बादशाहों की मुअत्तर ख्वाबगाहों में कहाँ,
वह मजा जो भीगी-भीगी घास पर सोने में है.
मुतमईन बेफिक्र लोगों की हँसी में भी कहाँ,
लुत्फ़ जो एक-दूसरे को देखकर रोने में हैं..
Wednesday, February 29, 2012
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आशु तो कुछ भी नहीं आसूँ के सिवा, जाने क्यों लोग इसे पलकों पे बैठा लेते हैं।