Thursday, December 31, 2020

आरज़ू, मुराद शायरी

मंज़िल मिली मुराद मिली मुद्दआ मिला
सब कुछ मुझे मिला जो तिरा नक़्श-ए-पा मिला


तेरे जल्वों ने मुझे घेर लिया है ऐ दोस्त 
अब तो तन्हाई के लम्हे भी हसीं लगते हैं 

कैसी ताबीर की हसरत कि 'दोस्त' बरसों से
ना-मुराद आँखों ने देखा ही नहीं ख़्वाब कोई

अब क्या बताऊँ मैं तिरे मिलने से क्या मिला 
इरफ़ान-ए-ग़म हुआ मुझे अपना पता मिला 

इश्क़ इश्क़ हो शायद हुस्न में फ़ना हो कर
इंतिहा हुई ग़म की दिल की इब्तिदा हो कर

दिल हमें हुआ हासिल दर्द में फ़ना हो कर
इश्क़ का हुआ आग़ाज़ ग़म की इंतिहा हो कर

ना-मुराद रहने तक ना-मुराद जीते हैं
साँस बन गया इक एक नाला ना-रसा हो कर



शगुफ़्तगी का लताफ़त का शाहकार हो तुम 

फ़क़त बहार नहीं हासिल-ए-बहार हो तुम 

जो एक फूल में है क़ैद वो गुलिस्ताँ हो 

जो इक कली में है पिन्हाँ वो लाला-ज़ार हो तुम 

हलावातों की तमन्ना, मलाहतों की #मुराद 

ग़ुरूर कलियों का फूलों का इंकिसार हो तुम 

कैफ़ी आज़मी

दिल की मुराद है के किसी रोज़ आ के तू
बिन ईद के भी ईद का एहसास दिला दे

Wednesday, December 30, 2020

चाय शायरी

एक चाय की प्याली कितना सुकून देती है, 
दिसम्बर को जून कर देती है. 
.. 

घी मिस्री भी भेज कभी अख़बारों में
कई दिनों से चाय है कड़वी या अल्लाह
निदा फ़ाज़ली

चाय की प्याली में नीली टेबलेट घोली
सहमे सहमे हाथों ने इक किताब फिर खोली
बशीर बद्र

बिखरता जाता है कमरे में सिगरटों का धुआं
पड़ा है ख़्वाब कोई चाय की प्याली में
नज़ीर क़ैसर

उसने चलते चलते लफ़्ज़ों का ज़हराब
मेरे जज़्बों की प्याली में डाल दिया
अब्दुर्रहीम नश्तर

सामने रख के चाय की प्याली
चुस्की चुस्की तेरी कमी चक्खी
नाहिद अख़्तर बलूच

कुछ होश नहीं मुझ में रहा जब से पिलाई
उस नर्गिस-ए-मख़मूर की साक़ी ने प्याली
आफ़ताब शाह आलम सानी

सिगरटें चाय धुआं रात गए तक बहसें
और कोई फूल सा आंचल कहीं नम होता है
वाली आसी

ज़रा सी चाय गिरी और दाग़ दाग़ वरक़
ये ज़िंदगी है कि अख़बार का तराशा है
आमिर सुहैल

छोड़ आया था मेज़ पर चाय
ये जुदाई का इस्तिआरा था
तौक़ीर अब्बास 

Sunday, December 27, 2020

हम तो फ़ना हो गए उनकी आँखें देखकर

 हम तो फ़ना हो गए ग़ालिब उनकी आँखें देखकर,

ना जाने वो  आइना कैसे देखते होंगे!

कोशिशों से भी क्या नहीं मिलता ।।

क्यों मुश्किलों का हल नहीं मिलता ।

क्यों मुकद्दर पे बस नहीं चलता ।।

खुद पर बस एतबार हो तेरा ।

कोशिशों से भी क्या नहीं मिलता ।।

उन का ख़याल हर तरफ़ उन का जमाल हर तरफ़

1. इधर से देखें तो अपना मकान लगता है


इक और ज़ाविए से आसमान लगता है
जो तुम हो पास तो कहता है मुझ को चीर के फेंक

वो दिल जो वक़्त-ए-दुआ बे-ज़बान लगता है
शुरू-ए-इश्क़ में सब ज़ुल्फ़ ओ ख़त से डरते हैं
अख़ीर उम्र में इन ही में ध्यान लगता है
सरकने लगती है तब ही क़दम तले से ज़मीन
जब अपने हाथ में सारा जहान लगता है
दो चार घाटियाँ इक दश्त कुछ नदी नाले
बस इस के ब'अद हमारा मकान लगता है 

2. उन का ख़याल हर तरफ़ उन का जमाल हर तरफ़
हैरत-ए-जल्वा रू-ब-रू दस्त-ए-सवाल हर तरफ़
मुझ से शिकस्ता-पा से है शहर की तेरे आबरू
छोड़ गए मिरे क़दम नक़्श-ए-कमाल हर तरफ़
हम हैं जवाँ भी पीर भी हम हैं अदम भी ज़ीस्त भी
हम हैं असीर-ए-हल्का-ए-क़ौल-ए-मुहाल हर तरफ़
नग़्मा गिरा है बूँद बूँद फिर भी उठी है कितनी गूँज
उड़ती फिरे है ज़ेहन में गर्द-ए-ख़याल हर तरफ़
क़लब-ए-हयात-ओ-मौत से मिल न सका कोई जवाब
फेंका किए हैं गरचे हम संग-ए-सवाल हर तरफ़ .

3. बनाएँगे नई दुनिया हम अपनी
तिरी दुनिया में अब रहना नहीं है .

मेहनत ही रंग लाएगी।

कह दो दिल से, जी- जान लगाना

ये मेहनत ही रंग लाएगी।

उजड़ चुके गुलशन में मेहनत

फिर से बहारें लाएंगी।

कह दो दिल से, समय ना खोना
ये घड़ियां गुज़र जो जाएंगी।
लाख जतन कर लेना बेशक
ये लौट के फिर ना आएंगी।

कह दो दिल से, नई राहें बनाना
बेशक, मुश्किलें तो आएंगी
आखिर ये मुश्किलें ही हमको
मंजिल तक ले जाएंगी।

कह दो दिल से, धीरज ना खोना
अपनी बारी भी आएगी।
दिखती है जो बिगड़ी हुई
वो बात भी कल बन जाएगी।

बड़ा ही रोमांचक था, जीने का फंडा,

बड़ा ही रोमांचक था, जीने का फंडा,

कंचों की गोली वह गिल्ली औ डंडा।

छड़ी से चलाना तब टायर की गाड़ी,

छुकछुक-छुकछुक, चलाना रेलगाड़ी।

कमानी पतंगों संग वह डोर औ लटाई,
लोई गोंद के संग में कांच की पिसाई।
फिर कटना मांझे से हाथों की अंगुली,
और गुस्से में खाना, बापू की पिटाई।

उछल कूद डालियों पे, फल का चुराना,
अगर पकड़े गए तो खूब बहाने बनाना।
नदिया में दोपहर तक मछली पकड़ना,
कूं-कूं करता पिल्ला बाहों में जकड़ना।

जोड़-जोड़ कर गुल्लक में पैसा बचाना,
लत्ती सरकाकर दिनभर लट्टू नचाना।
वो छुप्पन छुपाई का खेल और कबड्डी,
साईकिल चलाने में, ना रहना फिसड्डी।

सोच में पड गयी क्या, अरे घोग्घो रानी,
बताओ तेरी नदिया में, कितना है पानी?
तू गोटियां उछाल, आज खेलो रे किट्टो,
फिर आँखें मूंद अपनी, खेलें मार पिट्टोI

आओ खेलें ओका, बोका तीन तड़ोका,
देखो खेल-खेल में, ना करना तू धोखा।
दौड़, जीत-हार होगी, किसकी स्पर्धा में,
फैसले की खातिर, एक सिक्का उछालें।
आज फिर यादों का, एल्बम खंगालें।

Thursday, December 24, 2020

क्यों तेरी ललक रखूं

काजल रखूं कि गजल रखूं अलक रखूं कि पलक रखूं
तू इक बार नज़र आ जाए तो मैं तेरा नाम झलक रखूं
बस अब और ना तरसा मुझपे अपने प्यार की बारिश बरसा
बता इस तरह प्यासा मैं अपने दिल को कब तलक रखूं

तेरे लिए आसमां के तारे लाऊँ जन्नत के हसीं नज़ारे लाऊँ
और तू जो कहे तो तेरे कदमों में लाकर मैं फलक रखूं

तुझ पर जिंदगी फना कर दूं तुझको कैसे मैं मना कर दूं
हो अगर तेरा इशारा तो मैं दार पर अपना हलक रखूं

बरसों से वीरान पड़ा मेरे दिल का चमन खिलना ही नहीं
तू मुझको मिलना ही नहीं तो फिर क्यों तेरी ललक रखूं

नामचीन'मुझसे अगर कहे कोई फलक लोगे या खलक लोगे
तो फिर ठुकराकर फलक को में अपने पास खलक रखूं

Wednesday, December 23, 2020

जब कभी भी तुम्हारा ख़्याल आ गया

हर रोज़ गिरकर भी,
 मुक़म्मल खड़े हैं...! 
ऐ ज़िंदगी देख, 
 मेरे हौसले तुझसे भी बड़े हैं ...!

सुनो,आओ मेरे सीने से लिपट जाओ
ये दिसम्बर की सर्द हवाए कही तुम्हे बीमार ना कर दे. 

कभी किसी का ख्याल थे हम भी
गए दिनों में कमाल थे हम भी |

शाम से आँख में नमी सी है 
आज फिर आप की कमी सी है 
~ गुलज़ार

गो ये दर्दे दिल मेरा कुछ कम नहीं
गर तेरा ग़म है तो कोई ग़म नहीं
दिल में अश्कों का समुन्दर है मेरे
क्या हुआ गर आंख मेरी नम नहीं.

