Tuesday, June 20, 2023

अपने हाथों की लकीरों में सजा ले मुझ को


अपने हाथों की लकीरों में सजा ले मुझ को


मैं हूँ तेरा तू नसीब अपना बना ले मुझ को 

मैं जो काँटा हूँ तो चल मुझ से बचा कर दामन 
मैं हूँ गर फूल तो जूड़े में सजा ले मुझ को 

तर्क-ए-उल्फ़त की क़सम भी कोई होती है क़सम 
तू कभी याद तो कर भूलने वाले मुझ को 

मुझ से तू पूछने आया है वफ़ा के मा'नी 
ये तिरी सादा-दिली मार न डाले मुझ को 

मैं समुंदर भी हूँ मोती भी हूँ ग़ोता-ज़न भी 
कोई भी नाम मिरा ले के बुला ले मुझ को 

तू ने देखा नहीं आईने से आगे कुछ भी 
ख़ुद-परस्ती में कहीं तू न गँवा ले मुझ को 

बाँध कर संग-ए-वफ़ा कर दिया तू ने ग़र्क़ाब 
कौन ऐसा है जो अब ढूँढ़ निकाले मुझ को 

ख़ुद को मैं बाँट न डालूँ कहीं दामन दामन 
कर दिया तू ने अगर मेरे हवाले मुझ को 

मैं खुले दर के किसी घर का हूँ सामाँ प्यारे 
तू दबे-पाँव कभी आ के चुरा ले मुझ को 

कल की बात और है मैं अब सा रहूँ या न रहूँ 
जितना जी चाहे तिरा आज सता ले मुझ को 

बादा फिर बादा है मैं ज़हर भी पी जाऊँ 'क़तील' 
शर्त ये है कोई बाँहों में सँभाले मुझ को


क़तील शिफ़ाई

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