Sunday, February 28, 2021

बाबा ! मुझे उतनी दूर मत ब्याहना

निर्मला पुतुल की कविता: 
बाबा ! मुझे उतनी दूर मत ब्याहना

बाबा! 
मुझे उतनी दूर मत ब्याहना 
जहाँ मुझसे मिलने जाने ख़ातिर 
घर की बकरियाँ बेचनी पड़े तुम्हें 

मत ब्याहना उस देश में 
जहाँ आदमी से ज़्यादा 
ईश्वर बसते हों 

जंगल नदी पहाड़ नहीं हों जहाँ 
वहाँ मत कर आना मेरा लगन 
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वहाँ तो क़तई नहीं 
जहाँ की सड़कों पर 
मन से भी ज़्यादा तेज़ दौड़ती हों मोटरगाड़ियाँ 
ऊँचे-ऊँचे मकान और 
बड़ी-बड़ी दुकानें 

उस घर से मत जोड़ना मेरा रिश्ता 
जिस में बड़ा-सा खुला आँगन न हो 
मुर्ग़े की बाँग पर होती नहीं हो जहाँ सुबह 
और शाम पिछवाड़े से जहाँ 
पहाड़ी पर डूबता सूरज न दिखे 
मत चुनना ऐसा वर 
जो पोचई और हड़िया में डूबा रहता हो अक्सर 
काहिल-निकम्मा हो 
माहिर हो मेले से लड़कियाँ उड़ा ले जाने में 
ऐसा वर मत चुनना मेरी ख़ातिर 
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कोई थारी-लोटा तो नहीं 
कि बाद में जब चाहूँगी बदल लूँगी 
अच्छा-ख़राब होने पर 

जो बात-बात में 
बात करे लाठी-डंडा की 
निकाले तीर-धनुष, कुल्हाड़ी 
जब चाहे चला जाए बंगाल, असम या कश्मीर 
ऐसा वर नहीं चाहिए हमें 
और उसके हाथ में मत देना मेरा हाथ 
जिसके हाथों ने कभी कोई पेड़ नहीं लगाए 
फ़सलें नहीं उगाईं जिन हाथों ने 
जिन हाथों ने दिया नहीं कभी किसी का साथ 
किसी का बोझ नहीं उठाया 

और तो और! 
जो हाथ लिखना नहीं जानता हो ‘ह’ से हाथ 
उसके हाथ मत देना कभी मेरा हाथ !
ब्याहना हो तो वहाँ ब्याहना 
जहाँ सुबह जाकर 
शाम तक लौट सको पैदल 
मैं जो कभी दुख में रोऊँ इस घाट 
तो उस घाट नदी में स्नान करते तुम 
सुनकर आ सको मेरा करुण विलाप 

महुआ की लट और 
खजूर का गुड़ बनाकर भेज सकूँ संदेश तुम्हारी ख़ातिर 
उधर से आते-जाते किसी के हाथ 
भेज सकूँ कद्दू-कोहड़ा, खेखसा, बरबट्टी 
समय-समय पर गोगो के लिए भी 
मेला-हाट-बाज़ार आते-जाते 
मिल सके कोई अपना जो 
बता सके घर-गाँव का हाल-चाल 
चितकबरी गैया के बियाने की ख़बर 
दे सके जो कोई उधर से गुज़रते 
ऐसी जगह मुझे ब्याहना! 

उस देश में ब्याहना 
जहाँ ईश्वर कम आदमी ज़्यादा रहते हों 
बकरी और शेर 
एक घाट पानी पीते हों जहाँ 
वहीं ब्याहना मुझे ! 
उसी के संग ब्याहना जो 
कबूतर के जोड़े और पंडुक पक्षी की तरह 
रहे हरदम हाथ 
घर-बाहर खेतों में काम करने से लेकर 
रात सुख-दुख बाँटने तक 
चुनना वर ऐसा 
जो बजाता हो बाँसुरी सुरीली 
और ढोल-माँदल बजाने में हो पारंगत 

वसंत के दिनों में ला सके जो रोज़ 
मेरे जूड़े के ख़ातिर पलाश के फूल 

जिससे खाया नहीं जाए 
मेरे भूखे रहने पर 
उसी से ब्याहना मुझे !


किसी की मृत्यु पर होने वाला शोक या दुख को विलाप कहते हैं, किन्हीं और दुखद परिस्थितियों में प्रकट की जाने वाली निराशा भी विलाप के दायरे में ही आती है।

यूँ तो वो हर किसी से मिलती है

यूँ तो वो हर किसी से मिलती है 
हम से अपनी ख़ुशी से मिलती है 

सेज महकी बदन से शर्मा कर 
ये अदा भी उसी से मिलती है 

वो अभी फूल से नहीं मिलती 
जूहिए की कली से मिलती है 

दिन को ये रख-रखाव वाली शक्ल 
शब को दीवानगी से मिलती है 

आज-कल आप की ख़बर हम को! 
ग़ैर की दोस्ती से मिलती है 

शैख़-साहिब को रोज़ की रोटी 
रात भर की बदी से मिलती है 

आगे आगे जुनून भी होगा ! 
शेर में लौ अभी से मिलती है 

Friday, February 26, 2021

एक शख़्स जो सच-मुच ख़ुदाओं जैसा है

कभी वो हाथ न आया हवाओं जैसा है 
वो एक शख़्स जो सच-मुच ख़ुदाओं जैसा है 

हमारी शम-ए-तमन्ना भी जल के ख़ाक हुई 
हमारे शो'लों का आलम चिताओं जैसा है 

वो बस गया है जो आ कर हमारी साँसों में 
जभी तो लहजा हमारा दुआओं जैसा है 

तुम्हारे बा'द उजाले भी हो गए रुख़्सत 
हमारे शहर का मंज़र भी गाँव जैसा है 

वो एक शख़्स जो हम से है अजनबी अब तक 
ख़ुलूस उस का मगर आश्नाओं जैसा है 

हमारे ग़म में वो ज़ुल्फ़ें बिखर गईं 'नासिर' 
जभी तो आज का मौसम भी छाँव जैसा है

रख साफ़गोई इतनी कि कभी बेजुबां ना होना पड़े

रख साफ़गोई इतनी कि
कभी बेजुबां ना होना पड़े,

करले गुनाहों से तौबा के
कभी पशेमां ना होना पड़े!