याद आएगी हर रोज मगर तुझे आवाज ना दूंगा,
लिखूँगा तेरे लिए ही हर ग़ज़ल, मगर तेरा नाम ना लूंगा...

सब कुछ सुनना कुछ ना कहना कितना मुश्किल है।
तुमसे बिछड़ के जिंदा रहना कितना मुश्किल है।।

तेरे जिक्र से जहन में एक हलचल मच जाती है
आती है बात होठों पर ओर गजल बन जाती है


चाँदी सोना एक तरफ़, 
तेरा होना एक तरफ़, 
एक तरफ़ तेरी आँखें,
जादू टोना एक तरफ़।।

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ 
ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ 
~ अमीर मीनाई

ग़म मुझे हसरत मुझे वहशत मुझे सौदा मुझे
एक दिल दे कर ख़ुदा ने दे दिया क्या क्या मुझे
सीमाब अकबराबादी

हर रोज ही जुबाँ पे, तेरी बात क्यों आती है।
बादल बिना ही नैनो से, बरसात क्यों आती है।
दिन तो गुजार देते हैं, जीवन की उलझनों में।
गम का हिसाब करने को, ये रात क्यों आती है।


काग़ज़ काग़ज़ हर्फ़ सजाया करता है
तन्हाई में शहर बसाया करता है
कैसा पागल शख्स है सारी-सारी रात
दीवारों को दर्द सुनाया करता है
रो देता है आप ही अपनी बातों पर
और फिर खुद को आप हंसाया करता है...

कोई चराग़ जलाता नहीं सलीक़े से 
मगर सभी को शिकायत हवा से होती है 


कुछ न था मेरे पास खोने को 
तुम मिले हो तो डर गया हूँ मैं


आँसूओं की जहाँ पायमाली रही
ऐसी बस्ती चराग़ों से ख़ाली रही
जब कभी भी तुम्हारा ख़्याल आ गया
फिर कई रोज़ तक बेख़याली रही
चाँद तारे सभी हम-सफ़र थे मगर
ज़िन्दगी रात थी रात काली रही
मेरे सीने पे ख़ुशबू ने सर रख दिया
मेरी बाँहों में फूलों की डाली रही...

बशीर बद्र

ठीक है ख़ुद को हम बदलते हैं 
शुक्रिया मश्वरत का चलते हैं 
हो रहा हूँ मैं किस तरह बरबाद 
देखने वाले हाथ मलते हैं...

जौन एलिया

Tuesday, December 22, 2020

बस एक एहसास से हम तेरे हैं !

"ये कहाँ की रीत है, जागे कोई सोए कोई,
रात सबकी है, तो सबको नींद आनी चाहिए."

खूबसूरती जिसमे दिखी थी सारे जहा से बढ़कर ,
काश बनाने वाले ने उसमे थोड़ा वफ़ा भी दिया होता..

ना निकाह है, ना फेरे हैं
बस एक एहसास से हम तेरे हैं !

तेरा ख़्याल तेरी तलब और तेरी आरज़ू...
इक भीड़ से लगी है मेरे दिल के शहर में..

जिंदगी की कसौटी से हर रिश्ता गुजर गया,
कुछ निकले खरे सोने से,कुछ का पानी उतर गया।


बस इतनी बात पे माँ शहर आने को नही राजी

बस इतनी बात पे माँ शहर आने को नही राजी, 
अगर वो गाँव छोड़ेगी तो तुलसी सूख जायेगी ||

एक आहट सी आती रहती है दिल में
कोई तो है, शायद जो ढूंढता होगा मुझे |

Monday, December 21, 2020

जिंदगी के पल शायरी

चेहरा तमाम ज़िंदगी तस्वीर एक पल
इतने तवील ख़्वाब की ता'बीर एक पल

- हारिस बिलाल

एक ही पल में बदलता है नज़ारा सारा
और इस पल के लिए बाक़ी तमाशा सारा
- नवीन जोशी

एक पल के लिए थे वो आए नज़र
उम्र भर दिल पुकारा कि हाए नज़र
- इस्मा हादिया


दो पल के हैं ये सब मह ओ अख़्तर न भूलना
सूरज ग़ुरूब होने का मंज़र न भूलना
- अजमल अजमली


इक पल कहीं रुके थे सफ़र याद आ गया
फूलों को हँसता देख के घर याद आ गया
- फ़ारूक़ बख़्शी


अब भी पल पल जी दुखता है
जैसे सब कुछ अभी हुआ है
- कुमार पाशी

इक पल बग़ैर देखे उसे क्या गुज़र गया
ऐसे लगा कि एक ज़माना गुज़र गया
- अदीम हाशमी


पल पल काँटा सा चुभता था
ये मिलना भी क्या मिलना था
- नासिर काज़मी

मुझे एहसास ये पल पल रहा है
कि मेरे सर से सूरज ढल रहा है
- अब्दुल वहाब सुख़न


यहाँ हर शख़्स हर पल हादसा होने से डरता है
खिलौना है जो मिट्टी का फ़ना होने से डरता है
- राजेश रेड्डी

Sunday, December 20, 2020

क्या खूब वहम पालने लगे...

अहमियत दी
तो खुद को कोहिनूर मानने लगे
काँच के टुकड़े भी
क्या खूब वहम पालने लगे...

तुम्हारा याद आना भी कमाल होता है

अभी राह में कई मोड़ हैं कोई आएगा कोई जाएगा
तुम्हें जिस ने दिल से भुला दिया उसे भूलने की दुआ करो
बशीर बद्र

तुम्हारे पास हूँ लेकिन जो दूरी है, समझता हूँ
तुम्हारे बिन मेरी हस्ती अधूरी है, समझता हूँ
तुम्हें मैं भूल जाऊँगा ये मुमकिन है नहीं लेकिन
तुम्हीं को भूलना सबसे जरूरी है, समझता हूँ 
 कुमार विश्वास

रस्मे ग़म किस तरह निभाएं हम
अब‌ कहां जाके दिल लगाए हम
बेरुख़ी, बेनियाज़ी, बेज़ारी
तेरे कितने सितम गिनाएं हम।

कुछ यूं चलेगा तेरा मेरा रिश्ता उम्र भर,
मिल गए तो बातें लंबी,
ना मिले तो यादें लंबी। 

कुछ तो बात होगी तेरे खारेपन में ए समुंदर, 
वरना हर मीठी नदी की मंज़िल तू ना होता ।

ये सर्द रात ये आवारगी ये नींद का बोझ
हम अपने शहर में होते तो घर चले जाते। 

तेरी सूरत से किसी की नहीं मिलती सूरत 
हम जहाँ में तिरी तस्वीर लिए फिरते हैं 
इमाम बख़्श

तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक़ है तुमको। 
मेरी बात और है मैंने तो मुहब्बत की है। 
साहिर लुधियानवी

सारी दुनिया तेरी नज़र में है 
और तू है कि हर नज़र में है 

तुम्हारा याद आना भी कमाल होता है,
कभी आकर देखना क्या हाल होता हैं.

खामोशियां बोल देती है जिनकी बातें नहीं होती
इश्क़ वो भी करते है जिनकी मुलाकातें नहीं होती.

ज़िंदगी ज़िंदा-दिली का है नाम 
मुर्दा-दिल ख़ाक जिया करते हैं 
इमाम नासिख़

सभी के नाम नहीं रुकती ये धड़कने,
दिलों के भी कुछ उसूल हुआ करते हैं.



दुख हूं मैं एक नए हिन्दी कवि का

दुख हूं मैं एक नए हिन्दी कवि का



बांधो

मुझे बांधो

पर कहां बांधोगे
किस लय, किस छन्द में ?

ये छोटे छोटे घर
ये बौने दरवाज़े
ताले ये इतने पुराने
और सांकल इतनी जर्जर
आसमान इतना ज़रा-सा
और हवा इतनी कम-कम
नफ़रत यह इतनी गुमसुम सी
और प्यार यह इतना अकेला
और गोल-मोल

बांधो
मुझे बांधो
पर कहां बांधोगे
किस लय, किस छन्द में ?

क्या जीवन इसी तरह बीतेगा
शब्दों से शब्दों तक
जीने
और जीने और जीने और जीने के
लगातार द्वन्द में ?

Saturday, December 19, 2020

अलाव शायरी

किसी अलाव का शोला भड़क के बोलता है
सफ़र कठिन है मगर एक बार आख़िरी बार
- सऊद उस्मानी

तमाम दोस्त अलाव के गिर्द जमा थे और
हर एक अपनी कहानी सुनाने वाला था
- इदरीस बाबर


मैं लौ में लौ हूँ, अलाव में हूँ अलाव 'नदीम'
सो हर चराग़ मिरा ए'तिराफ़ करता रहा
- नदीम भाभा


रौशन अलाव होते ही आया तरंग में
वो क़िस्सा-गो ख़ुद अपने में इक दास्तान था
- अमीर हम्ज़ा साक़िब

सर्द होते हुए वजूद में बस
कुछ नहीं था अलाव आँखें थीं
- सीमा ग़ज़ल

बदन पे पैरहन-ए-ख़ाक के सिवा क्या है
मिरे अलाव में अब राख के सिवा क्या है
- हिमायत अली शाएर

चिंगारियाँ न डाल मिरे दिल के घाव में
मैं ख़ुद ही जल रहा हूँ ग़मों के अलाव में
- सैफ़ ज़ुल्फ़ी

रात चौपाल और अलाव मियाँ
अब कहाँ गाँव का सुभाव मियाँ
- यूसुफ़ तक़ी

फैली है सितम की आग हरसू
हर सम्त अलाव जल रहे हैं
- हफ़ीज़ जौहर

ये भी मुमकिन है कि तुम दूर के लोग
इस अलाव को सितारा समझो
- इदरीस बाबर

उधर ही ले चलो कश्ती जहां तूफान आया है।

सुना है आज समंदर को बड़ा गुमान आया है,
उधर ही ले चलो कश्ती जहां तूफान आया है। 

Friday, December 18, 2020

दिनकर

‘आग की भीख’-
 
बेचैन है हवायें, सब ओर बेकली है
कोई नहीं बताता किश्ती किधर चली है।
मजधार है, भंवर है या पास किनारा?
यह नाश आ रहा है या सौभाग्य का सितारा?

