धूप ने गुज़ारिश की
एक बूंद बारिश की
घर ने अपना होश संभाला दिन निकला
खिड़की में भर गया उजाला दिन निकला
लम्बी सड़क पे दूर तलक कोई भी न था
पलकें झपक रहा था दरीचा खुला हुआ
उस से भी मिल कर हमें मरने की हसरत रही
उस ने भी जाने दिया वो भी सितमगर न था
यार आज मैं ने भी इक कमाल करना है
जिस्म से निकलना है जी बहाल करना है
ज़मीं छोड़ने का अनोखा मज़ा
कबूतर की ऊँची उड़ानों में था
किसी से कोई तअल्लुक़ रहा न हो जैसे
कुछ इस तरह से गुज़रते हुए ज़माने थे
गली में कोई घर अच्छा नहीं था
मगर कुछ खिड़कियाँ अच्छी लगी हैं
मुतमइन है वो बना कर दुनिया
कौन होता हूँ मैं ढाने वाला
तारीफ़ सुन के दोस्त से 'अल्वी' तू ख़ुश न हो
उस को तिरी बुराइयाँ करते हुए भी देख
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