Wednesday, February 24, 2021

और कुछ लोग भी दीवाना बना देते हैं

तल्ख़ शिकवे लब-ए-शीरीं से मज़ा देते हैं
घोल कर शहद में वो ज़हर पिला देते हैं

यूँ तो होते हैं मोहब्बत में जुनूँ के आसार
और कुछ लोग भी दीवाना बना देते हैं

वाए-तक़दीर कि वो ख़त मुझे लिख लिख के 'ज़हीर'
मेरी तक़दीर के लिक्खे को मिटा देते हैं

ज़हीर देहलवी

मोहब्बत यारों जुनूँ का काम नहीं
ये वो सफ़र है जिस में आराम नहीं

तुझे देखने का जुनून--और भी गहरा होता है ,,¡¡
जब तेरे रुखसार पे ज़ुल्फ़ों का पहरा होता है..!

वो किसी से तुम को जो रब्त था तुम्हें याद हो कि न याद हो
वो किसी पे था कोई मुब्तिला तुम्हें याद हो कि न याद हो !!

#जहीर_देहलवी

बुतों से बंचके चलने पर भी आफ़त आ ही जाति हैं ये काफिर वो क़यामत हैं तबियत आ भी जाति हैं 
 ~~ज़हीर देहलवी

इश्क़ का रोग कि दोनों से छुपाया न गया
हम थे सौदाई तो कुछ वो भी दीवाने निकले
-कुमार पाशी

ज़िंदगी पर इस से बढ़ कर तंज़ क्या होगा 'फ़राज़' 
उस का ये कहना कि तू शाएर है दीवाना नहीं

अहमद फ़राज़

"अहले-ख़िरद क्या जाने उनको, उनकी भी मजबूरी है,
इश्क़ में कुछ पागल सा होना शायद बहुत ज़रूरी है।"







ये रिश्ता मोहब्बत का, बिखरता ही नहीं शायद.

हद है अपनी तरफ़ नहीं मैं भी 
और उन की तरफ़ ख़ुदाई है 

जौश मलीहाबादी

मोहब्बत की तो कोई हद, कोई सरहद नहीं होती
हमारे दरमियाँ ये फ़ासले, कैसे निकल आए

ख़ालिद मोईन

‏‎ज़ालिम के हमराह था सारा जहाँ
मज़्लूम की हिमायत में बस उसका खुदा


अब तक न ख़बर थी मुझे उजड़े हुए घर की 
वो आए तो घर बे-सर-ओ-सामाँ नज़र आया 
~जोश मलीहाबादी

ये दिन बहार के अब के भी
रास न आ सके
कि गुंचे खिल तो सके
खिल के मुस्कुरा न सके
-जोश मलीहाबादी

ये रिश्ता मोहब्बत का, बिखरता ही नहीं शायद.
गिले सब भूल कर जो, अगर मुस्कुरा देते.


Tuesday, February 23, 2021

सबके पीछे बंधी है दुम आसक्ति की !

भवानी प्रसाद मिश्र की कविता- 
सबके पीछे बंधी है दुम आसक्ति की !

ना निरापद कोई नहीं है
न तुम, न मैं, न वे
न वे, न मैं, न तुम
सबके पीछे बंधी है दुम आसक्ति की !


आसक्ति के आनन्द का छंद ऐसा ही है
इसकी दुम पर
पैसा है !


ना निरापद कोई नहीं है
ठीक आदमकद कोई नहीं है
न मैं, न तुम, न वे
न तुम, न मैं, न वे
कोई है कोई है कोई है
जिसकी ज़िंदगी
दूध की धोई है

ना, दूध किसी का धोबी नहीं है
हो तो भी नहीं है!

निरापद' यानि जिसमें कोई संकट या आपत्ति ना हो या सुरक्षित। इसके अतिरिक्त जिसमें हानि या अनर्थ का डर ना हो उसे भी निरापद कहते हैं।

इश्क प्यार शायरी

इस उलझन को सुलझाने की कौन सी है तदबीर लिखो
इश्क़ अगर है जुर्म तो मुजरिम राँझा है या हीर लिखो
इलियास इश्क़ी
【तदबीर=उपाय】


उस की आँखों के अगर वस्फ़ रक़म कीजिएगा
शाख़-ए-नर्गिस को क़लम कर के क़लम कीजिएगा
इश्क़ औरंगाबादी
【वस्फ़=प्रशंसा,शाख़-ए-नर्गिस=नर्गिस जो कि फूल की प्रजाति है उस की डाली,क़लम=काटना,पेन】

ज़ुल्फ़ की शाम सुब्ह चेहरे की
यही मौसम जनाब दे दीजे
साबिर दत्त

हुस्न को हुस्न बनाने में मिरा हाथ भी है
आप मुझ को नज़र-अंदाज़ नहीं कर सकते
रईस फ़रोग़