‘‘न्यायोचित सुख सुलभ नहीं, जब तक मानव-मानव को।
चैन कहाँ धरती पर तब तक, शांति कहाँ इस भव को।
जब तक मनुज-मनुज का यह सुख भाग नहीं सम हेागा।
शमित न होगा कोलाहल संघर्ष नहीं कम होगा।

 
“ब्रम्हा से कुछ लिखा भाग्य में
मनुज नहीं लाया है
अपना सुख उसने अपने
भुजबल से ही पाया है।”
 

 
‘‘क्रांति धात्रि कविते! जाग उठ, आडम्बर में आग लगा दें।
पतन, पाप, पाखण्ड जले, जग में ऐसी ज्वाला सुलगा दें।
उठ वीरों की भाव तरंगिणि, दलितों के दिल की चिनगारी।
युग मर्दित यौवन की ज्वाला, जाग जाग री क्रांति कुमारी।।’’
‘सामधेनी’ में दिनकर

 
कितनी द्रोपदियों के बाल खुले, किन-किन कलियों का अंत हुआ
कह हृदय खोल चित्तौर यहां, कितने दिन ज्वाल बसंत हुआ।
ले अंगड़ाई उठ हिले धरा, कर निज विराट स्वर में निनाद
शैल राट! हुँकार भरे, फट जाय कुहा, भागे प्रमाद।
तू मौन त्याग, कर सिंहनाद, रे तपी! आज तप का न काल
नव युग शंखध्वनि, जगा रही, तू जाग। जाग मेरे विशाल


‘‘विद्युत की इस चकाचौंध में देख दीप की लो रोती है।
अरी हृदय को थाम महल के लिए झोपड़ी बलि होती हैं।
देख कलेजा फाड़ कृषक, दे रहे हृदय शोणित की धारें
बनती ही उन पर जाती हैं वैभव की ऊँची दीवारें।’’
 
एक मनुज संचित करता है अर्थ पाप के बल से
और भोगता उसे दूसरा भाग्यवाद के छल से।
 
"भारत धूलों से भरा, आंसुओं से गीला
भारत अब भी व्याकुल विपत्ति के घेरे में।
दिल्ली में तो है खूब ज्योति की चहल-पहल
पर, भटक रहा है सारा देश अंधेरे में।।
चल रहे ग्राम कुंजों में पछुआ के झकोर
दिल्ली, लेकिन ले रही लहर पुरवाई में
है विकल देश सारा अभाव के तापों से
दिल्ली सुख से सोई है नरम रजाई में।" 

 
“धर्म का दीपक क्षमा का दीप कब जलेगा, कब जलेगा
विश्व में भगवान।”

“सारी दुनिया उजड़ चुकी है
उजड़ चुका है मेला
ऊपर है बीमार सूर्य नीचे मैं मनुज अकेला।”

प्रियतम को रख सके निमज्जित, जो अतृप्ति के रस में
पुरुष बड़े सुख से रहता है, उस प्रमदा के वश में।

‘कलम आज उनकी जय बोल
जला अस्थियाँ बारी-बारी
छिटकाई जिनने चिनगारी
जो चढ़ गये पुष्प वेदी पर
लिये बिना गरदन का मोल।”
 
उसी तरह देशप्रेम की भावना से आप्लावित वे कुछ और झाकियाँ हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं। जैसे-
 
देह प्रेम की जन्मभूमि है पर उसके विचरण की
सारी लीला भूमि नहीं सीमित है रुधिर त्वचा तक।
यह सीमा प्रसरित है मन के गहन, गुह्य लोकों में
जहाँ रूप की लिपि अरूप की छवि आंका करती है
और पुरुष प्रत्यक्ष विभासित नारी मुख मण्डल में
किसी दिव्य, अव्यक्त कमल को नमस्कार करता है।
 

कीजे मुझे क़ुबूल मिरी हर कमी के साथ

सब ने मिलाए हाथ यहाँ तीरगी के साथ
कितना बड़ा मज़ाक़ हुआ रौशनी के साथ

शर्तें लगाई जाती नहीं दोस्ती के साथ
कीजे मुझे क़ुबूल मिरी हर कमी के साथ

तेरा ख़याल, तेरी तलब तेरी आरज़ू
मैं उम्र भर चला हूँ किसी रौशनी के साथॉ

दुनिया मिरे ख़िलाफ़ खड़ी कैसे हो गई
मेरी तो दुश्मनी भी नहीं थी किसी के साथ

किस काम की रही ये दिखावे की ज़िंदगी
वादे किए किसी से गुज़ारी किसी के साथ

दुनिया को बेवफ़ाई का इल्ज़ाम कौन दे
अपनी ही निभ सकी न बहुत दिन किसी के साथ

क़तरे वो कुछ भी पाएँ ये मुमकिन नहीं 
बढ़ना जो चाहते हैं समुंदर-कशी के साथ

तेरा गम रहे सलामत मिरे दिल में क्या नहीं है

कोई आरज़ू नहीं है कोई मुद्दआ' नहीं है
तिरा ग़म रहे सलामत मिरे दिल में क्या नहीं है

कहाँ जाम-ए-ग़म की तल्ख़ी कहाँ ज़िंदगी का दरमाँ
मुझे वो दवा मिली है जो मिरी दवा नहीं है

तू बचाए लाख दामन मिरा फिर भी है ये दावा
तिरे दिल में मैं ही मैं हूँ कोई दूसरा नहीं है

तुम्हें कह दिया सितम-गर ये क़ुसूर था ज़बाँ का
मुझे तुम मुआ'फ़ कर दो मिरा दिल बुरा नहीं है

मुझे दोस्त कहने वाले ज़रा दोस्ती निभा दे
ये मुतालबा है हक़ का कोई इल्तिजा नहीं है

ये उदास उदास चेहरे ये हसीं हसीं तबस्सुम
तिरी अंजुमन में शायद कोई आइना नहीं है

मिरी आँख ने तुझे भी ब-ख़ुदा 'शकील' पाया
मैं समझ रहा था मुझ सा कोई दूसरा नहीं है

गालिब की चुनिंदा ग़ज़लों का एक गुलदस्ता

1.

ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता

तिरे वा’दे पे जिए हम तो ये जान झूट जाना कि ख़ुशी से मर न जाते अगर ए’तिबार होता

कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को ये ख़लिश कहां से होती जो जिगर के पार होता

कहूँं किस से मैं कि क्या है शब-ए-ग़म बुरी बला है मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता

हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूं न ग़र्क़-ए-दरिया न कभी जनाज़ा उठता न कहीं मज़ार होता

ये मसाईल-ए-तसव्वुफ़ ये तेरा बयान ‘ग़ालिब’ तुझे हम वली समझते जो न बादा-ख्वार होता

मायने... विसाल-ए-यार : प्रेमी से मिलन/ तीर-ए-नीम-कश : अनमने ढंग से चलाया गया तीर/ ख़लिश : वेदना/ नासेह : उपदेशक/ चारासाज़ : उपचारक/ ग़म-गुसार : हितैषी/ ग़र्क़-ए-दरिया : नदी में डूबना/ मसाईल-ए-तसव्वुफ़ : दर्शन सम्बंधी प्रश्न/ वली : सिद्धपुरुष/ बादा-ख्वार : शराबी

2.

बस-कि दुश्वार है हर काम का आसां होना आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना

गिर्या चाहे है ख़राबी मिरे काशाने की दर ओ दीवार से टपके है बयाबां होना

वा-ए-दीवानगी-ए-शौक़ कि हर दम मुझ को आप जाना उधर और आप ही हैरां होना

ले गए ख़ाक में हम दाग़-ए-तमन्ना-ए-नशात तू हो और आप ब-सद-रंग-ए-गुलिस्ताँ होना

की मिरे क़त्ल के बा’द उस ने जफ़ा से तौबा हाए उस ज़ूदे-पशीमां का पशीमां होना

हैफ़ उस चार गिरह कपड़े की क़िस्मत ‘ग़ालिब’ जिस की क़िस्मत में हो आशिक़ का गरेबां होना

मायने... दुश्वार : कठिन/ मयस्सर : मुनासिब/ गिर्या : आर्तनाद/ ज़ूदे-पशीमां : शीघ्र लज्जित हो जाने वाले/ हैफ़ : अफ़सोस

3.

जहां तेरा नक़्शे-क़दम देखते हैं ख़ियाबां-ख़ियाबां इरम देखते हैं

दिल-आशुफ़्तगां ख़ाले-कुंजे-दहन के सुवैदा में सैरे-अ़दम देखते हैं

तमाशा कर ऐ मह्वे-आईनादारी तुझे किस तमन्ना से हम देखते हैं

तेरे सर्वे-क़ामत से इक क़द्दे-आदम क़यामत के फ़ित्ने को कम देखते हैं

सुराग़े-तुफ़े-नालाले दाग़े-दिल से कि शब-रौ का नक्शे-क़दम देखते हैं

बना कर फ़कीरों का हम भेस ग़ालिब तमाशा-ए-अहले-करम देखते हैं

मायने... ख़ियाबां : क्यारी/ दिल-आशुफ़्तगां : परेशान-हाल/ ख़ाले-कुंजे-दहनर : अधर के कोने का तिल/ सुवैदा : दिल का दाग़/ सैरे-अ़दम : अनस्तित्व का तमाशा/ सर्वे-क़ामत : दरख़्त जैसा क़द/ फ़ित्ने : उपद्रव/ सुराग़े-तुफ़े-नाला : आह की गर्मी का पता/ शब-रौ : रात का राही

 
4.

