raat aa kar guzar bhi jaati hai
ik hamaari sahar nahin hoti
~Ibn-e-Insha
अपनी भी ज़िंदगी में वो मुक़ाम आएगा
हम सहर पे निकलेंगे और शाम आएगा
————-
Gham-e-hasti ka 'asad' kis se ho juz marg ilaaj
Sham'a har rang mei jalti hai sahar hone tak
————-
तन्हाई से लिपटी हुई ख़ामोश सियाह रात
इस आस में बैठी है कि आएगी सहर भी
—————
सहर है जो रोज झूटे ख़्वाब दिखाती है
और शाम रोज इंतज़ार में कट जाती है
------------
ये दाग़ दाग़ उजाला , ये शब ग़ज़ीदा सहर
वो इंतिज़ार था जिसका ये वो सहर तो नहीं
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
-----------
शब-ए-इंतिज़ार की कश्मकश में न पूछ कैसे सहर हुई
कभी इक चराग़ जला दिया कभी इक चराग़ बुझा दिया
मजरूह सुल्तानपुरी
No comments:
Post a Comment