दौलत है बड़ी चीज़ हुकूमत है बड़ी चीज़ इन सब से बशर के लिए इज़्ज़त है बड़ी चीज़... जब ज़िक्र किया मैं ने कभी वस्ल का उन से वो कहने लगे पाक मोहब्बत है बड़ी चीज़... 
नूह नारवी
【बशर=इंसान,वस्ल=मुलाक़ात】

मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का 
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब

मेरे होने में किसी तौर से शामिल हो जाओ 
तुम मसीहा नहीं होते हो तो क़ातिल हो जाओ 
इरफ़ान सिद्दीक़ी

कौन कहता है कि दिल सिर्फ सीने में होता है 
तुमको लिखूँ तो मेरी उँगलियाँ भी धड़कती हैं
अज्ञात

रात भर चाँद सितारों की मदद लेता हूँ !!
आसमा पर तेरी तस्वीर बनाने के लिए !!
नासिर अमरोहवी

लगने दो महफिल आज शायरी की जुबां करते हैं 
तुम गालिब की किताब उठाओ,हम हाले दिल बयाँ करते हैं 
अज्ञात

जिस गौहर को छुपाये फ़िरते हो आँखों में
 ये सच है उन्हीं आँखों की हम चाह करें हैं
अज्ञात
【गौहर=मोती】

उस वक़्त का हिसाब क्या दूँ 
जो तेरे बग़ैर कट गया 
अहमद नदीम क़ासमी

राह की कुछ तो रुकावट यार कम कर दीजिए 
आप अपने घर की इक दीवार कम कर दीजिए 
आप का आशिक़ बहुत कमज़ोर दिल के है हुज़ूर देखिए 
ये शिद्दत-ए-इन्कार कम कर दीजिए 
बस मोहब्बत बस मोहब्बत बस मोहब्बत जान-ए-मन 
बाक़ी सब जज़्बात का इज़हार कम कर दीजिए
फ़रहत एहसास
【शिद्दत-ए-इन्कार =मनाही की अधिकता】

सुरमें से लिखे तेरे वादे आँखों की ज़बानी आते हैं 
तेरी बातों में किमाम की खुशबू है तेरा आना भी गर्मियों की लू है 
गुलज़ार

इज़हार-ए-मुद्दआ का इरादा था आज कुछ
तेवर तुम्हारे देख के ख़ामोश हो गया
शाद अज़ीमाबादी
【इज़हार-ए-मुद्दआ=इच्छाओं की अभिव्यक्ति】

तुझको मैं अपना संसार लिखूं........

तुझे इश्क़ लिखूं तुझे प्यार लिखूं ,
तुझको मैं अपना संसार लिखूं........

तुझे प्रेम कहूं तुझको ही दुनिया,
तुझको अपना पालनहार लिखूं......

तुझे साथी बताऊं या परमेश्वर,
तुझे ईश्वर का उपहार लिखूं........

मुझे अश्क मिले तुझको खुशियां,
तेरे खातिर मैं अरदास लिखूं.........

मैं राम कहूं तुम हो कान्हा,
मैं मीरा सा इजहार लिखूं.........

सोचूं कुछ करूं कुछ और,
तुझको मैं हर बार लिखूं..........

आत्मविश्वास हिम्मत जोश शायरी

बंदा तो इस इकरार पै बिकता है तेरे हाथ,
लेना है अगर मोल तो आज़ाद न करना। 
- नज़्म तबातबाई

वही हक़दार हैं किनारों के,
जो बदल दें बहाव धारों के। 
- निसार इटावी 

ख़ुदा तौफीक़ देता है जिन्हें, वो यह समझते हैं,
कि ख़ुद अपने ही हाथों से बना करती हैं तक़दीरें। 
- अफ़सर मराठी 

मेरे टूटे हौसले के पर निकलते देख कर
उस ने दीवारों को अपनी और ऊंचा कर दिया। 
- आदिल मंसूरी  

हवा ख़फ़ा थी मगर इतनी संग-दिल भी न थी
हमीं को शमअ जलाने का हौसला न हुआ। 
- क़ैसर-उल जाफ़री 

देख यूं वक़्त की दहलीज़ से टकरा के न गिर,
रास्ते बंद नहीं सोचने वालों के लिए। 
- फारिग़ बुख़ारी

कहिए तो आसमां को ज़मीं पर उतार लाएं 
मुश्किल नहीं है कुछ भी अगर ठान लीजिए। 
- शहरयार 

इन अंधेरों से परे इस शब-ए-ग़म से आगे 
इक नई सुब्ह भी है शाम-ए-अलम से आगे 
- इशरत क़ादरी
 
साहिल के सुकूँ से किसे इंकार है लेकिन 
तूफ़ान से लड़ने में मज़ा और ही कुछ है 
- आल-ए-अहमद सूरूर

हार हो जाती है जब मान लिया जाता है 
जीत तब होती है जब ठान लिया जाता है 
- शकील आज़मी

होंटों पे मोहब्बत के फ़साने नहीं आते

होंटों पे मोहब्बत के फ़साने नहीं आते
साहिल पे समुंदर के ख़ज़ाने नहीं आते

पलकें भी चमक उठती हैं सोने में हमारी
आंखों को अभी ख़्वाब छुपाने नहीं आते

दिल उजड़ी हुई एक सराए की तरह है
अब लोग यहां रात जगाने नहीं आते

यारो नए मौसम ने ये एहसान किए हैं
अब याद मुझे दर्द पुराने नहीं आते

उड़ने दो परिंदों को अभी शोख़ हवा में
फिर लौट के बचपन के ज़माने नहीं आते

इस शहर के बादल तिरी ज़ुल्फ़ों की तरह हैं
ये आग लगाते हैं बुझाने नहीं आते

अहबाब भी ग़ैरों की अदा सीख गए हैं
आते हैं मगर दिल को दुखाने नहीं आते

बशीर बद्र 

दस्तक शायरी

रात भर कोई न दरवाज़ा खुला
दस्तकें देती रही पागल हवा
- इक़बाल नवेद


पहले दरवाज़े पे दस्तक दे लूं
फिर ये दीवार गिरा भी दूंगा
- इकराम तबस्सुम

हज़ार बार ख़ुद अपने मकां पे दस्तक दी
इक एहतिमाल में जैसे कि मैं ही अंदर था
- मुशफ़िक़ ख़्वाजा