इश्क़ मुझको नहीं, वहशत ही सही मेरी वहशत, तेरी शोहरत ही सही

क़तअ कीजे न तअल्लुक़ हम से कुछ नहीं है, तो अदावत ही सही

मेरे होने में है क्या रुस्वाई? ऐ वो मजलिस नहीं ख़िल्वत ही सही

हम कोई तर्क़-ए-वफ़ा करते हैं न सही इश्क़ मुसीबत ही सही

हम भी तस्लीम की ख़ू् डालेंगे बेनियाज़ी तेरी आदत ही सही

यार से छेड़ चली जाए असद गर नहीं वस्ल तो हसरत ही सही

मायने... क़तअ : तोड़ना/ अदावत : दुश्मनी/ ख़िल्वत : एकांत/ तर्क़-ए-वफ़ा : निष्ठा का त्याग/ तस्लीम की ख़ू् : मान लेने का ढंग/ बेनियाज़ी : उपेक्षा

5.

जाती है कोई कश्मकश अंदोह-ए-इश्क़ की दिल भी अगर गया तो वही दिल का दर्द था

था ज़िंदगी में मर्ग का खटका लगा हुआ उड़ने से पेश-तर भी मिरा रंग ज़र्द था

अहबाब चारासाज़ी-ए-वहशत न कर सके ज़िंदां में भी ख़याले-बयाबां-नवर्द था

तालीफ़ नुस्ख़ा-हा-ए-वफ़ा कर रहा था मैं मजमुआ-ए-ख़याल अभी फ़र्द फ़र्द था

दिल ता जिगर कि साहिल-ए-दरिया-ए-ख़ूँ है अब इस रहगुज़र में जल्वा-ए-गुल आगे गर्द था

ये लाश-ए-बेकफ़न ‘असद’-ए-ख़स्ता-जां की है हक़ मग़फ़रत करे अजब आज़ाद मर्द था

मायने... अंदोह-ए-इश्क़ : प्रेम के दु:खों की/ पेश-तर : पहले/ अहबाब : दोस्त/ चारासाज़ी-ए-वहशत : प्रेमोन्माद का इलाज/ ज़िंदां : कारागार/ ख़याले-बयाबां-नवर्द : जंगलों में घूमना/ ख़स्ता-जां : सख़्त जान/ हक़ मग़फ़रत : ख़ुदा बख़्शे

6.

कहते हो न देंगे हम दिल अगर पड़ा पाया दिल कहां कि गुम कीजे हम ने मुद्दआ’ पाया

इश्क़ से तबीअ’त ने ज़ीस्त का मज़ा पाया दर्द की दवा पाई दर्द-ए-बे-दवा पाया

सादगी ओ पुरकारी बे-ख़ुदी ओ हुश्यारी हुस्न को तग़ाफ़ुल में जुर्रत-आज़मा पाया

ग़ुंचा फिर लगा खिलने आज हम ने अपना दिल ख़ूँ किया हुआ देखा गुम किया हुआ पाया

हाल-ए-दिल नहीं मा’लूम लेकिन इस क़दर या’नी हम ने बारहा ढूंढा तुम ने बारहा पाया

शोर-ए-पंद-ए-नासेह ने ज़ख़्म पर नमक छिड़का आप से कोई पूछे तुम ने क्या मज़ा पाया

मायने... ज़ीस्त : जीवन/ दर्द-ए-बे-दवा : लाइलाज/ तग़ाफ़ुल : बेपरवाही/ जुर्रत-आज़मा : साहसी/ ग़ुंचा : कली/ शोर-ए-पंद-ए-नासेह : उपदेशक के शोर

7.

बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल है दुनिया, मेरे आगे होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा, मेरे आगे

इक खेल है औरंग-ए-सुलेमां मेरे नज़दीक इक बात है ऐजाज़-ए-मसीहा, मेरे आगे

होता है निहां गर्द में सहरा मेरे होते घिसता है जबीं ख़ाक पे दरिया, मेरे आगे

मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तेरे पीछे तू देख कि क्या रंग है तेरा, मेरे आगे

नफ़रत का गुमां गुज़रे है, मैं रश्क से गुज़रा क्योंकर कहूं, लो नाम न उनका मेरे आगे

गो हाथ को जुम्बिश नहीं, आंखों में तो दम है रहने दो अभी साग़र-ओ-मीना, मेरे आगे

मायने... बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल : बच्चों का खेल/ औरंग-ए-सुलेमां : सुलेमान का सिंहासन/ ऐजाज़-ए-मसीहा : चमत्कार/ निहां : निहित/ जबीं : माथा/ रश्क : ईर्ष्या/ वस्ल : मिलन/ शबे-हिजरां : वियोग की रात/ जुम्बिश : कम्पन/ साग़र-ओ-मीना : जाम और सुराही

8.

है बस-कि हर-एक उन के इशारे में निशां और करते हैं मुहब्बत तो गुज़रता है गुमां और

या रब वो न समझे हैं न समझेंगे मेरी बात दे और भी दिल इनको जो न दे मुझको ज़ुबाँं और

अबरू से है क्या उस निगह-ए-नाज़ को पैवंद है तीर मुक़र्रर मगर इस की है कमाँ और

तुम शहर में हो तो हमें क्या ग़म जब उठेंगे ले आएंगे बाज़ार से जाकर दिल-ओ-जां और

लेता न अगर दिल तुम्हें देता कोई दम चैन करता जो न मरता कोई दिन आहो-फुग़ां और

है और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़-ए-बयां और

मायने... गुमां : वहम/ आहो-फुग़ां : विलाप/ सुख़नवर : कवि

ठहरो तुम मेरी मोहब्बत की राहों में

दिसंबर की इस ठंड चलती हवाओं में

ठहरो तुम मेरी मोहब्बत की राहों में

एक साल बाद आई है फिर, तुमसे मिलने की घड़ी

बूंद बूंद कर टपक रही है ओस बनकर दिलो में

तपिश थी तुम्हें पाने की
इंतजार बहुत करवाया तुमने

करार था मिलन का तुमसे
रूबरू हुए दो नयन

पूरी हुई चाहत ठहरो तुम दिसंबर
मेरी मोहब्ब्त की राहों में .......।

जिस्म-ए-यार आ कि बेचारी को सहारा मिल जाए

सख़्त सर्दी में ठिठुरती है बहुत रूह मेरी
जिस्म-ए-यार आ कि बेचारी को सहारा मिल जाए
फ़रहत एहसास

तेज़ धूप में आई ऐसी लहर सर्दी की
मोम का हर इक पुतला बच गया पिघलने से
क़तील शिफ़ाई

अब उदास फिरते हो सर्दियों की शामों में
इस तरह तो होता है इस तरह के कामों में
शोएब बिन अज़ीज़

ये सर्द रात ये आवारगी ये नींद का बोझ
हम अपने शहर में होते तो घर चले जाते
उम्मीद फ़ाज़ली

वो गले से लिपट के सोते हैं
आज-कल गर्मियां हैं जाड़ों में
मुज़्तर ख़ैराबादी

सर्दी में दिन सर्द मिला
हर मौसम बेदर्द मिला
मुहम्मद अल्वी

जब चली ठंडी हवा बच्चा ठिठुर कर रह गया
मां ने अपने लाल की तख़्ती जला दी रात को
सिब्त अली सबा

गर्मी लगी तो ख़ुद से अलग हो के सो गए
सर्दी लगी तो ख़ुद को दोबारा पहन लिया
बेदिल हैदरी

मेरे सूरज आ! मेरे जिस्म पे अपना साया कर
बड़ी तेज़ हवा है सर्दी आज ग़ज़ब की है
शहरयार

सूरज लिहाफ़ ओढ़ के सोया तमाम रात
सर्दी से इक परिंदा दरीचे में मर गया
अतहर नासिक 

वो ग़ज़ल की सच्ची किताब है उसे चुपके चुपके पढ़ा करो

यूँ ही बे-सबब न फिरा करो कोई शाम घर में रहा करो 
वो ग़ज़ल की सच्ची किताब है उसे चुपके चुपके पढ़ा करो 

कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से 
ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो 

अभी राह में कई मोड़ हैं कोई आएगा कोई जाएगा 
तुम्हें जिस ने दिल से भुला दिया उसे भूलने की दुआ करो 


मुझे इश्तिहार सी लगती हैं ये मोहब्बतों की कहानियाँ 
जो कहा नहीं वो सुना करो जो सुना नहीं वो कहा करो 

कभी हुस्न-ए-पर्दा-नशीं भी हो ज़रा आशिक़ाना लिबास में 
जो मैं बन सँवर के कहीं चलूँ मिरे साथ तुम भी चला करो 

नहीं बे-हिजाब वो चाँद सा कि नज़र का कोई असर न हो 
उसे इतनी गर्मी-ए-शौक़ से बड़ी देर तक न तका करो 

ये ख़िज़ाँ की ज़र्द सी शाल में जो उदास पेड़ के पास है 
ये तुम्हारे घर की बहार है उसे आँसुओं से हरा करो 

ख़याल जिस का था मुझे ख़याल में मिला मुझे

ख़याल जिस का था मुझे ख़याल में मिला मुझे
सवाल का जवाब भी सवाल में मिला मुझे

गया तो इस तरह गया कि मुद्दतों नहीं मिला
मिला जो फिर तो यूँ कि वो मलाल में मिला मुझे

तमाम इल्म ज़ीस्त का गुज़िश्तगाँ से ही हुआ
अमल गुज़िश्ता दौर का मिसाल में मिला मुझे

हर एक सख़्त वक़्त के बाद और वक़्त है
निशाँ कमाल-ए-फ़िक्र का ज़वाल में मिला मुझे

निहाल सब्ज़ रंग में जमाल जिस का है
किसी क़दीम ख़्वाब के मुहाल में मिला मुझे

Tuesday, December 15, 2020

जिस दिन तुमने सरल स्नेह भरमेरी ओर निहारा

उस दिन ही प्रिय जनम-जनम की
साध हो चुकी पूरी !

जिस दिन तुमने सरल स्नेह भर
मेरी ओर निहारा;
विहंस बहा दी तपते मरुथल में
चंचल रस धारा !
उस दिन ही प्रिय जनम-जनम की
साध हो चुकी पूरी !

