बहुत खुश हो जाएँगे l 

इजहार से डर लगता है, 
खो देंगे तुम्हें l 

है कुछ मेरे लिए, 
तो बस एक बार कह देना l 
इंतज़ार रहेगा............ 

ऐसा उसके दिल पर असर था मेरा

उसके ऊपर आज भी असर था मेरा।

मैं उसके दिल में रहता था घर था मेरा। 

करीबी इतनी आसानी से नही मरती। 
लोगों को पता था वही मोतबर था मेरा। 
जब जब जरूरत उसके सामने आई। 
उसके परिवार को भी एतबार था मेरा। 
जिसकी रोशनी से सुकून मिलता था। 
बादल बनकर घूमता हमसफर था मेरा। 
उसके करीब आने से पहले खबर आती। 
ऐसा 'दोस्त' के दिल पर असर था मेरा। 

Monday, June 26, 2023

तुम मिले, प्राण में रागिनी छा गई!

तुम मिले, प्राण में रागिनी छा गई! 


भूलती-सी जवानी नई हो उठी, 
भूलती-सी कहानी नई हो उठी, 
जिस दिवस प्राण में नेह बंसी बजी, 
बालपन की रवानी नई हो उठी। 
किन्तु रसहीन सारे बरस रसभरे 
हो गए जब तुम्हारी छटा भा गई। 
तुम मिले, प्राण में रागिनी छा गई। 

घनों में मधुर स्वर्ण-रेखा मिली, 
नयन ने नयन रूप देखा, मिली- 
पुतलियों में डुबा कर नज़र की कलम 
नेह के पृष्ठ को चित्र-लेखा मिली; 
बीतते-से दिवस लौटकर आ गए 
बालपन ले जवानी संभल आ गई। 

तुम मिले, प्राण में रागिनी छा गई। 

तुम मिले तो प्रणय पर छटा छा गई, 
चुंबनों, सावंली-सी घटा छा गई, 
एक युग, एक दिन, एक पल, एक क्षण 
पर गगन से उतर चंचला आ गई। 

प्राण का दान दे, दान में प्राण ले 
अर्चना की अमर चाँदनी छा गई। 
तुम मिले, प्राण में रागिनी छा गई।

माखनलाल चतुर्वेदी

प्यार करने की ना यूँ सजा दिजिये

प्यार करने की ना यूँ सजा दिजिये

गर खता हो गयी तो बता दिजिये ।। 
बोलिये क्या करें, कैसे जियें - मरे 
रास्ता आकर कोई दिखा दिजिये ।। 
दिल ये रोता रहे, फिर भी कुछ ना कहे 
ऐसी रोने की आदत लगा दिजिये ।। 
जाइये शौक से, कुछ ना पूछेंगे हम 
रंग हाथों का तन्हा दिखा दिजिये ।।

