बर्फ़ जब पिघलती है उस की नर्म पलकों पर
फिर बहार के साथी आ गए ठिकानों पर
सुर्ख़ सुर्ख़ घर निकले सब्ज़ सब्ज़ शाख़ों पर
जिस्म ओ जाँ से उतरेगी गर्द पिछले मौसम की
धो रही हैं सब चिड़ियाँ अपने पँख चश्मों पर
सारी रात सोते में मुस्कुरा रहा था वो
जैसे कोई सपना सा काँपता था होंटों पर
तितलियाँ पकड़ने में दूर तक निकल जाना
कितना अच्छा लगता है फूल जैसे बच्चों पर
लहर लहर किरनों को छेड़ कर गुज़रती है
चाँदनी उतरती है जब शरीर झरनों पर
परवीन शाकिर