तू ने दस्तक ही नहीं दी किसी दरवाज़े पर
वर्ना खुलने को तो दीवार में भी दर थे बहुत
- जलील हैदर लाशारी

दस्तक में कोई दर्द की ख़ुश्बू ज़रूर थी
दरवाज़ा खोलने के लिए घर का घर उठा
- क़ैसर-उल जाफ़री


एक मैं हूं और दस्तक कितने दरवाज़ों पे दूं
कितनी दहलीज़ों पे सज्दा एक पेशानी करे
- महताब हैदर नक़वी

दस्तक देने वाले तुझ को इल्म नहीं
दरवाज़े के दोनों जानिब ताला है
- मोहम्मद मुस्तहसन जामी


दिल पर दस्तक देने कौन आ निकला है
किस की आहट सुनता हूं वीराने में
- गुलज़ार

लम्हा लम्हा दस्तक दे कर तड़पाता है जाने कौन
रात गए मन-दरवाज़े पर आ जाता है जाने कौन
- इज़हार वारसी


ध्यान दस्तक पे लगा रहता है
और दरवाज़ा खुला रहता है
- प्रीतपाल सिंह बेताब

दुनिया वाले दिल वालों को और बहुत कुछ कहते हैं

दिल की बात लबों पर ला कर अब तक हम दुख सहते हैं
हम ने सुना था इस बस्ती में दिल वाले भी रहते हैं


हमें आवारा कहना कोई बड़ा इल्ज़ाम नहीं
दुनिया वाले दिल वालों को और बहुत कुछ कहते हैं

लोग डरते हैं दुश्मनी से तिरी
हम तिरी दोस्ती से डरते हैं


भुला भी दे उसे जो बात हो गई प्यारे
नए चराग़ जला रात हो गई प्यारे

कुछ लोग ख़यालों से चले जाएं तो सोएं
बीते हुए दिन रात न याद आएं तो सोएं


अब तुझ से हमें कोई तअल्लुक़ नहीं रखना
अच्छा हो कि दिल से तिरी यादें भी चली जाएं

वो देखने मुझे आना तो चाहता होगा
मगर ज़माने की बातों से डर गया होगा


हम ने दिल से तुझे सदा माना
तू बड़ा था तुझे बड़ा माना

इक उम्र सुनाएं तो हिकायत न हो पूरी
दो रोज़ में हम पर जो यहां बीत गई है


जिन की यादों से रौशन हैं मेरी आंखें
दिल कहता है उन को भी मैं याद आता हूं

-हबीब जालिब

Monday, February 22, 2021

जोश मलीहाबादी शायरी

दिल की चोटों ने कभी चैन से रहने न दिया
जब चली सर्द हवा मैं ने तुझे याद किया


शाइरी क्यूं न रास आए मुझे
ये मिरा फ़न्न-ए-ख़ानदानी है

छाई हुई है इश्क़ की फिर दिल पे बे-ख़ुदी
फिर ज़िंदगी को होश में लाए हुए हैं हम


तबस्सुम है वो होंटों पर जो दिल का काम कर जाए
उन्हें इस की नहीं परवा कोई मरता है मर जाए

आई जब स्टेज पर दुनिया तो दिल ख़ुश हो गया
जब उठा अंजाम का पर्दा तो नफ़रत हो गई


एक दिन कह लीजिए जो कुछ है दिल में आप के
एक दिन सुन लीजिए जो कुछ हमारे दिल में है

आड़े आया न कोई मुश्किल में
मशवरे दे के हट गए अहबाब


इस का रोना नहीं क्यूं तुम ने किया दिल बर्बाद
इस का ग़म है कि बहुत देर में बर्बाद किया

हां आसमान अपनी बुलंदी से होशियार
अब सर उठा रहे हैं किसी आस्तां से हम


उस ने वा'दा किया है आने का
रंग देखो ग़रीब ख़ाने का

क्या बात हो तुम

जो खत्म न हो वो शुरुआत हो तुम
मेरे दिल से न निकल पाई वो अनकही सी बात हो तुम
क्या बात हो तुम

में सूरज की रोशनी से सवेरा
पूर्णिमा की चाँदनी रात हो तुम
क्या बात हो तुम

जुलाई में ठंडी और दिसंबर में गर्मी करदे
वो बेमौसम बरसात हो तुम
क्या बात हो तुम

पलकें झपकतीं हैं जैसे
जुगनू चमकते हैं
घबराता नहीं जब तक मेरे साथ हो तुम
क्या बात हो तुम

वो जो तिल है तेरी गर्दन पर
खूबसूरती बढ़ाता है
लगता है चलता फिरता चाँद हो तुम
क्या बात जो तुम

देख तुम्हें मेरा मन न भरा
वो आखिरी मुलाकात हो तुम
क्या बात हो तुम

यादों से सवेरा हो
तन्हाई की रात हो तुम
क्या बात हो तुम

जो एक आशिक ने रखा हो संभालकर
वो उसका पहला गुलाब हो तुम
क्या बात हो तुम

उनसे पूछो हमारी अहमियत

इश्क़ वो भी करते हैं,
जिनकी मुलाकातें नहीं होती,
दूर रहकर भी,
अलग होने की बातें नहीं होती,
तुम्हें हर वक्त आसानी से मिल जाता हूं,
इसलिए मेरी अहमियत नहीं जानते,
उनसे पूछो हमारी अहमियत,
जिनकी गलियों में हमारे बगैर रातें नहीं होती।

