महामारी लगी थी घरों को भाग लिये थे सभी मज़दूर, कारीगर. मशीनें बंद होने लग गयी थीं शहर की सारी उन्हीं से हाथ पांव चलते रहते थे वगर्ना ज़िन्दगी तो गाँव ही में बो के आये थे. वो एकड़ और दो एकड़ ज़मीं, और पांच एकड़ कटाई और बुआई सब वहीं तो थी.ज्वारी, धान, मक्की, बाजरे सब. वो बंटवारे, चचेरे और ममेरे भाइयों से फ़साद नाले पे, परनालों पे झगड़े लठैत अपने, कभी उनके. वो नानी, दादी और दादू के मुक़दमे. सगाई, शादियां, खलियान,सूखा, बाढ़, हर बार आसमां बरसे न बरसे. मरेंगे तो वहीं जा कर जहां पर ज़िंदगी है. यहां तो जिस्म ला कर प्लग लगाए थे !निकालेंं प्लग सभी ने,‘ चलो अब घर चलें ‘ – और चल दिये सब, मरेंगे तो वहीं जा कर जहां पर ज़िंदगी है !
– गुलज़ार
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