वो राहें जिनसे हम अनजान थे

उसके मुताबिक हम ढलते कैसे।

इस कदर गिरकर संभलते कैसे।। 

वो राहें जिनसे हम अनजान थे। 
उन पर हम यूं तन्हा चलते कैसे।। 

वक्त रहते वाबस्ता हो जाते, गर। 
ये अंधेरों के झुरमुट खलते कैसे।। 

हमारे दरम्यां ये कुरबत ना होती। 
इन आँखों में अरमां पलते कैसे।। 

मुकद्दर में ही गर, उजाले ना हों। 
बता,फिर ये चिराग जलते कैसे।। 

उसूलों के पाबंद ना होते अगर। 
जमाने में लोग हमे छलते कैसे।। 

सबसे मिल के रहना सीखो

सबसे ऊपर कोशिश रखना।

सबसे नीचे ख्वाहिश रखना। 

सबसे मिल के रहना सीखो, 
नहीं किसी से रंजिश रखना। 

बेजा बोल न बाहर आयें, 
मुँह पर थोड़ी बंदिश रखना। 

रखना दूर हमेशा नफ़रत, 
जलती उल्फ़त आतिश रखना। 

अच्छा महमां बनना है तो, 
कम कम ही फरमाइश रखना। 

वापस आता वक़्त गया कब, 
हर पल की पैमाइश रखना। 

हर भाषा का ज्ञान ज़रूरी, 
उर्दू हिन्दी इंग्लिश रखना। 

चलना है मुझको भी साथी, 
थोड़ी सी गुंजाइश रखना। 

जिस से ये तबीअत बड़ी मुश्किल से लगी थी

जिस से ये तबीअत बड़ी मुश्किल से लगी थी, 

देखा तो वो तस्वीर हर इक दिल से लगी थी


तन्हाई में रोते हैं कि यूँ दिल को सुकूँ हो 
ये चोट किसी साहब-ए-महफ़िल से लगी थी 

ऐ दिल तिरे आशोब ने फिर हश्र जगाया 
बेदर्द अभी आँख भी मुश्किल से लगी थी 

ख़िल्क़त का अजब हाल था उस कू-ए-सितम में 
साए की तरह दामन-ए-क़ातिल से लगी थी 

उतरा भी तो कब दर्द का चढ़ता हुआ दरिया 
जब कश्ती-ए-जाँ मौत के साहिल से लगी थी 

Ahmad Faraz

Wednesday, June 21, 2023

फ़ुर्सत में की है

​तुम्हारा 

ये हुस्न औ' 
कपोलों में समाई... 
दमकते कंचन-सी यह तपिश...! 
अंग-अंग में तेरे... 
झलके ग़ज़ब की जैसे कश़िश़...! 
झांकने जैसे लगा है... 
श़ब़ाब़ तुम्हारा... 
चीर कर वसनों की सारी बंदिश.....! 
लगता है... 
ख़ुदा ने जैसे... 
अप्सरा बनाकर तुझे... 
"विचित्र" 
फ़ुर्सत में की है तेरी परवरिश.....! 

दूरी शायरी

उस की याद की बाद-ए-सबा में और तो क्या होता होगा

यूँही मेरे बाल हैं बिखरे और बिखर जाते होंगे
- जौन एलिया 

दिल धड़कने का सबब याद आया
वो तिरी याद थी अब याद आया
- नासिर काज़मी 

शाम को आओगे तुम अच्छा अभी होती है शाम
गेसुओं को खोल दो सूरज छुपाने के लिए
- क़मर जलालवी 

किसे यक़ीन कि तुम देखने को आओगे
अख़ीर वक़्त मगर इंतिज़ार और सही
- अज्ञात 

आज आएँगे कल आएँगे कल आएँगे आज आएँगे
मुद्दत से यही वो कहते हैं मुद्दत से यही हम सुनते हैं
- नूह नारवी 

याद के बे-निशाँ जज़ीरों से
तेरी आवाज़ आ रही है अभी
- नासिर काज़मी 

उस की याद आई है साँसो ज़रा आहिस्ता चलो
धड़कनों से भी इबादत में ख़लल पड़ता है
- राहत इंदौरी

याद कर के और भी तकलीफ़ होती थी 'अदीम'
भूल जाने के सिवा अब कोई भी चारा न था
- अदीम हाशमी 

जान-ए-बहाराँ कब आओगे
दर्द के दरमाँ कब आओगे
- ज़ेहरा अलवी 

हवा में हिलते हुए हाथ पूछते हैं 'ज़ुबैर'
तुम अब गए तो कब आओगे छुट्टियाँ ले कर
- ज़ुबैर रिज़वी



शोला-ए-इश्क़ बुझाना भी नहीं चाहता है

शोला-ए-इश्क़ बुझाना भी नहीं चाहता है 

वो मगर ख़ुद को जलाना भी नहीं चाहता है 

उस को मंज़ूर नहीं है मिरी गुमराही भी 
और मुझे राह पे लाना भी नहीं चाहता है 

जब से जाना है कि मैं जान समझता हूँ उसे 
वो हिरन छोड़ के जाना भी नहीं चाहता है 

सैर भी जिस्म के सहरा की ख़ुश आती है मगर 
देर तक ख़ाक उड़ाना भी नहीं चाहता है 

कैसे उस शख़्स से ताबीर पे इसरार करें 
जो हमें ख़्वाब दिखाना भी नहीं चाहता है 
अपने किस काम में लाएगा बताता भी नहीं 
हम को औरों पे गँवाना भी नहीं चाहता है 