जिस दिन अरुण अधरों से
तुमने हरी व्यथाएँ;
कर दीं प्रीत-गीत में परिणित
मेरी करुण कथाएँ !
उस दिन ही प्रिय जनम-जनम की
साध हो चुकी पूरी !

जिस दिन तुमने बाहों में भर
तन का ताप मिटाया;
प्राण कर दिए पुण्य —
सफल कर दी मिट्टी की काया !
उस दिन ही प्रिय जनम-जनम की
साध हो चुकी पूरी !

Monday, December 14, 2020

जो वो मिरे न रहे मैं भी कब किसी का रहा

जो वो मिरे न रहे मैं भी कब किसी का रहा
बिछड़ के उन से सलीक़ा न ज़िंदगी का रहा

लबों से उड़ गया जुगनू की तरह नाम उस का
सहारा अब मिरे घर में न रौशनी का रहा

गुज़रने को तो हज़ारों ही क़ाफ़िले गुज़रे
ज़मीं पे नक़्श-ए-क़दम बस किसी किसी का रहा

मैं गिरते-गिरते सम्भल लूं क्या

बिछड़ते वक़्त ये ख़याल आया
बिछड़ने का ख़याल क्यों आया
अलग होने की ज़रूरत क्या थी
यूं दूर जाने की ज़रूरत क्या थी
फ़ैसला अब भी बदल लूं क्या
मैं गिरते-गिरते सम्भल लूं क्या

बीत जाएगी सारी उम्र इन्हें देखते देखते..

चाहे जितनी बदनाम हो इश्क़ की गलियाँ...
पर कुछ तो बात है उनमे की उसके मरीज़ कम नहीं होते
आँखों में इतना नशा है तुम्हारे..
मानो धुएँ के बाज़ार से आयी हो...
बीत जाएगी सारी उम्र इन्हें देखते देखते..
चाहे जितनी भी तन्हाई हो..
मदहोश सा पड़ा हू इनकी गहराईयों मे उतर कर
सम्भाल लेना कहीं इश्क का मरीज़ न हों जाऊँ...

किससे करें उम्मीद

किससे करें उम्मीद 
वफा की मेरे हुजूर 

नजरों में आपकी दिखे 
सत्ता का अब गुरूर

लहजा भी बदल गया है 
अब हमसे बातचीत का

शब्दों में खालीपन दिखे
नहीं कोई रिश्ता प्रीति का

आगे ईश्वर ही कम करेगा
आपकी सत्ता का सुरूर

किससे करें उम्मीद…

किसानों की बिसात क्या है
सत्ता के जलवे जमाल में

राजनेताओं ने साथ छोड़ा
और मगन ऊंची उछाल में

कल तक रहनुमाई का जो 
नेता करते रहे थे दावा

ऐलान ए जंग के बाद से वे
कहीं नजर आते न दूर दूर

किससे करें उम्मीद….

दम भरते थे जनहित रक्षा
का जो क्षेत्र में घूम घूमकर

खामोशी से सत्ता का आस्वाद
ले रहे कुर्सी पर झूम झूमकर

सुविधाओं का लुत्फ उठाने
को तो चौकस रहे भरपूर

संसद में प्रश्न पूछने का भी
उनको आया नहीं शऊर

Sunday, December 13, 2020

मेरे इंतजार का तू इम्तिहान ना ले


मेरे इंतजार का तू इम्तिहान ना ले,
बेताबी मेरी कोई और जान ना ले।

और रुसवा ना कर मुझे जमाने में,
कहीं यह जहां मुझे पहचान न ले।

राज ही रहने के मोहब्बत को तेरी,
धड़कनों से कोई राज़ जान ना ले।

बहकी सी लगती है ये हवा अब तो,
किससे मोहब्बत के कोई सुन ना ले।

रहने दे थोड़ी सी दूरी अपने दरम्यान,
सुर्खी गालों की कोई पहचान ना ले।

डर लगता है रात की खामोशी से भी,
गुफ्त गु तेरे ख्वाबों की कोई सुन ना ले।

थोड़ी तो तड़प बाकी रहने दे आवारा,
राज़ मेरे सुकून का कोई जान ना ले।

ज़िंदगी जीने को है, जी इसे जीने वाले

ज़िंदगी जीने को है, जी इसे जीने वाले ,
हम भी तो तुझे, रोज़ नहीं मिलने वाले ।

क्यों नाराजगी जाहिर करें, किसी से भला,
कौन हमेशा के लिए, हम हैं ठहरने वाले।

चल कर लेते हैं, कुछ नादानियां हम भी ,
रोज कहाँ मिलेंगे, यूँ मरते हुए हँसने वाले ।

जख्म जो मिले वो, फूल बन जायेंगे ,
न मिलेंगे गुलिशतां में, यूँ महकने वाले।

ता'बीर ख़ुद 'दोस्त', लिखना जानती है ,
ख़्वाब उसके क्या, पढ़ेंगे पढ़ने वाले ।

कश्तियाँ उन्ही की, डूबती हैं 'दोस्त' ,
नहीं होते जो, तूफ़ां में संभलने वाले ।

चुपके चुपके आती थी वो

चुपके चुपके आती थी वो,
हौले हौले जाती थी।
एक सांस में अपने दिल की,
सारी बात सुनाती थी।।

वो मुलाकातें
चांदनी रातें
कितनी अच्छी लगती थीं।
मेरे ख्यालों में
हर पल बस
उसकी यादें सजती थीं।।
कलियों सी
शरमाती थी वो,
फूलों सी
मुस्काती थी।।
चुपके चुपके आती थी वो होले होले जाती थी

कितने अच्छे
दिन थे वो
कितने हसीं
ज़माने थे।
एक नहीं
उनसे मिलने के
संग में लाख बहाने थे।।
मेरी आंखो में
सपनों के
बुझते दीए जलाती थी।।
चुपके चुपके आती थी वो होले होले जाती थी

नियति को
मंजूर नहीं था
चाहत का
दस्तूर नहीं था ।
एक दूजे से
बिछड़ गए हम।
सोचा नहीं
मिल गए इतने गम।।
होके दूर
रुलाती थी वो
आकर पास हंसाती थी।
चुपके चुपके आती थी वो होले होले जाती थी! 

Friday, December 11, 2020

जरुरी तो नहीं हर कश्ती का किनारा हो।

जरुरी तो नहीं जीने के लिए सहारा हो,
जरुरी तो नहीं हम जिनके हैं वो हमारा हो,
कुछ कश्तियाँ डूब भी जाया करती हैं,
जरुरी तो नहीं हर कश्ती का किनारा हो।

वो मेरा कौन है मालूम नहीं है लेकिन

एक चेहरा जो मेरे ख्वाब सजा देता है,
मुझ को मेरे ही ख्यालों में सदा देता है।
वो मेरा कौन है मालूम नहीं है लेकिन,
जब भी मिलता है तो पहलू में जगा देता है।

जाने उस शख़्स को कैसे ये हुनर आता है


जाने उस शख़्स को कैसे ये हुनर आता है
रात होती है तो आंखों में उतर आता है


सच के रिश्ते बड़े नाजुक होते हैं
ऊंचा बोलने और धीमा सुनने से भी टूट जाते हैं
 

छोड़ दी हमने हमेशा के लिए उसकी आरज़ू करना
जिसे मुहब्बत की क़द्र न हो उसे दुआओं में क्या मांगना
 
शक से भी अक्सर ख़त्म हो जाते हैं रिश्ते
कसूर हर बार ग़लतियों का नहीं होता
 
मोहब्बत और मौत की पसंद तो देखो यारों
एक को दिल चाहिए और दूसरे को धड़कन
 
हमें भी नींद आ जाएगी हम भी सो जाएंगे
अभी कुछ बेक़रारी है सितारों तुम सो जाओ
 
हम मेहमान नहीं रौनक़-ए-महफ़िल है
मुद्दतों याद रखोगे कि ज़िंदगी में आया था कोई
 
तजुर्बा कहता है, मुहब्बत से किनारा कर लूं
दिल कहता है कि ये तजुर्बा दोबारा कर लूं
 
दिल का दर्द पलकों में कैद है
एहसास उनका हवाओं में कैद है
 
बदला लेना तुम्हारी फितरत है तो अच्छा है 
आज़माएंगे कभी तुम्हारे ख्वाब में आ कर

फिर एक दिन ऐसा आयेगा

फिर एक दिन ऐसा आयेगा
आँखों के दिये बुझ जायेंगे
हाथों के कँवल कुम्हलायेंगे
और बर्ग-ए-ज़बाँ से नुक्तो-सदा
की हर तितली उड़ जायेगी
 
इक काले समन्दर की तह में
कलियों की तरह से खिलती हुई
फूलों की तरह से हँसती हुई
सारी शक्लें खो जायेंगी
खूँ की गर्दिश, दिल की धड़कन
सब रागनियाँ सो जायेंगी
 
और नीली फ़ज़ा की मख़मल पर
हँसती हुई हीरे की ये कनी
ये मेरी जन्नत मेरी ज़मीं
इस की सुबहें इस की शामें
बेजाने हुए बेसमझे हुए
इक मुश्त ग़ुबार-ए-इन्साँ पर
शबनम की तरह रो जायेंगी
 
हर चीज़ भुला दी जायेगी
यादों के हसीं बुतख़ाने से
हर चीज़ उठा दी जायेगी
फिर कोई नहीं ये पूछेगा
'सरदार' कहाँ है महफ़िल में
 
लेकिन मैं यहाँ फिर आऊँगा
बच्चों के दहन से बोलूँगा
चिड़ियों की ज़बाँ से गाऊँगा
 
जब बीज हँसेंगे धरती में
और कोंपलें अपनी उँगली से
मिट्टी की तहों को छेड़ेंगी
मैं पत्ती-पत्ती कली-कली
अपनी आँखें फिर खोलूँगा
सरसब्ज़ हथेली पर लेकर
शबनम के क़तरे तोलूँगा
 
मैं रंग-ए-हिना, आहंग-ए-ग़ज़ल,
अन्दाज़-ए-सुख़न बन जाऊँगा
रुख़सार-ए-उरूस-ए-नौ की तरह
हर आँचल से छन जाऊँगा
 
