क्या हाल हो जो देख लें पर्दा उठा के हम
जिगर मुरादाबादी
ख़ूब पर्दा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं
साफ़ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं
दाग़ देहलवी
आंखें ख़ुदा ने दी हैं तो देखेंगे हुस्न-ए-यार
कब तक नक़ाब रुख़ से उठाई न जाएगी
जलील मानिकपुरी
सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता
निकलता आ रहा है आफ़्ताब आहिस्ता आहिस्ता
अमीर मीनाई
हज़ार चेहरे हैं मौजूद आदमी ग़ायब
ये किस ख़राबे में दुनिया ने ला के छोड़ दिया
शहज़ाद अहमद
देख कर हम को न पर्दे में तू छुप जाया कर
हम तो अपने हैं मियां ग़ैर से शरमाया कर
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
अभी रात कुछ है बाक़ी न उठा नक़ाब साक़ी
तेरा रिंद गिरते गिरते कहीं फिर संभल न जाए
अनवर मिर्ज़ापुरी
तसव्वुर में भी अब वो बे-नक़ाब आते नहीं मुझ तक
क़यामत आ चुकी है लोग कहते हैं शबाब आया
हफ़ीज़ जालंधरी
ख़ोल चेहरों पे चढ़ाने नहीं आते हम को
गांव के लोग हैं हम शहर में कम आते हैं
बेदिल हैदरी
चराग़-ए-तूर जलाओ बड़ा अंधेरा है
ज़रा नक़ाब उठाओ बड़ा अंधेरा है
साग़र सिद्दीक़ी
जो पर्दों में ख़ुद को छुपाए हुए हैं
क़यामत वही तो उठाए हुए हैं
हफ़ीज़ बनारसी
इस दौर में इंसान का चेहरा नहीं मिलता
कब से मैं नक़ाबों की तहें खोल रहा हूं
मुग़ीसुद्दीन फ़रीदी
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