मेरे लफ़्ज़ों में भी छुपता नहीं पैकर उस का 
दिल मगर नाम बताना भी नहीं चाहता है 

आ कि वाबस्ता हैं उस हुस्न की यादें तुझ से

आ कि वाबस्ता हैं उस हुस्न की यादें तुझ से


जिस ने इस दिल को परी-ख़ाना बना रक्खा था 
जिस की उल्फ़त में भुला रक्खी थी दुनिया हम ने 
दहर को दहर का अफ़्साना बना रक्खा था 

आश्ना हैं तिरे क़दमों से वो राहें जिन पर 
उस की मदहोश जवानी ने इनायत की है 
कारवाँ गुज़रे हैं जिन से उसी रानाई के 
जिस की इन आँखों ने बे-सूद इबादत की है 

तुझ से खेली हैं वो महबूब हवाएँ जिन में 
उस के मल्बूस की अफ़्सुर्दा महक बाक़ी है 
तुझ पे बरसा है उसी बाम से महताब का नूर 
जिस में बीती हुई रातों की कसक बाक़ी है 

तू ने देखी है वो पेशानी वो रुख़्सार वो होंट 
ज़िंदगी जिन के तसव्वुर में लुटा दी हम ने 
तुझ पे उट्ठी हैं वो खोई हुई साहिर आँखें 
तुझ को मालूम है क्यूँ उम्र गँवा दी हम ने 

हम पे मुश्तरका हैं एहसान ग़म-ए-उल्फ़त के 
इतने एहसान कि गिनवाऊँ तो गिनवा न सकूँ 
हम ने इस इश्क़ में क्या खोया है क्या सीखा है 
जुज़ तिरे और को समझाऊँ तो समझा न सकूँ 

आजिज़ी सीखी ग़रीबों की हिमायत सीखी 
यास-ओ-हिरमान के दुख-दर्द के मअ'नी सीखे 
ज़ेर-दस्तों के मसाइब को समझना सीखा 
सर्द आहों के रुख़-ए-ज़र्द के मअ'नी सीखे 

जब कहीं बैठ के रोते हैं वो बेकस जिन के 
अश्क आँखों में बिलकते हुए सो जाते हैं 
ना-तवानों के निवालों पे झपटते हैं उक़ाब 
बाज़ू तोले हुए मंडलाते हुए आते हैं 

जब कभी बिकता है बाज़ार में मज़दूर का गोश्त 
शाह-राहों पे ग़रीबों का लहू बहता है 
आग सी सीने में रह रह के उबलती है न पूछ 
अपने दिल पर मुझे क़ाबू ही नहीं रहता है 

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़


चलो फिर से,नयी शुरुआत करते हैं।

चलो फिर से,नयी शुरुआत करते हैं।

मायूस दिन की,यूं हसीं रात करते हैं।। 

तर्क-ए-ताल्लुक से , हांसिल है क्या। 
कुछ देर ही सही, चलो बात करते हैं।। 

हमारे दरम्यां,ये गिला शिकवा है क्यूं। 
हम मिलकर, ये तहकीकात करते हैं।। 

अब्र हमसे, खफा हो गये हैं, तो क्या। 
आब-ए-चश्म की यूं बरसात करते हैं।। 

ये दर्द-ए-दिल अपना बांटने के लिए। 
साझा यूं अपने,अहसासात करते हैं।। 

और इम्तिहान न लो मेरा

फ़ुर्क़त में मैं

तेरे बिना कैसे 
जी पाऊँगा? 
मत आजमाओ इतना 
मैं टूट जाऊंगा 
इख़्तियार ख़ुद पे 
मैं रखता हूँ 
पर पैमाना सब्र का 
छलक जाए तो क्या करूँ 
तलबगार हूँ, तेरा 
और इम्तिहान न लो मेरा॥