मगर फिर भी ख़ुद को संभाले हुए हैं

सभी के दिलों से निकाले हुए हैं
मगर फिर भी ख़ुद को संभाले हुए हैं

कोई आबला-पा मेरे दर पे आया
उसे देखकर दिल में छाले हुए हैं

वो ख़त भेजने को कबूतर उड़ाए
नवाबों-से कुछ शौक़ पाले हुए हैं

फंसेगा मुक़द्दर कभी जाल में भी
कि मक़दूर के दाने डाले हुए हैं

मशक़्क़त बहुत की है मैंने जहाँ में
मयस्सर तभी दो निवाले हुए हैं

वतन पर लुटा दी शहीदों ने जाँ तक
कहाँ कोई उन से जियाले हुए हैं

उन्ही की वजअ से ग़ज़ल लिख रहा हूँ
उन्हीं की बदौलत रिसाले हुए हैं

मुझे हक़ मिला है किसी की नज़र का
नज़र के नज़र से क़बाले हुए हैं

वो फिर लौट आये हैं 'ख़ामोश' दिल में
पुराने ग़मों के इज़ाले हुए हैं

शब्दार्थ
आबला-पा-जिसके पाँव में छाले हो
मशक़्क़त-कड़ी मेहनत
मयस्सर- उपलब्ध होना,प्राप्त होना,available
जियाला-बहादुर,brave
रिसाला-पत्रिका,मैगज़ीन
क़बाला-बैनामे जैसा कोई दस्तावेज़,sale deed
इज़ाला-क्षतिपूर्ति compensation

बेइंतहा तेरी याद आई है...

हूक सी उठी है
बर्क सी लहराई है
फिर शक्ल तेरी
फिजाओं में नजर आई है........
याद किया होगा शायद तुमने मुझे
बेइंतहा तेरी याद आई है.........

चीख़ती है तन्हाइयां
निस्बत ने तेरी क्यो दे रखी है
मुझे सिर्फ खामोशियाँ
आरजू ए लबो ने फिर एक
सिसकी दबाई है............

फिर उठा है दर्द का समंदर
चश्म-ए-अश्क़ होने को.....
फिर देख रहा हूँ आईना
जख्म-ए-नक्श धोने को....
कितनी बंदिशे है मौजूद
तेरे रूबरू होने में....
फिर क्यों तेरी याद चली आई है....

हूक सी उठी है बर्क सी लहराई है
फिर शक्ल तेरी
फिजाओं में नजर आई है..........

Saturday, February 20, 2021

यही होता है तो आख़िर यही होता क्यूँ है

कोई ये कैसे बताए कि वो तन्हा क्यूँ है 
वो जो अपना था वही और किसी का क्यूँ है 
यही दुनिया है तो फिर ऐसी ये दुनिया क्यूँ है 
यही होता है तो आख़िर यही होता क्यूँ है 

इक ज़रा हाथ बढ़ा दें तो पकड़ लें दामन 
उन के सीने में समा जाए हमारी धड़कन 
इतनी क़ुर्बत है तो फिर फ़ासला इतना क्यूँ है 

दिल-ए-बर्बाद से निकला नहीं अब तक कोई 
इस लुटे घर पे दिया करता है दस्तक कोई 
आस जो टूट गई फिर से बंधाता क्यूँ है 

तुम मसर्रत का कहो या इसे ग़म का रिश्ता 
कहते हैं प्यार का रिश्ता है जनम का रिश्ता 
है जनम का जो ये रिश्ता तो बदलता क्यूँ है 

Friday, February 19, 2021

कितने ऐश से रहते होंगे कितने इतराते होंगे

कितने ऐश से रहते होंगे कितने इतराते होंगे 
जाने कैसे लोग वो होंगे जो उस को भाते होंगे 

शाम हुए ख़ुश-बाश यहाँ के मेरे पास आ जाते हैं 
मेरे बुझने का नज़्ज़ारा करने आ जाते होंगे 

वो जो न आने वाला है ना उस से मुझ को मतलब था 
आने वालों से क्या मतलब आते हैं आते होंगे 

उस की याद की बाद-ए-सबा में और तो क्या होता होगा 
यूँही मेरे बाल हैं बिखरे और बिखर जाते होंगे 

यारो कुछ तो ज़िक्र करो तुम उस की क़यामत बाँहों का 
वो जो सिमटते होंगे उन में वो तो मर जाते होंगे 

मेरा साँस उखड़ते ही सब बैन करेंगे रोएँगे 
या'नी मेरे बा'द भी या'नी साँस लिए जाते होंगे

Tuesday, February 16, 2021

कैसे कुछ तुम्हें सुनाऊं?

जब अंतस्तल रोता है,
कैसे कुछ तुम्हें सुनाऊं?
इन टूटे से तारों पर,
मैं कौन तराना गाऊं?