जाड़ों की हवायें दामन में
जब फ़स्ल-ए-ख़ज़ाँ को लायेंगी
रहरू के जवाँ क़दमों के तले
सूखे हुए पत्तों से मेरे
हँसने की सदायें आयेंगी
 
धरती की सुनहरी सब नदियाँ
आकाश की नीली सब झीलें
हस्ती से मेरी भर जायेंगी
 
और सारा ज़माना देखेगा
हर क़िस्सा मेरा अफ़साना है
हर आशिक़ है सरदार यहाँ
हर माशूक़ा सुल्ताना है
 
मैं एक गुरेज़ाँ लम्हा हूँ
अय्याम के अफ़्सूँखाने में
मैं एक तड़पता क़तरा हूँ
मसरूफ़-ए-सफ़र जो रहता है
माज़ी की सुराही के दिल से
मुस्तक़्बिल के पैमाने में
 
मैं सोता हूँ और जागता हूँ
और जाग के फिर सो जाता हूँ
सदियों का पुराना खेल हूँ मैं
मैं मर के अमर हो जाता हूँ

Thursday, December 10, 2020

तेरा हर कहा मान लेते हैं

दिल में तू आया है तेरे कदमों की आहट से जान लेते हैं
तुझे ए गुलबदन हम तेरी खुशबू से पहचान लेते हैं

तू जो कहे दिन है तो दिन है तू जो कहे रात है तो रात है
तुझ में कुछ तो बात है जो हम तेरा हर कहा मान लेते हैं

कत्ल भी मेरा हुआ है और इल्ज़ाम भी मुझ ही पर है
क्या ये गुनाह तुमने किया है वो मुर्दों से ये बयान लेते हैं

राहे-हयात में कोई आसानी से गुजर गया कोई फिसल के गिर गया
ये रास्तों के पेचोखम हर कदम मुसाफिर का इम्तिहान लेते हैं

ए जिन्दगी तू अगर मयस्सर होने का वादा करे तो हम
तेरी तलाश में कुछ दिन और दुनियाँ की खाक छान लेते हैं

फ़िराक़ गोरखपुरी शायरी

1. जो बात है हद से बढ़ गयी है
वाएज़ के भी कितनी चढ़ गई है
हम तो ये कहेंगे तेरी शोख़ी
दबने से कुछ और बढ़ गई है

हर शय ब-नसीमे-लम्से-नाज़ुक
बर्गे-गुले-तर से बढ़ गयी है
जब-जब वो नज़र उठी मेरे सर
लाखों इल्ज़ाम मढ़ गयी है

तुझ पर जो पड़ी है इत्तफ़ाक़न
हर आँख दुरूद पढ़ गयी है
सुनते हैं कि पेंचो-ख़म निकल कर
उस ज़ुल्फ़ की रात बढ़ गयी है

जब-जब आया है नाम मेरा
उसकी तेवरी-सी चढ़ गयी है
अब मुफ़्त न देंगे दिल हम अपना
हर चीज़ की क़द्र बढ़ गयी है

जब मुझसे मिली 'फ़ि‍राक' वो आँख
हर बार इक बात गढ़ गयी है.

2. कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम
उस निगाह-ए-आशना को क्या समझ बैठे थे हम
रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर अपनी ही नज़र में हो गये
वाह री ग़फ़्लत तुझे अपना समझ बैठे थे हम

होश की तौफ़ीक़ भी कब अहल-ए-दिल को हो सकी
इश्क़ में अपने को दीवाना समझ बैठे थे हम
बेनियाज़ी को तेरी पाया सरासर सोज़-ओ-दर्द
तुझ को इक दुनिया से बेगाना समझ बैठे थे हम

भूल बैठी वो निगाह-ए-नाज़ अहद-ए-दोस्ती
उस को भी अपनी तबीयत का समझ बैठे थे हम
हुस्न को इक हुस्न की समझे नहीं और ऐ 'फ़िराक़'
महरबाँ ना-महरबाँ क्या क्या समझ बैठे थे हम.

3. बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं.

क्यों तूने मेरी यादों को बुला लिया

अपने वीराने पन से ख़फा था आज,
क्यों तूने मेरी यादों को बुला लिया
क्यों मेरे चैन को बेचैनी में बदल दिया
जानता है तू, तू मेरा हमराज है
तूने मेरे दुश्मन को क्यों भुला लिया
तुझे मालूम है यादें मेरी दुश्मन है
सुकून में था तेरे साथ गम बांट कर
अब डर लगता है कि तू भी बेपर्दा ना कर दे

अपने वीराने पन से ख़फा था आज,
क्यों तूने मेरी यादों को बुला लिया....

वो चेहरा ख़ूबसूरत है वो आँखें बात करती हैं

जब उतरे चाँद आँगन में तो रातें बात करती हैं 
वो चेहरा ख़ूबसूरत है वो आँखें बात करती हैं 

सफ़र का हौसला काफ़ी है मंज़िल तक पहुँचने को 
मुसाफ़िर जब अकेला हो तो राहें बात करती हैं 

शजर जब मुज़्महिल हों फूल हों शाख़ों पे अफ़्सुर्दा 
उदास आँगन में दीवारों से शामें बात करती हैं 

मिरी आँखों से नींदें ले के तुम ने रतजगे बख़्शे 
मिरे तकिए मिरे बिस्तर से रातें बात करती हैं 

शजर भी झूमते हैं जब हवाएँ गुनगुनाती हैं 
परिंदे लौट आते हैं तो शाख़ें बात करती हैं 

Tuesday, December 8, 2020

ख़्वाब बस ख़्वाब होता है।।

इसका कब एतबार
होता है।
ख़्वाब बस ख़्वाब
ही तो होता है।।
मुश्किल कभी
आसान होता है।
सवाल कब
बेजवाब होता है।।

मेरा दिल भीकमाल कर बैठा।

मेरा दिल भी
कमाल कर बैठा।
खुद से खुद का
सवाल कर बैठा।।
बेवजह क्यों यह
धड़कता है।
धड़कनों से मलाल
कर बैठा।।

आशिकी शायरी

आशिक़ी सब्र-तलब और तमन्ना बेताब
दिल का क्या रंग करूं ख़ून-ए-जिगर होते तक
मिर्ज़ा ग़ालिब

आशिक़ी में 'मीर' जैसे ख़्वाब मत देखा करो
बावले हो जाओगे महताब मत देखा करो
अहमद फ़राज़


आशिक़ी से मिलेगा ऐ ज़ाहिद
बंदगी से ख़ुदा नहीं मिलता
दाग़ देहलवी

थी इश्क़-ओ-आशिक़ी के लिए शर्त ज़िंदगी
मरने के वास्ते मुझे जीना ज़रूर था
जलील मानिकपुरी

चल साथ कि हसरत दिल-ए-मरहूम से निकले
आशिक़ का जनाज़ा है ज़रा धूम से निकले
फ़िदवी लाहौरी

आशिक़ी में बहुत ज़रूरी है
बेवफ़ाई कभी कभी करना
बशीर बद्र

ऐ दिल वो आशिक़ी के फ़साने किधर गए
वो उम्र क्या हुई वो ज़माने किधर गए
अख़्तर शीरानी

शमा माशूक़ों को सिखलाती है तर्ज़-ए-आशिक़ी
जल के परवाने से पहले बुझ के परवाने के बाद
जलील मानिकपुरी

ये भी फ़रेब से हैं कुछ दर्द आशिक़ी के
हम मर के क्या करेंगे क्या कर लिया है जी के
असग़र गोंडवी

कौन तुम मेरे हृदय में ? महादेवी वर्मा

कौन तुम मेरे हृदय में ?

कौन मेरी कसक में नित
मधुरता भरता अलक्षित
कौन प्यासे लोचनों में
घुमड़ घिर झरता अपरिचित ?
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स्वर्ण-स्वप्नों का चितेरा
नींद के सूने निलय में ?
कौन तुम मेरे हृदय में ?
 
विज्ञापन

अनुसरण निश्वास मेरे
कर रहे किसका निरंतर
चूमने पदचिह्न किसके
लौटते यह श्वास फिर फिर ?
 
कौन बंदी कर मुझे अब
बँध गया अपनी विजय में ?
कौन तुम मेरे हृदय में ?
 
एक करुण अभाव में चिर -
तृप्ति का संसार संचित;
एक लघु क्षण दे रहा
निर्वाण के वरदान शत शत;
 
पा लिया मैंने किसे इस
वेदना के मधुर क्रय में ?
कौन तुम मेरे हृदय में ?
 
गूँजता उर में न जाने
दूर के संगीत सा क्या!
आज खो निज को मुझे
खोया मिला, विपरीत सा क्या ?
 
क्या नहा आई विरह-निशि
मिलन मधु-दिन के उदय में ?
कौन तुम मेरे हृदय में ?
 
तिमिर-पारावार में
आलोक-प्रतिमा है अकंपित
आज ज्वाला से बरसता
क्यों मधुर घनसार सुरभित ?
 
सुन रही हूँ एक ही
झंकार जीवन में, प्रलय में !
कौन तुम मेरे हृदय में ?
 
मूक सुख दुख कर रहे
मेरा नया शृंगार सा क्या ?
झूम गर्वित स्वर्ग देता -
नत धरा को प्यार सा क्या?
 
आज पुलकित सृष्टि क्या
करने चली अभिसार लय में ?
कौन तुम मेरे हृदय में ?