रात रोज़ आई गुज़रने के लिए

रात रोज़ आई गुज़रने के लिए,

सपने भी लाई बहलने के लिए। 

यूँही हर दिन तमाम होता रहा, 
वक़्त आता नहीं टिकने के लिए। 

रहगुज़र पर तो पाँव चलते रहे, 
एक मंज़िल दे ठहरने के लिए। 

हमको मालूम है उसकी फ़ितरत, 
वादा करते हैं मुकरने के लिए। 

आईना उम्र भी बताता है, 
ये नहीं सिर्फ सँवरने के लिए। 

किसलिए बैठ गए साहिल पर, 
उतरिए पार उतरने के लिए। 

पत्ते मत नोचें शजर से, 
ज़र्द होने दें बिखरने के लिए। 

काश ! मेरे एहसास वे समझ लेते

काश ! मेरे एहसास वे समझ लेते

हम भी कुछ उनसे कह लेते 

दुनिया की भीड़ लगी भारी 
से बचके कुछ पल चल लेते 

वे मधुर स्मृतियाँ जीवन की 
उनको ही सहेजना भूल गया 
अल्फाज कहाँ वे बिखर गए 
तुम होते तो साझा कर लेते



इतना बता जाओ कि फिर कब आओगे

तुम जा रहे हो मुझे छोड़कर तो चले जाओ,

पर बस इतना बता जाओ कि फिर कब आओगे।। 

तुम भूले जा रहे हो मुझे तो बेशक भूल जाओ, 
पर इतना बताओ कि फिर कब याद करोगे।। 

कर लो जितना रुसवा करना है तुम हमे, 
पर इतना बताओ फिर कभी एहतराम दोगे क्या।। 

दे दो जितना दर्द देना है तुम हमे, 
पर ये कहो कभी खुशियाॅं भी दोगे क्या।। 

बिछा दो मेरी राहों में काॅंटे जितने बिछाने है तुम्हे, 
पर ये बताओ फिर कभी फूल भी बिछाओगे क्या।। 

दे दो भले ही वफ़ा करने पर तुम सज़ा - ए - मौत हमे, 
पर ये बताओ फिर कभी अपने किए पर पछताओगे 
क्या।। 

नादान थे जो इनसे इक-दूजे को माँगा किए

ये चाँदनी रात कुछ देर में ढल जाएंगी,

इश्क़ की कहानी आज ये आँखें दोहराएंगी। 
इन टूटते तारों से शिकवा-गिला क्या करे, 
नादान थे जो इनसे इक-दूजे को माँगा किए।

Tuesday, June 20, 2023

व्यथित है मेरा हृदय-प्रदेश, चलूँ उसको बहलाऊँ आज

व्यथित है मेरा हृदय-प्रदेश, 

चलूँ उसको बहलाऊँ आज

बताकर अपना दुख-सुख उसे 
हृदय का भार हटाऊँ आज॥ 

चलूँ माँ के पद-पंकज पकड़ 
नयन जल से नहलाऊँ आज। 
मातृ-मंदिर में—मैंने कहा— 
चलूँ दर्शन कर आऊँ आज॥ 

किंतु यह हुआ अचानक ध्यान 
दीन हूँ, छोटी हूँ, अज्ञान! 
मातृ-मंदिर का दुर्गम मार्ग 
तुम्हीं बतला दो हे भगवान! 

मार्ग के बाधक पहरेदार 
सुना है ऊँचे-से सोपान। 
फिसलते हैं ये दुर्बल पैर 
चढ़ा दो मुझको हे भगवान्! 

अहा! वे जगमग-जगमग जगी 
ज्योतियाँ दीख रही हैं जहाँ। 
शीघ्रता करो, वाद्य बज उठे 
भला मैं कैसे जाऊँ वहाँ? 

सुनायी पड़ता है कल-गान 
मिला दूँ मैं भी अपनी तान। 
शीघ्रता करो, मुझे ले चलो 
मातृ-मंदिर में हे भगवान्! 

चलूँ, मैं जल्दी से बढ़ चलूँ 
देख लूँ माँ की प्यारी मूर्ति। 
अहा! वह मीठी-सी मुसकान 
जगाती होगी न्यारी स्फूर्ति॥ 

उसे भी आती होगी याद 
उसे? हाँ, आती होगी याद। 
नहीं तो रूठूँगी मैं आज 
सुनाऊँगी उसको फरियाद॥ 

कलेजा माँ का, मैं संतान, 
करेगी दोषों पर अभिमान। 
मातृ-वेदी पर घंटा बजा, 
चढ़ा दो मुझको हे भगवान्!! 

सुनूँगी माता की आवाज़, 
रहूँगी मरने को तैयार। 
कभी भी उस वेदी पर देव! 
न होने दूँगी अत्याचार!! 

