Friday, February 25, 2022

बर्फ़ जब पिघलती है उस की नर्म पलकों पर

धूप सात रंगों में फैलती है आँखों पर
बर्फ़ जब पिघलती है उस की नर्म पलकों पर

फिर बहार के साथी आ गए ठिकानों पर
सुर्ख़ सुर्ख़ घर निकले सब्ज़ सब्ज़ शाख़ों पर

जिस्म ओ जाँ से उतरेगी गर्द पिछले मौसम की
धो रही हैं सब चिड़ियाँ अपने पँख चश्मों पर

सारी रात सोते में मुस्कुरा रहा था वो
जैसे कोई सपना सा काँपता था होंटों पर

तितलियाँ पकड़ने में दूर तक निकल जाना
कितना अच्छा लगता है फूल जैसे बच्चों पर

लहर लहर किरनों को छेड़ कर गुज़रती है
चाँदनी उतरती है जब शरीर झरनों पर

परवीन शाकिर

Thursday, February 24, 2022

तुझ से माँगूँ मैं तुझी को कि सभी कुछ मिल जाए

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ
ढूँढ़ने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ

तुझ से माँगूँ मैं तुझी को कि सभी कुछ मिल जाए
सौ सवालों से यही एक सवाल अच्छा है 

सारी दुनिया के हैं वो मेरे सिवा
मैं ने दुनिया छोड़ दी जिन के लिए 


हँस के फ़रमाते हैं वो देख के हालत मेरी
क्यूँ तुम आसान समझते थे मोहब्बत मेरी 

हटाओ आइना उम्मीद-वार हम भी हैं
तुम्हारे देखने वालों में यार हम भी हैं 


दुनिया से अलग जो हो रहे हैं
तकियों में मज़े से सो रहे हैं 

कैसे नादाँ हैं जो अच्छों को बुरा कहते हैं
हो बुरा भी तो उसे चाहिए अच्छा कहना 


कश्तियाँ सब की किनारे पे पहुँच जाती हैं
नाख़ुदा जिन का नहीं उन का ख़ुदा होता है 

फिर बैठे बैठे वादा-ए-वस्ल उस ने कर लिया
फिर उठ खड़ा हुआ वही रोग इंतिज़ार का


मिरा ख़त उस ने पढ़ा पढ़ के नामा-बर से कहा
यही जवाब है इस का कोई जवाब नहीं

अमीर मीनाई

मिरे दिल के किसी कोने में इक मासूम सा बच्चा

मिरे दिल के किसी कोने में इक मासूम सा बच्चा
बड़ों की देख कर दुनिया बड़ा होने से डरता है

मैं ज़रा भी नहीं उस में लेकिन
मुझ में वो सारा का सारा मौजूद 

कोशिश तो है कि ज़ब्त को रुस्वा करूँ नहीं
हँस कर मिलूँ सभी से किसी पर खुलूँ नहीं 


कितनी आसानी से दुनिया की गिरह खोलता है
मुझ में इक बच्चा बुज़ुर्गों की तरह बोलता है 

सुख-चैन मिरा लूटने वाले आ किसी दिन
मुझ को भी चुरा ले मिरी नींदों की तरह तू


दरवाज़े के अंदर इक दरवाज़ा और
छुपा हुआ है मुझ में जाने क्या क्या और

दिन को दिन रात को मैं रात न लिखने पाऊँ
उन की कोशिश है कि हालत न लिखने पाऊँ 


कहीं खो दिया कहीं पा लिया कहीं रो लिया कहीं गा लिया
कहीं छीन लेती है हर ख़ुशी कहीं मेहरबाँ बे-हिसाब है

ये कब चाहा कि मैं मशहूर हो जाऊँ
बस अपने आप को मंज़ूर हो जाऊँ 


किसी दिन ज़िंदगानी में करिश्मा क्यूँ नहीं होता
मैं हर दिन जाग तो जाता हूँ ज़िंदा क्यूँ नहीं होता

राजेश रेड्डी

रोग ऐसे भी ग़म-ए-यार से लग जाते हैं

अहमद फ़राज़: 

रोग ऐसे भी ग़म-ए-यार से लग जाते हैं
दर से उठते हैं तो दीवार से लग जाते हैं

इश्क़ आग़ाज़ में हल्की सी ख़लिश रखता है
बाद में सैकड़ों आज़ार से लग जाते हैं

पहले पहले हवस इक-आध दुकाँ खोलती है
फिर तो बाज़ार के बाज़ार से लग जाते हैं

बेबसी भी कभी क़ुर्बत का सबब बनती है
रो न पाएँ तो गले यार से लग जाते हैं

कतरनें ग़म की जो गलियों में उड़ी फिरती हैं
घर में ले आओ तो अम्बार से लग जाते हैं

दाग़ दामन के हों दिल के हों कि चेहरे के 'फ़राज़'
कुछ निशाँ उम्र की रफ़्तार से लग जाते हैं

वो शख़्स तो शहर ही छोड़ गया मैं बाहर जाऊँ किस के लिए

नए कपड़े बदल कर जाऊँ कहाँ और बाल बनाऊँ किस के लिए
वो शख़्स तो शहर ही छोड़ गया मैं बाहर जाऊँ किस के लिए

जिस धूप की दिल में ठंडक थी वो धूप उसी के साथ गई
इन जलती बलती गलियों में अब ख़ाक उड़ाऊँ किस के लिए

वो शहर में था तो उस के लिए औरों से भी मिलना पड़ता था
अब ऐसे-वैसे लोगों के मैं नाज़ उठाऊँ किस के लिए

अब शहर में उस का बदल ही नहीं कोई वैसा जान-ए-ग़ज़ल ही नहीं
ऐवान-ए-ग़ज़ल में लफ़्ज़ों के गुल-दान सजाऊँ किस के लिए

मुद्दत से कोई आया न गया सुनसान पड़ी है घर की फ़ज़ा
इन ख़ाली कमरों में 'नासिर' अब शम्अ जलाऊँ किस के लिए

Tuesday, February 15, 2022

दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना

इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना 
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना 

आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे 
ऐसा कहाँ से लाऊँ कि तुझ सा कहें जिसे 

बे-ख़ुदी बे-सबब नहीं 'ग़ालिब' 
कुछ तो है जिस की पर्दा-दारी है 
 
आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए 
साहब को दिल न देने पे कितना ग़ुरूर था 

रोने से और इश्क़ में बे-बाक हो गए 
धोए गए हम इतने कि बस पाक हो गए