सुन लो संगीत सलोने,
मेरे हिय की धड़कन में।
कितना मधु-मिश्रित रस है,
देखो मेरी तड़पन में।

यदि एक बार सुन लोगे,
तुम मेरा करुण तराना।
हे रसिक! सुनोगे कैसे?
फिर और किसी का गाना।

कितना उन्माद भरा है,
कितना सुख इस रोने में?
उनकी तस्वीर छिपी है,
अंतस्तल के कोने में।

मैं आंसू की जयमाला,
प्रतिपल उनको पहनाती।
जपती हूं नाम निरंतर,
रोती हूं अथवा गाती।

सुभद्राकुमारी चौहान


 उन्माद 1. अत्यधिक प्रेम (अनुराग) 2. पागलपन; सनक।

बशीर बद्र शायरी

उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए

--
ज़िंदगी तू ने मुझे क़ब्र से कम दी है ज़मीं
पाँव फैलाऊँ तो दीवार में सर लगता है

--
कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता

--
न जी भर के देखा न कुछ बात की
बड़ी आरज़ू थी मुलाक़ात की
--

दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे
जब कभी हम दोस्त हो जाएँ तो शर्मिंदा न हों

लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में, 
तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में.

कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से
ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो

जान का रोग है, बला है इश्क़

क्या कहूं तुम से मैं के क्या है इश्क़
जान का रोग है, बला है इश्क़

इश्क़ ही इश्क़ है जहां देखो
सारे आलम में भर रहा है इश्क़

इश्क़ माशूक़ इश्क़ आशिक़ है
यानि अपना ही मुब्तला है इश्क़

इश्क़ है तर्ज़-ओ-तौर इश्क़ के तईं
कहीं बंदा कहीं ख़ुदा है इश्क़

कौन मक़्सद को इश्क़ बिन पहुंचा
आरज़ू इश्क़ वा मुद्दा है इश्क़

कोई ख़्वाहां नहीं मोहब्बत का
तू कहे जिन्स-ए-नारवा है इश्क़

मीर जी ज़र्द होते जाते हैं
क्या कहीं तुम ने भी किया है इश्क़?

यादों में महक जायेंगे

याद बन जायेंगे यादों में महक जायेंगे ।
बन के आँसू तेरी आँखों से छलक जायेंगे ।।

Thursday, February 11, 2021

सब से पहले एक वादा कीजिए, दिल के तड़पाने से तौबा कीजिए

वादा वो कर रहे हैं ज़रा लुत्फ़ देखिए
वादा ये कह रहा है न करना वफ़ा मुझे
- जलील मानिकपुरी

यूं ही वादा करो यक़ीं हो जाए
क्यूं क़सम लूं क़सम के क्या मअनी
- सख़ी लख़नवी

वादा आने का वफ़ा कीजे ये क्या अंदाज़ है
तुम ने क्यूं सौंपी है मेरे घर की दरबानी मुझे
- मिर्ज़ा ग़ालिब

किसी से आज का वादा किसी से कल का वादा है
ज़माने को लगा रक्खा है इस उम्मीद-वारी में
- मुबारक अज़ीमाबादी

जब कहते हैं हम करते हो क्यूं वादा-ख़िलाफ़ी
फ़रमाते हैं हंस कर ये नई बात नहीं है
- लाला माधव राम जौहर

सब से पहले एक वादा कीजिए
दिल के तड़पाने से तौबा कीजिए
- ख़ुसरव काकोरवी 

मुझे है ए'तिबार-ए-वादा लेकिन
तुम्हें ख़ुद एतिबार आए न आए
- अख़्तर शीरानी

किया है आने का वादा तो उस ने
मेरे परवरदिगार आए न आए
- अख़्तर शीरानी

भूलने वाले को शायद याद वादा आ गया
मुझ को देखा मुस्कुराया ख़ुद-ब-ख़ुद शरमा गया
- असर लखनवी

वादा झूटा कर लिया चलिए तसल्ली हो गई
है ज़रा सी बात ख़ुश करना दिल-ए-नाशाद का
- दाग़ देहलवी


तिरे वादे पर जिए हम तो ये जान झूट जाना 
कि ख़ुशी से मर न जाते अगर ए'तिबार होता 
मिर्ज़ा ग़ालिब

आदतन तुम ने कर दिए वादे 
आदतन हम ने ए'तिबार किया 
गुलज़ार

अब तुम कभी न आओगे यानी कभी कभी 
रुख़्सत करो मुझे कोई वादा किए बग़ैर 
जौन एलिया


वफ़ा करेंगे निबाहेंगे बात मानेंगे 
तुम्हें भी याद है कुछ ये कलाम किस का था 
दाग़ देहलवी

तेरे वादे को कभी झूट नहीं समझूँगा 
आज की रात भी दरवाज़ा खुला रक्खूँगा 
शहरयार

आप ने झूटा व'अदा कर के 
आज हमारी उम्र बढ़ा दी 
कैफ़ भोपाली

आप तो मुँह फेर कर कहते हैं आने के लिए 
वस्ल का वादा ज़रा आँखें मिला कर कीजिए 
लाला माधव राम जौहर

इन वफ़ादारी के वादों को इलाही क्या हुआ 
वो वफ़ाएँ करने वाले बेवफ़ा क्यूँ हो गए 
अख़्तर शीरानी

लहजा शायरी

उस के लहजे में बर्फ़ थी लेकिन
छू के देखा तो हाथ जलने लगे
- अमजद इस्लाम अमजद


मीठी बातें, कभी तल्ख़ लहजे के तीर
दिल पे हर दिन है उन का करम भी नया
- क़ैसर ख़ालिद

किसी के नर्म लहजे का क़रीना
मिरी आवाज़ में शामिल रहा है
- यासमीन हमीद

अपने लहजे की हिफ़ाज़त कीजिए
शेर हो जाते हैं ना-मालूम भी
- निदा फ़ाज़ली

लहजे और आवाज़ में रक्खा जाता है
अब तो ज़हर अल्फ़ाज़ में रक्खा जाता है
- अज़हर अदीब


लहजे का रस हँसी की धनक छोड़ कर गया
वो जाते जाते दिल में कसक छोड़ कर गया
- अंजुम इरफ़ानी