न होने दूँगी अत्याचार 
चलो, मैं हो जाऊँ बलिदान। 
मातृ-मंदिर में हुई पुकार 
चढ़ा दो मुझको हे भगवान्॥




सुभद्राकुमारी चौहान 

अपने हाथों की लकीरों में सजा ले मुझ को


अपने हाथों की लकीरों में सजा ले मुझ को


मैं हूँ तेरा तू नसीब अपना बना ले मुझ को 

मैं जो काँटा हूँ तो चल मुझ से बचा कर दामन 
मैं हूँ गर फूल तो जूड़े में सजा ले मुझ को 

तर्क-ए-उल्फ़त की क़सम भी कोई होती है क़सम 
तू कभी याद तो कर भूलने वाले मुझ को 

मुझ से तू पूछने आया है वफ़ा के मा'नी 
ये तिरी सादा-दिली मार न डाले मुझ को 

मैं समुंदर भी हूँ मोती भी हूँ ग़ोता-ज़न भी 
कोई भी नाम मिरा ले के बुला ले मुझ को 

तू ने देखा नहीं आईने से आगे कुछ भी 
ख़ुद-परस्ती में कहीं तू न गँवा ले मुझ को 

बाँध कर संग-ए-वफ़ा कर दिया तू ने ग़र्क़ाब 
कौन ऐसा है जो अब ढूँढ़ निकाले मुझ को 

ख़ुद को मैं बाँट न डालूँ कहीं दामन दामन 
कर दिया तू ने अगर मेरे हवाले मुझ को 

मैं खुले दर के किसी घर का हूँ सामाँ प्यारे 
तू दबे-पाँव कभी आ के चुरा ले मुझ को 

कल की बात और है मैं अब सा रहूँ या न रहूँ 
जितना जी चाहे तिरा आज सता ले मुझ को 

बादा फिर बादा है मैं ज़हर भी पी जाऊँ 'क़तील' 
शर्त ये है कोई बाँहों में सँभाले मुझ को


क़तील शिफ़ाई

Monday, June 19, 2023

प्यार तुम आ जाना

प्यार तुम आ जाना

ठंडी हवाओं के लिबास में 
सिहर उठे मन, बाँध लूँ बाँहों में 
प्यार तुम आ जाना 
खिलतें फूलों के ताज़गी में 
खिल उठे चेहरा, हंस पडूँ राहों में 
प्यार तुम आ जाना 
उगते सूरज के किरणों में 
खोल दूँ झरोखें, समां लूँ तन में 
प्यार तुम आ जाना 
चहकते पंछियों के गीत में 
बंद कर लूं आँखें उतार लूँ मन में 
प्यार तुम आ जाना 
डोलते फसलों के बालियों में 
लेट कर जिन पर, खो जाऊं सपनों में 
प्यार तुम आ जाना 
बादलों में बरसात लिए 
उड़ते पंछियों में आस लिए 
नाचते मोर में रास लिये 
नृत्यों में झंकार लिए 
गीतों में अलफ़ाज़ लिए 
रग रग में समा जाना, 
कण कण में बस जाना 
सांसों में उतर जाना 
जीवन बन जाना 
की प्यार हो 
बस प्यार हो।

भुला भी दे उसे जो बात हो गई प्यारे

भुला भी दे उसे जो बात हो गई प्यारे, 

नए चराग़ जला रात हो गई प्यारे


तिरी निगाह-ए-पशेमाँ को कैसे देखूँगा 
कभी जो तुझ से मुलाक़ात हो गई प्यारे 

न तेरी याद न दुनिया का ग़म न अपना ख़याल 
अजीब सूरत-ए-हालात हो गई प्यारे 

उदास उदास हैं शमएँ बुझे बुझे साग़र 
ये कैसी शाम-ए-ख़राबात हो गई प्यारे 

वफ़ा का नाम न लेगा कोई ज़माने में 
हम अहल-ए-दिल को अगर मात हो गई प्यारे 

तुम्हें तो नाज़ बहुत दोस्तों पे था 'जालिब' 
अलग-थलग से हो क्या बात हो गई प्यारे


Habib Jalib

रह गई याद, हो गए तनहा

रह गई याद हो गए तनहा

सितम करता वक़्त लम्हा लम्हा 
करना था या नहीं करना था 
वो बात आज धीऱे से जो महसूस हुई 
वो बात आज मैं तुमसे कहुँ कैसे 