(नीरजा से)

चितेरा- चित्रकार; चित्र अंकित करने या बनाने वाला; मुसौवर। 

बैठकर उलटे सीधे मैं कुछ सोच रहा हूँ

बैठकर उलटे सीधे मैं कुछ सोच रहा हूँ,
सूखे पत्तों को देखकर मैं कुछ सोच रहा हूँ|

हाथ पर हाथ धरे उन्ही की बेकरारी है,
पाँव पर पाँव धरे उन्ही की इंतजारी है,
कोई ख्यालों को जेहन मे बहुत नोच रहा हूँ,
बैठकर उलटे सीधे मैं कुछ सोच रहा हूँ|

गाल पर उँगलियों की छाप चढ़ी जाती है,
होंठ पर प्यार की मुस्कान जड़ी जाती है,
मिट गयी थी जो लकीर उसे खरोंच रहा हूँ,
बैठकर उलटे सीधे मैं कुछ सोच रहा हूँ|

आँख झुकती है कभी आँख कभी उठती है,
मेरे चेहरे पे जो रह रह के सिकन गिरती है,
अपनी बाहों से खुद बदन को दबोच रहा हूँ,
बैठकर उलटे सीधे मैं कुछ सोच रहा हूँ! 

Sunday, December 6, 2020

तुम मुझ को उस दिन खो दोगे।

हम तुम से जुदा हो जायेंगे,
ना जाने कहाँ खो जायेंगे,
तुम लाख पुकारोगे हमको,
पर लौट कर हम न आयेंगे,
थक हार के दिन के कामों से,
जब रात को तुम घर आओगे,
जब देखोगे तुम फोन को,
पैगाम न मेरे तुम पाओगे,
तब याद तुम्हें हम आयेंगे,
पर लौट के हम न आयेंगे,
एक रोज ये रिश्ता छूटेगा,
फिर न कोई हम से रूठेगा,
फिर हम न आँखें खोलेंगे,
न तुम से कभी फिर बोलेंगे,
आखिर
ऐ दोस्त उस दिन तुम रो दोगे,
तुम मुझ को उस दिन खो दोगे।

लेकिन मेरा अफ़साना उनके दिल में है.

1. ज़मानेवालों को पहचानने दिया न कभी.
बदल-बदल के लिबास अपने इनक़लाब आया.
सिवाय यास न कुछ गुम्बदे-फ़लक से मिला.
सदा भी दी तो पलटकर वही जवाब आया.

2. ज़िन्दगी में क्या मुझे मिलती बलाओं से नजात.
जो दुआएँ कीं, वो सब तेरी निगहबाँ हो गईं.
कम न समझो दहर में सरमाय-ए-अरबाबे-ग़म.
चार बूंदें आँसुओं की, बढ़के तूफ़ाँ हो गईं.

3. मेरी दास्ताने-ग़म को, वो ग़लत समझ रहे हैं.
कुछ उन्हीं की बात बनती अगर एतबार होता.
दिले पारा-पारा तुझ को कोई यूँ तो दफ़्न करता.
वो जिधर निगाह करते उधर इक मज़ार होता.

4. मैं नहीं, लेकिन मेरा अफ़साना उनके दिल में है.
जानता हूँ मैं कि किस रग में यह नश्तर रह गया.
आशियाने के तनज़्ज़ुल से बहुत खुश हूँ कि वो,
इस क़दर उतरा कि फूलों के बराबर रह गया.

5. दिल डूबते हैं हालत-ए-बीमार देख कर
आप उठ रहे हैं क्यूँ मिरे आज़ार देख कर
दिल डूबते हैं हालत-ए-बीमार देख कर
कौन इन लाखों अदाओं में मुझे प्यारी नहीं
नाम लूँ किस किस का मुझ को एक बीमारी नहीं
दिल ने रग रग से छुपा रक्खा है तेरा राज़-ए-इश्क़
जिस को कह दे नब्ज़ ऐसी मेरी बीमारी नहीं
किस नज़र से आप ने देखा दिल-ए-मजरूह को
ज़ख़्म जो कुछ भर चले थे फिर हवा देने लगे
मुट्ठियों में ख़ाक ले कर दोस्त आए वक़्त-ए-दफ़्न
ज़िंदगी भर की मोहब्बत का सिला देने लगे
सुनने वाले रो दिए सुन कर मरीज़-ए-ग़म का हाल
देखने वाले तरस खा कर दुआ देने लगे.

आशिक मिजाज शायरी

न जी भर के देखा न कुछ बात की 
बड़ी आरज़ू थी मुलाक़ात की 

बशीर बद्र


होश वालों को ख़बर क्या बे-ख़ुदी क्या चीज़ है 
इश्क़ कीजे फिर समझिए ज़िंदगी क्या चीज़ है 

निदा फ़ाज़ली 


नहीं आती तो याद उन की महीनों तक नहीं आती 
मगर जब याद आते हैं तो अक्सर याद आते हैं 

हसरत मोहानी
 
चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है 
हम को अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है 

हसरत मोहानी
 
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का 
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले 

मिर्ज़ा ग़ालिब
 
उस की याद आई है साँसो ज़रा आहिस्ता चलो 
धड़कनों से भी इबादत में ख़लल पड़ता है 

राहत इंदौरी
 
वो अफ़्साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन 
उसे इक ख़ूब-सूरत मोड़ दे कर छोड़ना अच्छा 

साहिर लुधियानवी
 
बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं 
तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं 

फ़िराक़ गोरखपुरी 
 
उम्र-ए-दराज़ माँग के लाई थी चार दिन 
दो आरज़ू में कट गए दो इंतिज़ार में 

सीमाब अकबराबादी
 
राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या 
आगे आगे देखिए होता है क्या 

मीर तक़ी मीर

छूट गई वो ख्वाहिशें

छूट गया वो सवेरा,छूट गया वो लम्हा
छूट गई वो ख्वाहिशें,छूट गई वो ताज़गी।
छूट गई वो चहक,छूट गई वो महक
छूट गई वो खुशियां,छूट गई है है वह दुनिया।
छूट गई वो शांति,छूट गई वो रौशनी
छूट गया है वो गांव,जहां उजड़ा है वो घर अपना।
शहरों की ज़िंदगी से, गांव की वो लाली है छूट गई।
वक़्त ने बदल दिया,ज़िंदगी का जाम धर दिया।
वो यादें हैं टूट गईं,वह खुशियां है लूट गईं।
उजड़ गया वो चमन,उजड़ गए वो इतिहास के पन्ने।

Saturday, December 5, 2020

स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से


स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।
 

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई
पात-पात झर गए कि शाख़-शाख़ जल गई
चाह तो निकल सकी न पर उमर निकल गई


गीत अश्क बन गए छंद हो दफन गए
साथ के सभी दिऐ धुआँ पहन पहन गए
और हम झुके-झुके मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।
 
क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा
क्या जमाल था कि देख आइना मचल उठा
इस तरफ़ जमीन और आसमाँ उधर उठा
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा
 
एक दिन मगर यहाँ ऐसी कुछ हवा चली
लुट गई कली-कली कि घुट गई गली-गली
और हम लुटे-लुटे वक्त से पिटे-पिटे
साँस की शराब का खुमार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।
 
हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ
होठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ
 
हो सका न कुछ मगर शाम बन गई सहर
वह उठी लहर कि ढह गये किले बिखर-बिखर
और हम डरे-डरे नीर नैन में भरे
ओढ़कर कफ़न पड़े मज़ार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।
 
माँग भर चली कि एक जब नई-नई किरन
ढोलकें धुमुक उठीं ठुमक उठे चरन-चरन
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन चली दुल्हन
गाँव सब उमड़ पड़ा बहक उठे नयन-नयन
 
पर तभी ज़हर भरी गाज़ एक वह गिरी
पुँछ गया सिंदूर तार-तार हुई चूनरी
और हम अजान से दूर के मकान से
पालकी लिये हुए कहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।

शूल- 1. एक प्रकार का प्राचीन अस्त्र जो बरछे की तरह का होता है; भाला; त्रिशूल 2. प्राचीन काल में मृत्युदंड देने का एक औज़ार; सूली 3. लोहे का लंबा नुकीला काँटा 4. पेट में वायु से होने वाला ज़ोर का दर्द 5. चुभने या कष्ट देने वाली बात 6. नुकीला सिरा; नोक 7. बाधा

सर्दी, धूप शायरी

-ये सर्द रात ये आवारगी ये नींद का बोझ
हम अपने शहर में होते तो घर चले जाते
- उम्मीद फ़ाज़ली

-वो सर्दियों की धूप की तरह ग़ुरूब हो गया

लिपट रही है याद जिस्म से लिहाफ़ की तरह
- मुसव्विर सब्ज़वारी

-जब चली ठंडी हवा बच्चा ठिठुर कर रह गया
माँ ने अपने ला'ल की तख़्ती जला दी रात को
- सिब्त अली सबा

-हवा का हाथ बहुत सर्द, मौत जैसा सर्द
वो जा रहा है, वो दरवाज़े सर पटकने लगे
- साक़ी फ़ारुक़ी

-गले मिला था कभी दुख भरे दिसम्बर से
मेरे वजूद के अंदर भी धुँद छाई थी
- तहज़ीब हाफ़ी

-सूरज लिहाफ़ ओढ़ के सोया तमाम रात
सर्दी से इक परिंदा दरीचे में मर गया
- अतहर नासिक

-ऐसी सर्दी है कि सूरज भी दुहाई मांगे
जो हो परदेश में वो किससे रजाई मांगे
-राहत इंदौरी

साली क्या है रसगुल्ला है : गोपालप्रसाद व्यास

तुम श्लील कहो, अश्लील कहो
चाहो तो खुलकर गाली दो !
तुम भले मुझे कवि मत मानो
मत वाह-वाह की ताली दो !
पर मैं तो अपने मालिक से
हर बार यही वर माँगूँगा-
तुम गोरी दो या काली दो
भगवान मुझे इक साली दो !