कोई तो फूल खिलाए दुआ के लहजे में
अजब तरह की घुटन है हवा के लहजे में
- इफ़्तिख़ार आरिफ़


इस लहजे से बात नहीं बन पाएगी
तलवारों से कैसे काँटे निकलेंगे
- तारिक़ क़मर

तेरी बातों को छुपाना नहीं आता मुझ से
तू ने ख़ुश्बू मिरे लहजे में बसा रक्खी है
- इक़बाल अशहर

तासीर नहीं रहती अल्फ़ाज़ की बंदिश में
मैं सच जो नहीं कहता लहजे का असर जाता
- ताहिर अज़ीम

क्या कहीं तुम ने भी किया है इश्क़।

क्या कहूँ तुम से मैं कि क्या है इश्क़ 
जान का रोग है बला है इश्क़ 

इश्क़ ही इश्क़ है जहाँ देखो 
सारे आलम में भर रहा है इश्क़ 

इश्क़ है तर्ज़ ओ तौर इश्क़ के तईं 
कहीं बंदा कहीं ख़ुदा है इश्क़ 

इश्क़ मा'शूक़ इश्क़ आशिक़ है 
या'नी अपना ही मुब्तला है इश्क़ 

गर परस्तिश ख़ुदा की साबित की 
किसू सूरत में हो भला है इश्क़ 

दिलकश ऐसा कहाँ है दुश्मन-ए-जाँ 
मुद्दई है प मुद्दआ है इश्क़ 

है हमारे भी तौर का आशिक़ 
जिस किसी को कहीं हुआ है इश्क़ 

कोई ख़्वाहाँ नहीं मोहब्बत का 
तू कहे जिंस-ए-ना-रवा है इश्क़ 

'मीर'-जी ज़र्द होते जाते हो 
क्या कहीं तुम ने भी किया है इश्क़। 

हम दोनों की पर्ण-कुटीर

सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता: साध...

मृदुल कल्पना के चल पँखों पर हम तुम दोनों आसीन।
भूल जगत के कोलाहल को रच लें अपनी सृष्टि नवीन।।

वितत विजन के शांत प्रांत में कल्लोलिनी नदी के तीर।
बनी हुई हो वहीं कहीं पर हम दोनों की पर्ण-कुटीर।।

कुछ रूखा, सूखा खाकर ही पीतें हों सरिता का जल।
पर न कुटिल आक्षेप जगत के करने आवें हमें विकल।।

सरल काव्य-सा सुंदर जीवन हम सानंद बिताते हों।
तरु-दल की शीतल छाया में चल समीर-सा गाते हों।।

सरिता के नीरव प्रवाह-सा बढ़ता हो अपना जीवन।
हो उसकी प्रत्येक लहर में अपना एक निरालापन।।

रचे रुचिर रचनाएँ जग में अमर प्राण भरने वाली।
दिशि-दिशि को अपनी लाली से अनुरंजित करने वाली।।

तुम कविता के प्राण बनो मैं उन प्राणों की आकुल तान।
निर्जन वन को मुखरित कर दे प्रिय! अपना सम्मोहन गान।।

पूरा दिन महकता रहा ख़ुशबू से दामन मेरा

पूरा दिन महकता रहा ख़ुशबू से दामन मेरा. 
कल जब ख़्वाबों में तेरे बालों पे हाथ फेरा. 

तेरे आने की जब ख़बर महके,
तेरे खुश्बू से सारा घर महके,
शाम महके तेरे तसव्वुर से,
शाम के बाद फिर सहर महके। 

उसके नूर उसके गुरूर पर इख्तियार सिर्फ मेरा है।।
उसे यूं ना तकिए जनाब वो चांद सिर्फ मेरा है।।

थोड़ी बेताबी ,थोड़ी तन्हाई थोड़ा इंतज़ार, कुछ पुरानी यादें,
बड़े सलीके से हमने अपने ज़ेहन में सजा कर रखे हैं।

हुस्न के क़सीदे तो गड़ती रहेगी महफ़िलो में,,, ¡¡
झुर्रिया भी प्यारी लगे तो मान लेना इश्क़ हैं... !! 

Wednesday, February 10, 2021

गुलाब चाहते हो तो कांटो से डरते क्यूं हो

गुलाब चाहते हो तो कांटो से डरते क्यूं हो
बाकी है जिम्मेदारियां बहुत अभी से टूटते क्यूं हो

प्यार करो टूटकर, नफ़रत से लड़ो संभलकर
जीना है एक जमाना अभी से बिखरते क्यूं हो

तुम्हीं ने तो कहा था कि हम थे, हैं, रहेंगे दोस्त
तो फिर मुझसे शिकवे-गिले करते क्यूं हो

तुम्हीं ने तो कहा था कि मैं तेरे बिन नहीं रह सकती
फिर मुझसे इस कदर रूठते क्यूं हो

वादा जो तुमने किया था उम्र भर साथ चलने का
फिर इस मोड़ पर मुझसे बिछुड़ते क्यूं हो

पुकारोगे तो मैं दौड़ी चली आऊंगी तुम्हीं ने तो कहा था
फिर मेरे बुलाने पर ऐसे बहाने बनाते क्यूं हो

आज जो पराया है वो कभी अजीज था तेरा 'शिवचरण'
वो जैसा है अपना है उसे बुरा कहते क्यूं हो

जब नाश मनुज पर छाता है - दिनकर

वर्षों तक वन में घूम-घूम,

बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,

सह धूप-घामपानी-पत्थर,

पांडव आये कुछ और निखर।

सौभाग्य न सब दिन सोता है,

देखेंआगे क्या होता है।

मैत्री की राह बताने को,

सबको सुमार्ग पर लाने को,

दुर्योधन को समझाने को,

भीषण विध्वंस बचाने को,

भगवान् हस्तिनापुर आये,

पांडव का संदेशा लाये।

दो न्याय अगर तो आधा दो,

परइसमें भी यदि बाधा हो,

तो दे दो केवल पाँच ग्राम,

रक्खो अपनी धरती तमाम।

हम वहीं खुशी से खायेंगे,

परिजन पर असि न उठायेंगे!

