Thursday, December 29, 2022

मैं बहुत कुछ सोचता रहता हूँ पर कहता नहीं - दुष्यंत कुमार

आगे निकल गए हैं घिसटते हुए क़दम
राहों में रह गए हैं निशाँ और भी ख़राब 


माथे पे रख के हाथ बहुत सोचते हो तुम
गंगा क़सम बताओ हमें क्या है माजरा 


उन का कहीं जहाँ में ठिकाना नहीं रहा
हम को तो मिल गया है अदब में मक़ाम और 


जाने किस किस का ख़याल आया है
इस समुंदर में उबाल आया है 

एक बूढ़ा आदमी है मुल्क में या यूँ कहो
इस अँधेरी कोठरी में एक रौशन-दान है


मैं बहुत कुछ सोचता रहता हूँ पर कहता नहीं
बोलना भी है मना सच बोलना तो दरकिनार 

एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी
ये अँधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है


यहाँ तक आते आते सूख जाती है कई नदियाँ
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा 

सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मिरा मक़्सद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए 


अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं 


दुष्यंत क़ुमार

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