ढूढ़ना था या कहीं ख़ुदको खोना था 
वो राह आज चुपकेसे जो मोड़ गई 
वो राह से आज मैं तुमको पुकारूँ कैसे 

मिलना था या कहीं तनहा रहना था 
वो छाँव आज चुपकेसे छोड़ गई 
वो छाँव में आज मैं तुमको लाऊँ कैसे

जब भी उनको करीब देखा है

जब भी उनको करीब देखा है

पहले अपना नसीब देखा है। 

पिसा जो मकसदों की चक्की में 
सबसे ज्यादा गरीब देखा है। 

कहा उसने की ग़ज़ल पूरी है 
काफिया न रदीफ़ देखा है 

आग में झोंक पूरी बस्ती को 
दूर बैठा शरीफ देखा है 

शफा न कर सका दवाओं से 
हमने सालों तबीब देखा है 

न वो बोला न उसके हाथ हिले 
यूँ भी जाता हबीब देखा है। 

जिन के आँगन में अमीरी का शजर लगता है

जिन के आँगन में अमीरी का शजर लगता है


उन का हर ऐब ज़माने को हुनर लगता है 

चाँद तारे मिरे क़दमों में बिछे जाते हैं 
ये बुज़ुर्गों की दुआओं का असर लगता है 

माँ मुझे देख के नाराज़ न हो जाए कहीं 
सर पे आँचल नहीं होता है तो डर लगता है 


Anjum Rehbar

Saturday, June 17, 2023

वे मुस्काते फूल नहीं, जिनको आता है मुरझाना

1)

मधुबेला है आजमधुबेला है आजअरे तू जीवन-पाटल फूल!

आई दुख की रात मोतियों की देने जयमालसुख की मंद बतास खोखली पलकें देदे ताल;

डर मत रे सुकुमार!तुझे दुलराने आये शूल!

अरे तू जीवन-पाटल फूल!

भिक्षुक सा यह विश्व खड़ा है पाने करुणा प्यार;हंस उठ रे नादान खोल दे पंखुरियों के द्वार;

रीते कर ले कोषनहीं कल सोना होगा धूल!

अरे तू जीवन-पाटल फूल!

2)
झिलमिलाती रातझिलमिलाती रात मेरी!

सांझ के अंतिम सुनहलेहास सी चुपचाप आकर,मूक चितवन की विभा-तेरी अचानक छू गई भर;

बन गई दीपावली तब आंसुओं की पांत मेरी!

अश्रु घन के बन रहे स्मित-सुप्त वसुधा के अधर परकंज में साकार होतेवीचियों के स्वप्न सुंदर,

मुस्कुरा दी दामिनी में सांवली बरसात मेरी!

क्यों इसे अंबर न निजसूने हृदय में आज भर ले?क्यों न यह जड़ में पुलक का,प्राण का संचार कर ले?

है तुम्हारे श्वास के मधु-भार-मंथर वात मेरी!

3)
क्यों मुझे प्रिय!क्यों मुझे प्रिय हो न बंधन!

बन गया तम-सिन्धु का, आलोक सतरंगी पुलिन-सा;रजभरे जग बाल से हैं; अंक विद्युत का मलिन-सा;

स्मृति पदल पर कर रहा अबवह स्वयं निज रूप-अंकन!

चांदनी मेरी अमा का, भेंट कर अभिषेक करती;मृत्यु-जीवन के पुलिन दो आज जागृत एक करती,

हो गया अब दूत प्रिय काप्राण का संदेश, स्पंदन!

सजनि मैंने स्वर्ण-पिंजर में प्रलय का वात पाला;आज पुंजीभूत तम को कर, बना डाला उजाला;

तूल से उर में समा करहो रही नित ज्वाल चंदन!

आज विस्मृत-पंथ में निधि से मिले पद-चिन्ह उनकेवेदना लौटा रही है विफल खोये स्वप्न गिनके;

घुल हुई इन लोचनों मेंचिर प्रतीक्षा पूत अंजन!