दुर्योधन वह भी दे ना सका,

आशिष समाज की ले न सका,

उलटेहरि को बाँधने चला,

जो था असाध्यसाधने चला।

जब नाश मनुज पर छाता है,

पहले विवेक मर जाता है।

Tuesday, February 9, 2021

गालियाँ खाईं बला से मुँह तो मीठा हो गया।

क़ंद-लब का उन के बोसा बे-तकल्लुफ़ ले लिया
गालियाँ खाईं बला से मुँह तो मीठा हो गया।

रूठना भी है हसीनों की अदा में शामिल
आप का काम मनाना है मनाते रहिए
- हफ़ीज़ बनारसी

हया से सर झुका लेना अदा से मुस्कुरा देना 
हसीनों को भी कितना सहल है बिजली गिरा देना 
- अकबर इलाहाबादी

क़ंद-लब का उन के बोसा बे-तकल्लुफ़ ले लिया
गालियाँ खाईं बला से मुँह तो मीठा हो गया
- मफ़तून देहलवी

पहले इस में इक अदा थी नाज़ था अंदाज़ था 
रूठना अब तो तिरी आदत में शामिल हो गया 
- आग़ा शाएर क़ज़लबाश

पूछा जो उन से चाँद निकलता है किस तरह 
ज़ुल्फ़ों को रुख़ पे डाल के झटका दिया कि यूँ 
- आरज़ू लखनवी

बोसा-ए-लब ग़ैर को देते हो तुम
मुँह मिरा मीठा किया जाता नहीं
- मुनीर शिकोहाबादी

अदा से देख लो जाता रहे गिला दिल का 
बस इक निगाह पे ठहरा है फ़ैसला दिल का 
- अरशद अली ख़ान क़लक़

क्या दिया बोसा लब-ए-शीरीं का हो कर तुर्श-रू
मुँह हुआ मीठा तो क्या दिल अपना खट्टा हो गया
- मीर कल्लू अर्श

अब समझ लेते हैं मीठे लफ़्ज़ की कड़वाहटें
हो गया है ज़िंदगी का तजरबा थोड़ा बहुत
- मंज़र भोपाली

किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम 
तू मुझ से ख़फ़ा है तो ज़माने के लिए आ 
- अहमद फ़राज़

रूठने और मनाने के एहसास में है इक कैफ़-ओ-सुरूर 
मैं ने हमेशा उसे मनाया वो भी मुझे मनाए तो 
-अहमद अली बर्क़ी आज़मी

रूठना तेरा मिरी जान लिए जाता है
ऐसे नाराज़ न हो हँस के दिखा दे मुझ को
- वसी शाह

रूठना चाहो तो अब हरगिज़ मनाने का नहीं
दिल को माइल कर लिया आँसू बहाने का नहीं
- उम्मीद ख़्वाजा

निगाहें इस क़दर क़ातिल कि उफ़ उफ़ 
अदाएँ इस क़दर प्यारी कि तौबा 
- आरज़ू लखनवी

आईना सामने न सही आरसी तो है
तुम अपने मुस्कुराने का अंदाज़ देखना
- मुर्ली धर शाद

रूठना हम से वो उस का पल पल
हर घड़ी उस को मनाना अपना
- फ़िरोज़ नातिक़ ख़ुसरो

Saturday, February 6, 2021

ठुकराओ तो क़दमों में आजाए ज़िंदगी

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जितना क़रीब जाओ उतना ये दूर जाए
ठुकराओ तो क़दमों में आजाए ज़िंदगी

रगों मे मेरी अब तेरा लहू है

रगों मे मेरी अब तेरा लहू है,
मेरी सूरत भी तुझ सी हुबहू है,
मेरे अन्दर से खुद मै हूँ गायब ,
सरापा जिस्म मे अब तू ही तू है,
मकां हू मै तू बामो दर है मेरा,
तू ख़द ओ ख़ाल है पैकर है मेरा,
ये तेरे इश्क का हर सू असर है,
जमाल ओ रंग अब बेहतर है मेरा

मिले जो कामयाबी सारे रिश्ते बोल पड़ते हैं

ताल्लुक़ कौन रखता है किसी नाकाम से लेकिन,
मिले जो कामयाबी सारे रिश्ते बोल पड़ते हैं,
मेरी खूबी पे रहते हैं यहां, अहल-ए-ज़बां ख़ामोश,
मेरे ऐबों पे चर्चा हो तो, गूंगे बोल पड़ते हैं।

समझता हूँ मगर दुनिया को समझाना नहीं आता

सरापा राज़ हूँ मैं क्या बताऊँ कौन हूँ क्या हूँ
समझता हूँ मगर दुनिया को समझाना नहीं आता
~ यगाना चंगेज़ी

मुझे ए नाखुदा आख़िर किसी को मुँह दिखाना है
बहाना करके तन्हा पार उतर जाना नहीं आता

सरापा राज़ हूँ मैं, क्या बताऊँ, कौन हूँ, क्या हूँ
समझता हूँ, मगर दुनिया को समझाना नहीं आता

दिल यह बेहौसला है, एक ज़रा सी ठेस का मेहमान
वो आंसू क्या पिएगा, जिस को ग़म उठाना नहीं आता
यगानाचंगेज़ी