सीधी दो, नखरों वाली दो
साधारण या कि निराली दो,
चाहे बबूल की टहनी दो
चाहे चंपे की डाली दो।
पर मुझे जन्म देने वाले
यह माँग नहीं ठुकरा देना-
असली दो, चाहे जाली दो
भगवान मुझे एक साली दो।
 
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वह यौवन भी क्या यौवन है
जिसमें मुख पर लाली न हुई,
अलकें घूँघरवाली न हुईं
आँखें रस की प्याली न हुईं।
वह जीवन भी क्या जीवन है
जिसमें मनुष्य जीजा न बना,
वह जीजा भी क्या जीजा है
जिसके छोटी साली न हुई।
 
तुम खा लो भले प्लेटों में
लेकिन थाली की और बात,
तुम रहो फेंकते भरे दाँव
लेकिन खाली की और बात।
तुम मटके पर मटके पी लो
लेकिन प्याली का और मजा,
पत्नी को हरदम रखो साथ,
लेकिन साली की और बात।
 
पत्नी केवल अर्द्धांगिन है
साली सर्वांगिण होती है,
पत्नी तो रोती ही रहती
साली बिखेरती मोती है।
साला भी गहरे में जाकर
अक्सर पतवार फेंक देता
साली जीजा जी की नैया
खेती है, नहीं डुबोती है।
 
विरहिन पत्नी को साली ही
पी का संदेश सुनाती है,
भोंदू पत्नी को साली ही
करना शिकार सिखलाती है।
दम्पति में अगर तनाव
रूस-अमरीका जैसा हो जाए,
तो साली ही नेहरू बनकर
भटकों को राह दिखाती है।
 
साली है पायल की छम-छम
साली है चम-चम तारा-सी,
साली है बुलबुल-सी चुलबुल
साली है चंचल पारा-सी ।
यदि इन उपमाओं से भी कुछ
पहचान नहीं हो पाए तो,
हर रोग दूर करने वाली
साली है अमृतधारा-सी।
 
मुल्ला को जैसे दुःख देती
बुर्के की चौड़ी जाली है,
पीने वालों को ज्यों अखरी
टेबिल की बोतल खाली है।
चाऊ को जैसे च्याँग नहीं
सपने में कभी सुहाता है,
ऐसे में खूँसट लोगों को
यह कविता साली वाली है।
 
साली तो रस की प्याली है
साली क्या है रसगुल्ला है,
साली तो मधुर मलाई-सी
अथवा रबड़ी का कुल्ला है।
पत्नी तो सख्त छुहारा है
हरदम सिकुड़ी ही रहती है
साली है फाँक संतरे की
जो कुछ है खुल्लमखुल्ला है।
 
साली चटनी पोदीने की
बातों की चाट जगाती है,
साली है दिल्ली का लड्डू
देखो तो भूख बढ़ाती है।
साली है मथुरा की खुरचन
रस में लिपटी ही आती है,
साली है आलू का पापड़
छूते ही शोर मचाती है।
 
कुछ पता तुम्हें है, हिटलर को
किसलिए अग्नि ने छार किया ?
या क्यों ब्रिटेन के लोगों ने
अपना प्रिय किंग उतार दिया ?
ये दोनों थे साली-विहीन
इसलिए लड़ाई हार गए,
वह मुल्क-ए-अदम सिधार गए
यह सात समुंदर पार गए।
 
किसलिए विनोबा गाँव-गाँव
यूँ मारे-मारे फिरते थे ?
दो-दो बज जाते थे लेकिन
नेहरू के पलक न गिरते थे।
ये दोनों थे साली-विहीन
वह बाबा बाल बढ़ा निकला,
चाचा भी कलम घिसा करता
अपने घर में बैठा इकला।
 
मुझको ही देखो साली बिन
जीवन ठाली-सा लगता है,
सालों का जीजा जी कहना
मुझको गाली सा लगता है।
यदि प्रभु के परम पराक्रम से
कोई साली पा जाता मैं,
तो भला हास्य-रस में लिखकर
पत्नी को गीत बनाता मैं?

मुद्दतों के बाद उसकी आंखों मेंहमनें प्यार देखा

मुद्दतों के बाद उसकी आंखों में
हमनें प्यार देखा, 
छुप छुपकर ही सही, पर उसने हमें
कई बार देखा।

अब मै वो जज़्बा-ए-मासूम कहां से लाऊँ

अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो
मैने माना के तुम इक पैकर-ए-रानाई हो
चमन-ए-दहर में रूह-ए-चमन आराई हो
तलत-ए-मेहर हो फ़िरदौस की बरनाई हो
बिन्त-ए-महताब हो गर्दूं से उतर आई हो

मुझसे मिलने में अब अंदेशा-ए-रुसवाई है
मैने खुद अपने किये की ये सज़ा पाई है
ख़ाक में आह मिलाई है जवानी मैने
शोलाज़ारों में जलाई है जवानी मैने
शहर-ए-ख़ूबां में गंवाई है जवानी मैने
ख़्वाबगाहों में गंवाई है जवानी मैने
हुस्न ने जब भी इनायत की नज़र ड़ाली है
मेरे पैमान-ए-मोहब्बत ने सिपर ड़ाली है

उन दिनों मुझ पे क़यामत का जुनूं तारी था
सर पे सरशरी-ओ-इशरत का जुनूं तारी था
माहपारों से मोहब्बत का जुनूं तारी था
शहरयारों से रक़ाबत का जुनूं तारी था
एक बिस्तर-ए-मखमल-ओ-संजाब थी दुनिया मेरी
एक रंगीन-ओ-हसीं ख्वाब थी दुनिया मेरी

क्या सुनोगी मेरी मजरूह जवानी की पुकार
मेरी फ़रियाद-ए-जिगरदोज़ मेरा नाला-ए-ज़ार
शिद्दत-ए-कर्ब में ड़ूबी हुई मेरी गुफ़्तार
मै के खुद अपने मज़ाक़-ए-तरब आगीं का शिकार
वो गुदाज़-ए-दिल-ए-मरहूम कहां से लाऊँ
अब मै वो जज़्बा-ए-मासूम कहां से लाऊँ

Friday, December 4, 2020

आज वीरान अपना घर देखा - दुष्यंत कुमार

आज वीरान अपना घर देखा

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तो कई बार झाँक कर देखा

पाँव टूटे हुए नज़र आए
एक ठहरा हुआ खंडर देखा

रास्ता काट कर गई बिल्ली
प्यार से रास्ता अगर देखा

नालियों में हयात देखी है
गालियों में बड़ा असर देखा

उस परिंदे को चोट आई तो
आप ने एक एक पर देखा

हम खड़े थे कि ये ज़मीं होगी
चल पड़ी तो इधर उधर देखा! 

Thursday, December 3, 2020

ऐसा फूल सा आप भी बनेंI

झेलकर दूसरों की दुष्टता और निर्ममता
जो दिखाता अपनी पूर्ण सहिष्णुता
सबको महकाता जो अपनी सुगंध से
ऐसा फूल सा आप भी बनें
बांटता है जो अपनी मुस्कान और कोमलता
तितलियों और भंवरों को देता मधु का दान
सेवा और पुरस्कार की जो खान
ऐसा फूल सा आप भी बनें
ईर्ष्या , तनाव, द्वेष एवं बैर की भावनाओं को
जो रखता है अपने से कोसों दूर
सदा मन में रखता दूसरों के लिए सद्भावना
ऐसा फूल सा आप भी बनें
कुछ पाने की इच्छा और भावना से है जो ऊपर
देना और त्याग भावना ही है जिसमें अशेष
यही जिसके जीवन का मूल मंत्र और संदेश
ऐसा फूल सा आप भी बनें
हवा हो , धूप हो या बरसात
हर मौसम और हर हालत में जो
बेफिक्री से है डोलता और लहराता
ऐसा फूल सा आप भी बनें
सादगी , सुंदरता , सच्चाई का
पाठ जो पढ़ाता है
प्रेम और दया से जो सराबोर रहता है
ऐसा फूल सा आप भी बनेंI

अपनों का प्यार वही

अपनों का प्यार वही, परायों के तंज वही,
कमरा भी वही, दर-ओ-दीवारों के रंग वही,
हकीकत तन्हाइयों की कुछ भी हो "परस्तिश"
ख्वाबों, ख्यालों, की महफ़िल मे है संग वही! 

रख भी मत उम्मीद इक गद्दार से

रख भी मत उम्मीद इक गद्दार से
सिर्फ़ मिलती है जफ़ा मक्कार से

दोस्त ही जब बन गया दुश्मन तेरा
बच न सकता तू किसी भी वार से

ग़ैर होते जीत भी जाता मगर
बच न पाया अपनों की ही मार से

जो मज़ा उल्फ़त में है नफ़रत में कब
कुछ न मिलता जंग की ललकार से

बोलने दो उसको चाहे जो कहे
जीत लेना दिल मगर तुम प्यार से

कुछ न लाया जब तू आया था इधर
कुछ न लेकर जाएगा संसार से

ख़ुद ही आकर देखना "दोस्त" अब
लौटकर आओगे जब तुम पार से

गालिब के दस शेर

इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश 'ग़ालिब' 
कि लगाए न लगे और बुझाए न बने 

इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया 
वर्ना हम भी आदमी थे काम के 

इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा 
लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं 
 
दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आए क्यूँ 
रोएँगे हम हज़ार बार कोई हमें सताए क्यूँ 
 
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का 
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले 
 
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ाइल 
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है 
 
न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता 
डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता 
 
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले 
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले 
 
हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन 
दिल के ख़ुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है 
 
बे-ख़ुदी बे-सबब नहीं 'ग़ालिब' 
कुछ तो है जिस की पर्दा-दारी है 

Tuesday, December 1, 2020

ये आंसू जब निकलते हैं

ये आंसू जब निकलते हैं लबों की ओर चलते हैं
ज़रा सा पास आते हैं न जाने क्यों मचलते हैं

कहीं नादान ये आंसू तुम्हारी तरफ़ न जाएं
कि इसकी गर्म शिद्दत से हमारे गाल जलते हैं

ये आंसू दिल्लगी भी है ये आंसू आशिक़ी भी है
कि इन आंसू की चौखट पर ही सारे ज़ख्म पलते हैं

हमारी बेगुनाही की गवाही देते हैं आंसू
सदाएं जब निकलती हैं तो ये फौरन निकलते हैं

हमारी ज़िंदगी भी कम है अब आंसू बहाने को
आंसुओं की वजह से ही अब फूल खिलते हैं