आज मेरा खोज-खग गाता चला लेने बसेरा;कह रहा सुख अश्रु से ‘तू है चिरंतन प्यार मेरा’,

बन गए बीते युगों केविकल मेरे श्वास स्पंदन!

बीन-बंदी तार की झंकार है आकाशचारी;धूलि के इस मलिन दीपक से बंधा है तिमिरहारी

बांधती निर्बंध को मैंबंदिनी निज बेड़ियां गिन!

नित सुनहली सांझ के पद से लिपट आता अंधेरा!पुलख-पंखी विरह पर उड़ आ रहा है मिलन मेरा;

कौन जाने है बसा उस पारतम या रागमय दिन!

4)
मेरे गीले नयनप्रिय मेरे गीले नयन बनेंगे आरती!

श्वास में सपने कर गुम्फित,बंदनवार वेदना-चर्चित,भर दुख से जीवन का घट नितमूक क्षणों में मधुर भरूंगी भारती!

दृग मेरे दो दीपक झिलमिल,भर आंसू का स्नेह रहा ठुल,सुधि तेरी अविराम रही जल,पद-ध्वनि पर आलोग रहूंगी वारती!

यह लो प्रिय! निधियोंमय जीवन,जग अक्षय स्मृतियों का धन,सुख-सोना करुणा-हीरक-कण,तुमझे जीता आज तुम्हीं को हारती!

5)
अधिकारवे मुस्काते फूल, नहीं-जिनको आता है मुरझाना,वे तारों के दीप, नहीं-जिनको भाता है बुझ जाना;

वे नीलम के मेघ, नहीं-जिनको है घुल जाने की चाह,वह अनंत- ऋतुराज, नहीं-जिसने देखी जाने की राह.

वे सूने से नयन, नहीं-जिनमें बनते आंसू-मोती,वह प्राणों की सेज, नहींजिसमें बेसुध पीड़ा सोती;

ऐसा तेरा लोक, वेदना-नहीं नहीं जिसमें अवसाद,जलना जाना नहीं, नहीं-जिसने जाना मिटने का स्वाद!

क्या अमरों का लोक मिलेगातोरी करुणा का उपहार?रहने दो हे देव! अरेयह मेरे मिटने का अधिकार!

महादेवी वर्मा 

इस से पहले कि बिछड़ जाएँ हम, दो-क़दम और मिरे साथ चलो

इस से पहले कि बिछड़ जाएँ हम

दो-क़दम और मिरे साथ चलो 

अभी देखा नहीं जी-भर के तुम्हें 
अभी कुछ देर मिरे पास रहो 

मुझ सा फिर कोई न आएगा यहाँ 
रोक लो मुझ को अगर रोक सको 

यूँ न गुज़रेगी शब-ए-ग़म 'नासिर' 
उस की आँखों की कहानी छेड़ो 



Nasir Kazmi

ना जाने किस आस में हूं।

ना जाने किस आस में हूं।

ना जाने किस प्यास में हूं II 

दिल को मना लेता हूं I 
खुद को समझा लेता हूं II 

दिन को भी चैन कहां I 
रातें भी बेचैन यहां II 

हर दिन वही बात दोहराता हूं I 
ना जाने क्या बताना चाहता हूं II 

किस किस का विश्वास करूं I 
क्यों उसका इंतज़ार करूँ II 

अधुरी है सब खवाहिशे यहां I 
बहुत सी हैं, शिकायतें यहां II 

ना जाने किस आग में हूं। 
ना जाने किस प्यास में हूं II 

देर से दूर से ये कौन बुलाता है मुझे

दिल में रखता है न पलकों पे बिठाता है मुझे 

फिर भी इक शख़्स में क्या क्या नज़र आता है मुझे 

रात का वक़्त है सूरज है मिरा राह-नुमा 
देर से दूर से ये कौन बुलाता है मुझे 

मेरी इन आँखों को ख़्वाबों से पशेमानी है 
नींद के नाम से जो हौल सा आता है मुझे 
तेरा मुंकिर नहीं ऐ वक़्त मगर देखना है 
बिछड़े लोगों से कहाँ कैसे मिलाता है मुझे 

क़िस्सा-ए-दर्द में ये बात कहाँ से आई 
मैं बहुत हँसता हूँ जब कोई सुनाता है मुझे 




Shahryar